राजा, राजा होता है। वह प्रजा का मालिक ही नहीं, दाता होता है। जी खोलकर सब कुछ देता है, इसी कारण उन्हें दाता भी कहते हैं। वह प्रजा को पुत्रवत् प्यार करता है। हर घर में उसके गुप्तचर यह पता लगाते हैं कि कौन सुखी है और कौन दु:खी है? वह उसके सुख-दु:ख में अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। इतिहास साक्षी है रणजीत सिंह जैसे भी राजा हुए, जिन्होंने किसी गरीब के घर में अनाज की गठरी अपने सिर पर रखकर उसके घर में भिजवाई, जिससे परिवार का कोई सदस्य भूखा नहीं रहे। हर्ष वर्धन जैसे भी राजा हुए जिन्होंने प्रयाग मेले में हर वर्ष अपने वस्त्र तक दान में दे दिया करते थे। बड़े-बड़े कलाकारों का उनके राज में पोषण हुआ करता था। राज दरबार में उनके नहीं आने पर स्वयं राजा उनके घर पर जाकर सम्मान किया करते थे। हर बड़े उत्सवों पर वे जनता को कुछ न कुछ भेंट कर जनता में खुशी बाँटा करते थे। ऋषि-महर्षियों का सम्मान जग जाहिर था। स्वयं राजकुमार उनके वहीं शिक्षा-दीक्षा लेते थे। संत समाज पर उनके स्वयं के बनाये हुए कानून ही लागू हुआ करते थे, बाहरी दुनियाँ से ज्यादा सरोकार नहीं था। किसानों के लिए कहावत थी, 'कोहहुँ नृप, हमें का हानि उनके राज में हिन्दु-मुस्लिम, सिख-इसाई, जैन-बौद्ध सबमें एकसी समानता थी, जातिगत भेदभाव की तो वह सोच ही नहीं सकते थे, सब उसकी रियाया थी। हिन्दु-मुस्लिम एक-दूसरे के त्यौंहारों में शरीक हुआ करते थे।
आज स्थिति बिल्कुल उल्टी है। कहने-सुनने को लोकतंत्र है, पर जनता की कहीं एक न चलती। आज के राजाओं के पास लुटेरों की फौज है। उन्हें हर जगह लूट का माल दिखाई देता है। जनता पर दुनियाँ भर के टैक्स लगे हुए हैं। हाल ही प्रकाशन में आया कि 17 रु. का पैट्रोल सभी टैक्स मिलाकर 70 रु. का हो जाता है। यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में जनता पर ही बोझ है। पुलिस, इडी, सीबीआई, इनकमटेक्स जैसे विभाग उनके शस्त्र है। एक तरफ बेरोजगारी का ताँडव नाच रहा है, तो दूसरी ओर महिलाओं एवं रिटायर्डमेन्ट कर्मचारियों को पुन: काम पर लगाने के लिए उनकी रिटायर्डमेन्ट की अवधि बढ़ाई जा रही है। न्याय तंत्र चरमरा-सा गया है। स्वयं रिटायर्ड न्यायाधीश भी पुन: सरकारी वेतन पाने के लिए बेरोजगारी की लाईन में लगे हैं। एक समय था, जब राजा अपने उत्तराधिकारियों को राजपाट संभलाकर, सन्यास धर्म का पालन करते थे। सरकारें अपनी व अपने कर्मचारियों की जेबे भरने के लिए शराब जैसे व्यसनों को बढ़ाने के लिए खुले आम लाटरियाँ निकाल रही है। जिनमें आवेदकों की संख्या बढ़ाने के लिए अवधि पर अवधि बढ़ाई जाती है। राजस्थान में अकेले टोंक जिले में 152 ठेकों के लिए 5131 आवेदनों से 15 करोड़ की कमाई हुई है, यह तो एक बानगी है। अब राज्य के अन्य जिलों में कितनी काली कमाई हुई होगी, इसका अन्दाजा आप लगा सकते हैं। हो सकता हो, यही हाल दूसरे राज्यों में भी हो। इनके लिए प्रजा कुएँ में डूब जाये, किसी की बनी-बनाई गृहस्थी उजड़ जाये, इन सत्ताधरियों के कानों में जूँ तक नहीं रेंगेगी। एक तरफ कहते हैं कि जनता ही हमारे लिए अहम है, फिर बीड़ी-सिगरेट, जरदा-तंबाकू-गुटका एवं मादक पदार्थ किस लिए?
एक तरफ कहते हैं, प्रशासन आपके द्वार, वहीं दूसरी तरफ अधिकाँश विभागों में भ्रष्टाचार अपने पैर पसार रहा है। जनता को इन विभागों में चक्कर पर चक्कर लगाना पड़ता है। एक तरफ सरकारे गरीब आदमियों के लिए आवास के सपने दिखाती है, वहीं दूसरी ओर बजरी खनन को लेकर रोक लगी हुई है, फिर भी काम धड़ल्ले से चल रहे हैं। इसमें एक ओर रिश्वत की बू आ रही है तो दूसरी ओर टैक्टर चालक चोरों की भाँति अपने वाहनों की स्पीड बढ़ाकर एक्सीडेन्टों के खतरे को अंजाम दे रहे हैं। ऐसा कोई वाहन नहीं, जिस पर चालान की तलवार नहीं लटकी हुई हो, इन पैसों का क्या हिसाब है? आज के राजाओं को अपनी कुर्सी दिखाई देती है, इसके लिए वे कोई सा भी दाँव चलने में नहीं हिचकते।
किसानों की दशा दयनीय है। वे सरकार की मेहरबानी में ही जी रहे हैं। सरकारें भी उन्हें अपंग बनाकर अपने आश्रित ही रखना चाहती है। उनके आत्मनिर्भर बनाने की ओर इनका कोई ध्यान नहीं है। यदि उनको आत्मनिर्भर ही बनाना चाहे तो उन्हें कर्ज में नहीं डालकर, पारंपरिक कृषि पर ध्यान देना चाहिए। हमने कई बार कहा है कि प्रत्येक गोपालक महिलाओं को 500 रु मासिक भत्ता एवं प्रत्येक बैलों से कृषि करने वाले किसानों को 1000 रु. मासिक न्यूनतम भत्ता उनके एकाउन्ट में मिलना चाहिए, जिससे वे अपनी जमीन व जानवरों को बचा सकें। यदि खेत में ट्रेक्टर चलता है तो वह खेतों में धुँआ ही धुँआ उगलेगा, वहीं खेतों में बैलों से खेती होती है तो समय भले ही अधिक लगे, लेकिन जमीन को गोबर के रूप में खाद एवं मूत्र के रूप में औषधि निशुल्क मिलेगी।
हम बार-बार कहते हैं कि बड़े उद्योगों से बेहतर है कि कुटिर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, जिससे जिन लोगों के पास कोई रोजगार नहीं है, वे उससे अपनी रोजी-रोठी चला सकें। पहले हमारी जातियाँ ही रोजगार पर टिकी थी जैसे कुम्हार, दर्जी, जुलाहे, खाती, लुहार, नाई, ब्राह्मण, महाजन सबके अपने-अपने काम थे। आज तो प्रत्येक जातियों को अपने काम करने में ही संकोच होने लगा है। स्व्यं समाज के लोग उनसे परहेज करने लगे हैं। ऐसे निज कर्म करने वाले को समाज अपनी बेटी देना ही नहीं चाहता। सबकी एक ही ख्वाहिश है कि हमें सरकारी नौकरी मिल जाये, अब सरकारें भी करें तो क्या करे, ये बीज भी उन्होंने ही बोये हैं। अब इसमें भी उनको कमाई ही नजर आने लगी। 100 आदमियों की वेकेन्सी पर 10,000 हजार फार्म, सबका शुल्क, फिर आखिर कौन लुटा? परिजन बच्चों की पढ़ाई में बर्बाद, फिर कम्पटीशन की तैयारी में कोचिंग क्लासों में बर्बाद, फिर वेकेन्सियों में बर्बाद, फिर भी कोई गारंटी नहीं कि उसको रोजगार मिल ही जाये। आखिर सारे युवा सरकार की ओर ही मुँह क्यों ताक रहे हैं? वहाँ उनको 40-50 से 1 लाख तक मासिक वेतन मिल जाता है तो प्राईवेट दुकानों एवं फर्मों पर 10 से 20 हजार भी बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं। और कब नौकरी से निकाल दिए जाये इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। उसी प्रकार हमारी जनता के द्वारा चुने गए विधायक एवं सांसदों का वेतन कितना है, इस पर सब मौन है, उन्हें जनता की कारुणिक पुकार नहीं सुनाई पड़ती। यदि देखा जाये तो मंहगाई का मूल कारण कर्मचारियों, अधिकारियों, विधायकों एवं सांसदों का बढ़ा हुआ वेतन है। प्राईवेट कंपनियों एवं सरकारी नौकरियों के वेतनमान में जमीन-आसमान का अंतर है। फिर नवयुवा का मन क्यों नहीं ललचायेगा, यही कारण है कि पैसों के लिए बड़े-से बड़े अपराध हो जाते हैं। ऐसे कुछ विरला ही मिलेंगे, जो वास्तव में जनता की सेवा के लिए अपना बढ़ा हुआ वेतनमान छोडऩे को तैयार हों।
आज भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बात जनता के दिलों को छूती है, यदि वे जनता को अपील करे कि-1. देश में किसी भी प्रकार का व्यसन स्वास्थ्य व स्वच्छता के प्रतिकूल है, इसे जनता स्वयं छोड़े। 2. दूसरी अपील करे कि देश में हमारे सभी भाई-बहिनों के हित को देखते हुए जातिगत आरक्षण देश की अखंडता को खंडित करने वाला है। 3. तीसरी अपील करे कि महिलाएँ व रिटायर्डमेंट व्यक्ति बेरोजगार युवकों के हित को ध्यान में रखते हुए सभी सरकारी नौकरियों से परहेज रखें। 3. चौथी अपील यह करे कि प्रत्येक किसान अपने खेतों में बैलों से कृषि करे, तो ऐसा कोई कारण नहीं कि जनता उस पर अमल नहीं करे। सब जानती है, नोटबंदी के समय, कारोना वायरस के संक्रमण के समय हर समय उनकी हर अपील को सिर नवाती है, जिससे देश खुशहाल हो।
जब 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जैसे मंत्रों से हम अपनी जनता में विश्वास बढ़ा रहे हैं तो यह जातिगत भेदभाव क्यों? क्यों नहीं हर तबके से प्रत्येक दंपति में से एक व्यक्ति को न्यूनतम मानक मूल्यों पर ही सही, 10,000 रु. मासिक पर रोजगार लगा दिये जाये, जिससे उनकी रोजी रोटी तो चल जाये। अत: सरकारों को संवेदनशील होनी चाहिए। प्रत्येक जनमानस की उन पर आस्था होनी चाहिए। पत्र-पत्रिकाएँ जनता की ही आवाज होती है, उन पर अमल होना चाहिए। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ ऐसे पचड़े में पडऩा ही चाहती, जिनसे उनकी पत्रिका ही बंद हो जाये या सरकारी विज्ञापन आना बंद हो जाये। यदि राजा सादगी से रहेगा तो जनता भी सादगी से रहेगी। यदि राजा प्रजा का पालन पुत्रवत् करेगा तो प्रजा भी उनके हर आदेश को पिता की तरह मानेगी।
आज की कैसी स्थिति है उस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। हां ब्लॉग के का प्रथम पेरेग्राफ में वर्णित उच्च मापदंडों को प्राप्त करने का हमें प्रयास करना चाहिये।
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