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बुधवार, 7 जुलाई 2021

नया सवेरा (जीवंत एवं सच्ची कहानी)

 


    कमल ने आखें खोली, रात के दो बज रहे थे। देखा नीलू जगी हुई थी। वह पुराने कपड़े निकाल-निकाल कर फाड़ रही थी। कमल ने नीलू से कहा, देर रात तुम इस समय यह पुराने कपडों का क्या कर रही हो? नीलू ने बड़ी सहजता से कहा, आप सो जाओ, मैं मेरा काम कर रही हूँ। कमल निरूत्तर हो गया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। थोड़ी देर बाद वह फिर नींद के आगोश में समा गया।

    दूसरे दिन नीलू नहा-धोकर, चाय लेकर कमल को जगा रही थी। कमल उठा, उसने चाय की चुस्किया लेते हुए फिर नीलू से रात को पुराने कपड़े फाड़-फाड़ कर इकट्ठे करने का कारण पूछा। नीलू ने कोई उत्तर नहीं दिया। बल्कि मुस्कराकर रह गई। चिड़ियायें कमरे में चहाचहा रही थी। पन्द्रह दिन पहले कैसे चिड़िया ने उनके लिए एक-एक तिनका जोड़कर घोंसला बनाया था, आज वह अपने बच्चों के लिए एक-एक दाना उनके मुंह में डाल रही थी। कमल अब समझ चुका था।

    कमल ने देखा कि हर जीव जंतु को अपनी प्रकृति का ख्याल रखना होता है। प्रकृति को अवरूद्ध करना या उसके विपरीत चलना ही सृष्टि का विनाश करना होता है। उसके कई दुष्परिणाम जीव जंतुओं को भुगतना पड़ता है। मनुष्य जान बूझकर भी विनाश के गर्त में पड़ता जा रहा है।

    नीलू का यह चौथा प्रसव था। उसका एक प्रसव उसके ससुराल तथा दो प्रसव उसके मैके में हो गये थे। नीलू की सास से पटरी नहीं बैठती थी तो कमल की अपने श्वसुर से छत्तीस का आंकड़ा था। यह अलग बात है कि खोटे समय में अपने पुत्र को देखते हुए कमल की माँ नीलू पर जान छिड़कती थी तो यही हाल नीलू के पिता का था। वे भी नीलू को देखते हुए कमल के भले के लिए चौक चौबंद रहते थे। रिश्ते की कड़ियां ही ऐसी थी कि न चाहते भी चाहना पड़ता था। नीलू के पापा ने कमल को कुछ दिन पहले ही कहा था-कंवर साहब आपके लड़कियां नहीं है, एक बार जापा(प्रसव) कराके देखो, सब पता पड़ जायेगा। उनके बोल कमल के सीने में नश्तर से चुभ रह थे। दोनों ने यह संकल्प कर लिया था, अबकी बार यह प्रसव दूसरी जगह ही होगा।

    शाम के समय कमल चार बजे ही विद्यालय से घर पर गया था। नीलू की दशा विकल थी। उसने हनुमान को बुलाया, हनुमान उनका विश्वासपात्र एवं आज्ञाकारी आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हनुमान के घर वाले भी हनुमान को गुरूजी के सेवा के लिए हमेशा कहते कि बेटा गुरू की सेवा में ही मेवा है, यही नहीं हनुमान के घर वाले गुरूजी के लिए कभी दूध-दहीं तो कभी आंवले भिजवा दिया करते।

    कमल ने हनुमान से कहा, हनुमान तुझे आज अपनी उडान उडनी है, पास के गांव से वैद्यराज जी को बुलाना है। आज तेरे बहिनजी की तबियत खराब है। हनुमान ने कहा गुरूजी आप चिन्ता न करे, मैं अभी साईकिल से वैद्यराज को लेकर ही आता हूँ।

    देखते ही देखते एक घंटा बीत गया, पर हनुमान नहीं आया। रास्ता भी ऐसा ही था, उबड़-खाबड़ रेत के टीबे थे, पास में एक नाला था, जहां अनिकट बंधा था। रेत ही रेत का अंबार था। कमल के लिए एक-एक पल बड़े असह्य होते जा रहे थे। नीलू छटपटा रही थी। कमल के धैर्य का बांध छलक रहा था। उसके मस्तिक में उल्टे-सीधे विचारों का प्रवाह बह रहा था। अब उससे नहीं रहा गया। किसी पड़ोसी महिला को अपने बच्चों और नीलू का ध्यान रखने के लिए कहकर कमल भी वैद्यराज को बुलाने निकल पड़ा । नीलू को कह दिया कि मैं अभी गया और अभी आया, तू जरा भी चिंता मत करना। कमल पैदल ही निकल पड़ा। वैद्यराज जी का गांव तीन किमी दूर था। कमल लगभग भाग रहा था। कभी सांस फूल जाती थी तो रूक जाता और कभी नीलू का ध्यान आता तो वह दौडने लग जाता, उसमें नई शक्ति आ गई थी, पैरों में पंख लग गये थे। रेतों के टीबों को रौंदते हुए कुछ ही मिनटों में वह वैद्यराज के गांव में जा पहँचा। वैद्य जी सवाईमाधोपुर के रहने वाले थे। वर्षों से यही आकर रहने लग गये थे। आस-पास के गांवों में उनका बडा नाम था। वह सिद्ध हस्त थे। आज दिन तक उनका कोई केस ख़राब नहीं हआ था। अच्छे-अच्छे अंग्रेज डॉक्टरों को भी बात मात दे दी थी। यहां तक कि अंग्रेजी डॉक्टर भी उनसे द्वेष रखने लगे थे। आस-पास के सारे बीमार जन आयुर्वेद औषधालय ही आते। प्रसव में वैद्य जी का कोई सानी नहीं था। ब्राह्मण होने के नाते वे दवाई देने के साथ-साथ मंत्रोच्चार भी करते। दवा और मन्त्र दोनों ही काम करते, फिर भी वैद्यराज बहुत सहज थे। गांव अभी कोसों दूर थे। जब भी कहीं कोई बुलावा आता, वह पैदल ही निकल पड़ते। पीड़ित की पीड़ा हरने में ही उन्हें परम शांति मिलती थी।

    कमल को वैद्य जी के ठिकाने का पता नहीं था सो घुसते ही चौपाल पर बैठे बुजुर्गों से वैद्य जी के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि एक लड़का उनको साईकिल पर बैठाकर तुम्हारे उधर ही दूसरे गांव में लेकर गया है। कमल ने सोचा मेरे रास्ते में तो वे नहीं मिले। कमल की सांस मानो अटक गई थी, नीलू का ध्यान आते ही फिर उसके पैरों में पंख लग गये। वह गांव के बुजुर्गों द्वारा बताये हुए तिराहे से फूटे हुए दसरे रास्ते पर वैद्य जी के पीछे चल पड़ा। रास्ते में वह उस दूसरे गांव में राहगीरों से वैद्य जी के बारे में पूछता रहता, जिसकी उसको पुष्टि हो चली थी। दौड़ता भागता वह उस दूसरे गांव में भी आ गया था। गांव में घुसते ही कुछ लोग गुरूजी को पहचान गये थे, शायद इस गांव के बच्चे गुरूजी के गांव में पढ़ते होंगे सो ज्योंही गुरूजी ने वैद्यजी के बारे में पूछा तो वहां खड़े एक-दो बच्चों ने कहा कि वह हनुमान के साथ आपके गांव गये हैं। मौसम में मावट के संकेत थे, पानी की बूदें गिरने लग गई थी, धुंधुलका छा गया था। गांव का रास्ता भी अनजान था। कमल सोच रहा था-नीलू न जाने कैसे होगी, भगवान ही बचाये। अब गुरूजी के सब्र का बांध टूट चुका था। आंखों में आँसू छलक आये थे। गांव में सज्जन व्यक्तियों का वास था। गांव वालों ने गुरूजी की मनोदशा ताड़ ली थी, ग्रामवासियों ने कहा, आप चिंता नहीं करे, भगवान अच्छा ही करेगा। गुरूजी के रास्ता न पहचानने की दशा पर ग्रामवासियों ने एक नवयुवक को साथ कर दिया। उसने छाता ले लिया था। दोनों अंधेरे धुंधलके में पानी की रिमझिम के बीच गांव के किनारे आ गये थे। गुरूजी की जान में जान आने पर वह नवयुवक गुरूजा से अनुमति लेकर वापस अपने गांव मुड़ गया था।

    कमल जल्दी-जल्दी घर की तरफ दौड़ा। नीलू को गांव की महिलाएं घेर रखी थी। वैद्य जी वहां पहुंच चुके थे। वैद्य जी ने कुछ दवाये दे दी थी। नीलू को आराम मिल गया था। वैद्य जी ने कहा अभी पन्द्रह दिन का इन्तजार कीजिए, बहिन जी को कुछ नहीं हुआ है। मैं स्वयं पन्द्रह दिन बाद आ जाऊंगा। या आता जाता देख लूंगा। अभी चिन्ता की कोई बात नहीं है।

    सचमुच नीलू ठीक हो गई थी, उसने रोटी खा ली थी। पर अभी कमल पर से खतरा टला नहीं था। पन्द्रह दिन बाद क्या होगा, ऐसा सोचकर ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे। देखते ही देखते आज पद्रहवां दिन था। यदा कदा वैद्य जी गांव में आते तो सार-संभाल पूछ जाते। आज वैद्य जी भी गांव में ही थे। कमल को कह दिया था कि मैं गाव में ही हूँ जब भी जरूरत हो मुझे सूचना दे देना। रात के आठ बजे कमल ने वैद्य जी को सूचना दी,। वैद्य जी शीघ्र गुरूजी के पास आ गये। नीलू को देखा, वे समझ गये। उन्होंने कुछ समय बाद मंत्रोच्चार के साथ एक इंजेक्शन नीलू के लगाया। गांव में एक महिला थी जो दांई काम भी करती थी, उसका बंदोबस्त पहले ही कर दिया गया था। वह भी वही थी। रात के दो बज चुके थे। कमरे में बच्चे के रोने की आवाज आ गई थी। वैद्यजी ने कमरे में जाकर नीलू को आवश्यक दवाएं दी और बाहर आ गए। यद्यपि कमल वैद्य जी को रोकना चाह रहा था, लेकिन वैद्य जी नहीं रूके, उन्होंने कह दिया अब चिन्ता की कोई बात नही है, मैं आज इसीलिए रुका हुआ था। कोई बात हो तो बता देना। वैद्य जी रात के दो बजे पैदल ही अपने गांव निकल गये।

    मुंह अंधेरे ही कमल उठ गया था। यद्यपि नीलू को अपने खून से लथपथ कपड़े पति से धुलवाने में संकोच हो रहा था। लेकिन कमल ने उस संकोच को दूर करते हुए कहा कि भगवान ने तुझे बचा लिया, वही मेरे लिए बड़ी बात है, यह कपड़े धोना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है।

    गांव के बाहर चड़स चल रहा था, उसने बाल्टी भरी और सारे कपडे खल-खल खंगाल दिये। मंदिर के बाहर दूर से ही ढोक लगाई। आज का सूर्य कमल के लिए नया सूरज था। नीलू के प्राण बच गये थे। घर पर नीलू प्रसन्न थी। बच्चा नीलू से लिपटा हुआ थिरक रहा था।

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बुधवार, 30 जून 2021

ग्रहयोग (एक जीवंत एवं सच्ची कहानी)

 




    आज तीन अक्टूबर था। मदनगोपाल पूजा-पाठ से निवृत्त हो चुके थे। वे अपने कस्बे से तीन किलोमीटर दूर एक गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक थे। दो अक्टूबर का अवकाश होने के कारण उन्हें आज तीन अक्टूबर को अपने विद्यालय में महात्मा गांधी एवं शास्त्री जी की की जयंती मनानी थी। वे उत्सव प्रभारी होने के नाते घर पर ही जयंती के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने वाले विद्यार्थियों की सूची देख रहे थे। इतने में लक्ष्मी ने में कहा चाय पकड़ाते हुए कहा.देखो जी, आज मैंने बुरा सपना देखा है। सुबह मैं गहरी नींद में थी कि मैंने देखा, दो चोर मेरे कमरे में आ गये। उन्होंने मेरे सन्दूक से कुछ रुपये निकाल लिए और मेरे कपड़े को तितर-बितर कर दिया। देखते ही देखते वे चोर बंदर की शक्ल के हो गए और मेरी आँख खुल गई। देखा तो कुछ नहीं था, लेकिन मैं एकदम से डर गई। मदनगोपाल ने बडी इत्मीनान से अपनी पत्नी को समझाया कि अपने पास क्या है लक्ष्मी, जो चोर लेकर जायेगा और ले जाता है तो ले जाने दो, उसका भाग्य है और वैसे भी सपने, सपने होते हैं। मुझे तो तनिक भी इनमें विश्वास नहीं है और देखा जाये तो मेरे घर की लक्ष्मी तो तुम हो। जब तक तुम हो परिवार का बाल भी बांका नहीं हो सकता। लक्ष्मी ने मुळकते हुए कहा, तुम्हें बातें बनाना ज्यादा आता है जी, मैं तो लगभग घबरा ही गई थी और वे बाहर निकल गये। 

    मदनगोपाल समय के बड़े पाबंद थे। लक्ष्मी को भी सुबह अपने काम में जल्दी लगी रहती थी। देखना कहीं देर हो जाये। अपने पति व बच्चों को तैयार कर उनके काम पर चले जाने के बाद ही वह आराम महसूस करती थी। रोजाना की भाँति आज भी लक्ष्मी ने जल्दी-जल्दी खाना तैयार किया। बच्चों के टिप्पन तैयार किए और स्कूटर पर एक बच्चे को आगे तथा दो बच्चों को पति के पीछे बैठा कर टा-.टा, टा-टा किया। उनके तीनों बच्चे कस्बे के एक ही विद्यालय में पढ़ते थे। 

मदनगोपाल ने बच्चों को उनके विद्यालय के पास स्थित पेट्रोल पंप पर छोड़ दिया। वहां से कुछ दूरी पर ही विद्यालय था। लौटते समय रास्ते में बच्चों के गुरुजी मिल गए। मदनगोपाल ने उनका अभिवादन किया, कुशलक्षेम पूछी। बच्चों के गुरुजी ने पूछा, क्यों गुरुजी! आजकल आपके बच्चे विद्यालय नहीं आ रहे हैं? मदनगोपाल ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है? मैं हमेशा की भांति अभी भी पेट्रोल पंप चौराहा छोड़कर आया हूँ। ये कहकर वे निकल गए। रास्ते में वे सोचते जा रहे थे, आखिर बच्चे चौराहे से कहाँ जाते हैं। उनके गुरुजी झूँठ नहीं बोल सकते। हो सकता है, उन्हें ध्यान न हो। शाम को खबर लेंगे।

    विद्यालय जाने के बाद बात आई गई हो गई। वे अध्यापन में खो गए। मध्यांतर पश्चात् पूज्य बापू की जयंती मनायी जाने लगी। विद्यालय परिसर रामध्वनि से गुंजायमान हो गया। बापू का प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, पीर पराई जाणे रे' की ध्वनि से वातावरण भक्तिमय हो गया। बच्चे भी बड़ी रोचकता से गांधीजी व शास्त्री जी की सादगी व उनकी महानता के बारे में सुन रहे थे। इस में मौके पर मदनगोपाल ने भी बच्चों को बड़े आत्मविश्वास भरे लहजे में कहा कि पूज्य बापू अपनी प्रार्थना में नित्य भगवान का नाम पुकारते थे। उनका भगवान ईश्वर अल्लाह एक समान था। उन्होंने बच्चों से कहा-भगवान के नाम में अमोघ शक्ति है। कितनी भी पड़े भारी विपत्ति आ जाये, यदि तुम सच्चे मन से प्रभु को पुकारोगे तो आपको आपके भगवान विपदा की घड़ी से  अवश्य बाहर निकालेंगे। ऐसे प्रवचन देकर वे घर की ओर रवाना हो चुके थे। 
    रास्ते में पुन: उनके तुम्हें मन  वहीं बात मंडरा रही थी कि आज अवश्य ही बच्चों की खैर-खबर लेंगे। वे घर आ चुके थे। सबसे छोटा बच्चा जो पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ता था, वह पहले ही घर आ चुका था। उसकी छुट्टी बड़े भाईयों से पहले हो जाया करती थी। मदनगोपाल ने लक्ष्मी से पूछा, क्या बच्चे अभी तक नहीं आये? लक्ष्मी ने कहा, आते ही होंगे, चार बजे हैं। अक्सर चार बजे तक बच्चे घर पर आ जाया करते थे। अब सवा चार बज गए। मदनगोपाल ने फिर लक्ष्मी से पूछा। लक्ष्मी ने कहा, हो सकता है, कहीं खेलने लग गए हो, अभी आ जायेंगे। मदनगोपाल ने अपनी पत्नी को बच्चों के गुरुजी वाली बात भी बताई। लक्ष्मी का मातृत्व अंदर से आहत हो, लेकिन वह अपने पति को वेदनामय नहीं देखना चाहती थी, उसने कहा, थोड़ी देर और देख लीजिए, आते ही होंगे। मदनगोपाल का एक-एक पल पहाड़ सा होता जा रहा था। वह सोच रहा था कि आज ही बच्चों की खबर लेने की बात मन में उठी और आज ही बच्चे नदारद । छोटे बच्चे से पूछना चाहा, पर वह अभी नासमझ था, समझा नहीं पायेगा।

    साढ़े चार बज चुके थे। बच्चे अब तक घर पर नहीं आये। अब लक्ष्मी भी विचलित होने लगी थी। जैसे-तैसे पौने पाँच बज गएथे। मदनगोपाल ने बडे बच्चे को साथ लिया। अपने स्कूटर से सारी जगह टटोली, जहाँ बच्चे जा सकते थे- विद्यालय, खेल का मैदान, रावण चौक, काला हत्था पर कहीं बच्चों का कोई थाह नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे? थक-हार कर अपने पड़ोसियों को सारी बात बताई। पड़ोसियों ने सांत्वना दी कि हो सकता है, आपके बच्चे आपके गाँव दादी के पास चले जाये। इतने अधीर ना हो, बच्चे कहीं न जायेंगे, मिल जायेंगे। शाम के सात बज गए थे। अंधेरा घिर आया था। मदनगोपाल का धैर्य जवाब दे चुका था। उसका खाना-पीना, आराम सब हराम हो चुके थे, यहां तक कि उसका पांच बजे से मल-मूत्र त्याग भी बंद हो चुका था। हारकर उसने लक्ष्मी से कहा, चलो कुछ रुपये दो, गाड़ी रिजर्व में चल रही है, तेल भी भरवाना है। लक्ष्मी को कुछ दिन पहले ही मदनगोपाल ने अठारह सो रुपये दिये थे। लक्ष्मी ने उनको हरिद्वार से लाये चोलड़े में रखा था। पर यह क्या, लक्ष्मी ने पूरे चोलड़े को उलट-पुलट कर खंगाल दिया, लेकिन रुपयों का काई अता-पता नहीं था। लक्ष्मी ने लगभग रोते हुए कहा अरे राम! वे रुपये भी गए और छोरे भी गए। अब क्या करूँ? पास के सटे हुए मकान में देबीशंकर जी अकेले रहते थे, वे बुजुर्ग थे। उनका मदनगोपाल के परिवार से पुत्रवत् स्नेह था। मदनगोपाल उनको काकाजी कहकर पुकारता था। उसने देबीशंकर जी के पैर पकड़ लिए और कहा कि अब क्या करूँ? परिवार पर आफत आ चुकी थी। देबीशंकर जी ने ताड़ लिया कि मदनगोपाल के पास एक धैला भी नहीं है। उनका दिल पसीज गया, उन्होंने कहा, बेटा चिंता मत कर, मैं तेरे साथ हूँ। मदनगोपाल को डूबते को तिनके का सहारा मिल गया।

    मदनगोपाल ने देबीशंकर को साथ लिया और थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने लगे। थानेदार ने पूछा, क्या किसी पर उनको शंका है? मदनगोपाल के अब तक कोई दुश्मन भी नहीं था, जिसका नाम लिया जा सकें। उसने कहा, हमारे कोई दुश्मन नहीं है। हाँ, हो सकता है वे कहीं अपनी दादी से मिलने गाँव चले गए हो। थानेदार ने कहा, पहले अपने गाँव की जानकारी ले लो, फिर हम तुम्हारी एफ.आई.आर. दर्ज कर लेंगे।

    काकाजी ने अपने मिलने वालों से किराये की एक जीप ली तथा बच्चों को ढूंढने निकल पड़े मदनगोपाल के गाँव। रास्ता बहुत खराब था। अभी हाल ही में बरसात हुई थी। जगह-जगह पानी भरा हुआ था। आसोज का महीना था। नवरात्रा चल रहे थे। गाँव में माईक से रामलीला के मंचन की आवाजें आने लगी थी। हारमानियम एवं नगाड़े ताबड़तोड़ बज रहे थे। रावण जोर-जोर से चिल्ला रहा था। अचानक गाड़ी के ब्रेक लगे। गाडी हिचकोले खा रही थी। रात्रि के ग्यारह बज चुके थे। मदनगोपाल ने घर की कुन्दी खटखटाई । माँ ने दरवाजा खोला। मदनगोपाल ने  बच्चों के बारे में माँ से पूछा तो उसके भी होश उड़ गए। बच्चे वहाँ नहीं आये थे। मदनगोपाल ने सोचा, हो सकता है, रामलीला देखने ही चले गए हो। रामलीला के दर्शकों में देखा, भीड़ छंट चुकी थी। इनेगिने दर्शक ही रह गए । बच्चों का कहीं अतापता न था।

    मदनगोपाल ने माँ को भी अपने साथ ले लिया। गाड़ी  कस्बे में आ चुकी थी। रात के साढ़े बारह बज चुके थे। थाने में सिपाही बैठा-बैठा ऊंघ रहा था। सिपाही से प्राथमिक रिपोर्ट लिखने को कहा गया। सिपाही ने कहा, रिपोर्ट सुबह लिखा देना, अभी इंचार्ज अपने क्वार्टर पर चले गए हैं। अभी तो आप बच्चों के हुलिए बता दीजिए। मदनगोपाल ने बताया, बड़े बच्चे का नाम सुनिल है, छटी कक्षा में पढ़ता है। सांवले रंग का है। स्कूल ड्रेस में है। दूसरा छोटा बच्चा गौर वर्ण का है, उसका नाम अनिल है। चौथी कक्षा में पढ़ता है। वह भी नीले रंग की स्कूल ड्रेस में है और अपना एड्रेस लिखा दिया। 

    रात के एक बज चुके थे। बच्चों के अपहरण संबंधी तरह-तरह के विचार घुमड़ रहे थे। सोच रहा था, अब क्या होगा? न जाने क्या हश्र होगा? वे मिलेंगे भी या नहीं? एक साथ दो-दो बच्चे चले गए। घर में भी कोहराम मचा था। पास की स्त्रियां लक्ष्मी को दिलासा देकर अपने-अपने घर जा चुकी थी। लक्ष्मी बदहवाश हुए जा रही थी। होनी के आगे कौन क्या कर सकता है?

    मदनगोपाल माँ पर बरस रहा था, सुनील को बिगाड़ने में तेरा ही हाथ था। माँ कह रही थी, सुनिल गलत था, पर तेरा जाम अनिल तो तेरे पास ही रहता था, वह उसके साथ क्यों गया? मदनगोपाल कह रहा था, यदि बड़ा लड़का बिगड़ा हुआ है, गलत है तो छोटे की क्या गलती, वह भी तो उसके साथ जा सकता है। 

    एक-दूसरे पर आरोपों की झड़ी चल रही थी। मदनगोपाल ने सोचा था, माँ से कहीं कुछ दिलासा ही मिलेगी लेकिन वह ता जले पर नमक छिड़क रही थी। यद्यपि लक्ष्मी और उसके सास के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। लक्ष्मी जानती थी कि उसकी सास का कोई नहीं जीत सकता, सारी पोट उस पर ही आ जायेगी। इसलिए लक्ष्मी बीच-बीच में लक्ष्मी मदनगोपाल को ही चुप किये जा रहा थी। देखो जी, सब लोग सो रहे हैं। कोई क्या कहेंगे। तुम तो चुप हो जाओ। माँ का पारा सातवें आसमान पर था। वह सुनाना ही जानता थी। सुनना उसके वश में ना था। मदनगोपाल के दिल में रह-रह कर शूल उभर रहे थे। लक्ष्मी जहर का घूंट पी रही थी। माँ बेटे में बहस चल रही थी। रात के दो बज चुके थे। अचानक लक्ष्मी ने कहा, रुको, जरा चुप भी हो जाओ, बाहर कोई है। बाहर से कोई मदनगोपाल-मदनगोपाल पुकार रहा था। गेट खोल दिया गया। बाहर दो आदमी खड़े थे।

    उनमें से एक ने कहा, मैं पुलिस से आया हूँ, तुम्हारा नाम मदनगोपाल है? 

    मदनगोपाल ने कहा, जी मैं ही मदनगोपाल हूँ।  

    सिपाही : आपके बच्चे खोये हैं?

    मदनगोपाल : जी हाँ, पर वे कहाँ हैं? 

    सिपाही : वे मिल चुके हैं, आप चिन्ता न करें। 

    मदनगोपाल : क्या वाकई आप सच कह रहे हैं?  मैं आपके पैरों पड़ता हूँ। आप केवल सांत्वना ही दे रहे हैं या सच ही में बच्चे मिल मिल गए हैं। मदनगोपाल, लक्ष्मी एवं माँ सभी उस सिपाही के पैरों में पड़-पड़ कर गिड़गिड़ा रहे थे। सिपाही ने कहा, माताजी आप बड़े हैं। चिन्ता न करें, सब ठीक है। बच्चे सकुशल हैं, लेकिन वे यहाँ नहीं है। इस समय वे जयपुर में हैं। सिपाही ने कहा, मदनगोपाल आप हमारे साथ चलिए। मदनगोपाल ने काकाजी को भी साथ कि लिया, अब वे दो से चार हो गए थे। चौराहा तक वे पैदल-पैदल आए। सिपाही ने होटल से अपने साथ लिये हुए व्यक्ति को वहीं पास की होटल में छोड़ दिया। सिपाही की गाड़ी वहीं पैट्रोल पंप पर खड़ी थी। सिपाही ने मदनगोपाल से कहा, गाड़ी में तेल कम है, इसे भरवा दीजिए। मदनगोपाल के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसने काकाजी से गिड़गिड़ाते हुए कहा, आप इनकी गाड़ी में जितना चाहे पैट्रोल भरवा दीजिए, मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ, सारा पैसा चुका दूंगा। काकाजी ने उस गाड़ी में सौ रुपया का पैट्रोल भरवा दिया।

    अब वे थाने पहुंच चुके थे। थाने में दूसरा संतरी बैठा हुआ था। उसने बड़े इत्मिनान से कहा, चिन्ता नहीं करें, बच्चे सकुशल हैं। आप दो सौ रुपये निकालिये, मैं पूरा एड्रेस बता देता हूँ। मदनगोपाल ने काकाजी को इशारा किया, उन्होंने डेढ सौ रुपये टेबुल पर रख दिये। सिपाही ने रुपये जेब में रखते हुए कहा, बच्चे जयपुर बजाज नगर थाने में हैं। बिस्किट खा रहे हैं। घबराने की कोई बात नहीं है। सिपाही ने एक पर्ची पर नम्बर लिखकर देते हुए कहा, किसी तरह की कोई समस्या हो तो मेरे इन नम्बरों पर फोन कर देना।

    अब मदनगोपाल को बच्चों के मिलने का इत्मिनान हो चुका था। अब उन्हें जयपुर के लिए बस पकड़ना था। शाम पाँच बजे से वह लघुशंका तक नहीं कर पाया था। शाम को हुई बारिश से जगह-जगह पानी भरा हुआ था। पास की संकरी गली में उसने लघु शंका की। सुबह के चार बज चुके थे। कुछ ही देर में बस आ चुकी थी। मदनगोपाल व काकाजी सुबह आठ बजे तक जयपुर के बजाज नगर थाने में आ चुके थे। यद्यपि मदनगोपाल का कभी थाने से पाला नहीं पड़ा था। थाने के बाहर संतरी गन लिये खड़ा था। संतरी ने उनके थाने में आने का कारण पूछा। मदनगोपाल ने कहा, बच्चे लेने आये हैं। संतरी समझ गया था। उसने सामने जाने का इशारा किया। वाकई बच्चे वहाँ कुर्सी पर बैठे हुए बिस्किट खा रहे थे, चाय पी रहे थे। छोटा बच्चा पिता को देखते ही रोने लग गया था, जबकि बड़ा बच्चा पिता को केवल घूर कर ही रह गया। थानाधिकारी ने एक संतरी के द्वारा मदनगोपाल को अंदर बुलाया। थानाधिकारी ने पूछा, क्या सबूत है कि ये बच्चे तुम्हारे ही हैं? मदनगोपाल ने कहा, अब मुझे कोई डर नहीं है, बच्चे मिल चुके हैं। आप जाँच कर लीजिए, मैं स्वयं सरकारी कर्मचारी हूँ। यहां मेरे बहुत से रिश्तेदार हैं। आप अपनी कार्यवाही कर सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। ये कहते हुए मदनगोपाल ने अपने कस्बे के थानाधिकारी के कहने के मुताबिक वहाँ के थानाधिकारी को डेढ़ सौ रुपये पकड़ा दिये। थानाधिकारी ने उन्हें बाहर बैठने का इशारा किया। वहाँ एक सिपाही कह रहा था कि आजकल ऐसे गुण्डे हैं, जो बच्चे-बच्चियों के गुर्दे तक बेच देते हैं। मदनगोपाल यह सुनकर बड़ा दुःखी हुआ। उसने भगवान का लाख-लाख धन्यवाद दिया। कुछ देर में एक सिपाही ने बच्चों के सामने उनके द्वारा लाया एक ड़ी प्लास्टिक का थैला एवं नौ सो रुपये मदनगोपाल को थमा दिया। उस थैले में दो प्लास्टिक के चश्में, कुछ खिलौने, गेंद, घड़ी, चाकलेट आदि थे।  
    नौ बजे थाने का मुख्य इंचार्ज आया। उसने एक सिपाही के द्वारा मदनगोपाल को ऊपर की मंजिल पर अपने पास बुलाया। सौ उसकी मंशा भी कुछ रुपये ऐंठने की थी। मदनगोपाल ने बता दिया था कि साब बच्चे मिल गए हैं तथा मैंने डेढ़ सौ रुपये नीचे थानाधिकारी को दे दिये हैं। इंचार्ज महोदय कुछ नहीं बोले। मदनगोपाल को नीचे भेज दिया गया। आधे घंटे पश्चात् कागज पर हस्ताक्षर करवाकर उन्हें बच्चों सहित छोड़ दिया गया। 
    अब वे बच्चों को साथ लेकर पुनः अपने कस्बे के लिए बस में बैठ में चुके थे। मदनगोपाल को बड़े लड़के सुनील पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसी ने अनिल को अपने साथ लिया था। क्या तकलीफ थी, घर पर क्यों नहीं कहा। आज तक उसने सुनिल के गाल पर एक तमाचा तक नहीं मारा था। सुनील दादा-दादी के पास ही रहता था। दादा-दादी सोचते, कहीं सुनील को माँ-बाप अपने साथ नहीं ले जाये। हम अकेले कैसे रह पायेंगे? दादा-दादी पोते पर अपना अंधा प्यार लुटाते जाते थे। दादाजी अनाज बेचकर सुनिल को कभी कुल्फी, कभी मिठाई, कभी नमकीन आदि खिलाया करते। कभी दादाजी के न रहने पर कभी सुनिल ही अनाज बेचकर कुल्फी, आइस्क्रीम आदि ले लेता। दादी भी मना नहीं करती। कभी-कभी मदनगोपाल को सुनिल के गुरुजी के द्वारा भी उसकी उदंडता की जानकारी मिल जाती थी, पर वह अपने माता-पिता के आगे बेबस था। पिता की मृत्युपरांत मदनगोपाल सुनिल को अपने यहाँ ले आया था। यहाँ सुनिल पर माता-पिता का पूर्ण नियंत्रण था। अब यहाँ बेचने के लिए अनाज भी न था। वहाँ दादा-दादी का प्यार था, यहाँ पर माता-पिता का निर्देशन था।
    मदनगोपाल के मन में विचारों का प्रवाह उमड़ रहा था कि अचानक गाड़ी ने ब्रेक लगा दिये। चार घंटे का सफर विचारों में ही सिमट गया था। बस उनके कस्बे के चौराहे पर खड़ी थी। काकाजी सहित मदनगोपाल एवं बच्चे घर आ चुके थे। कुछ देर बाद घर का वातावरण शांत हो चुका था। शाम के पांच बज बज गए थे। मदनगोपाल का सारा क्रोध सुनिल पर ही था। मदनगोपाल ने लक्ष्मी को विश्वास में लेकर सुनिल को कमरे में बंद कर दिया और एक लकड़ी की पट्टी से धुनाई शुरू कर दी। जिस लड़के के कभी पिता का एक तमाचा नहीं पड़ा हो, वह आज पिता का रौद्र रूप देख रहा था। कभी-कभी पिता का यह रूप भी बच्चे को सही मार्गदर्शन दे सकता है। दादी का दिल बैठा जा रहा था, उसने अपने गांव का रास्ता पकड़ लिया था। फिर जो कहानी सामने आई वह यह थी.. ।
    कुछ दिन से मदनगोपाल के चौराहे से उतारने के बाद सुनिल विद्यालय न जाकर अपने दो छोटे भाइयों को साथ लेकर दिन से कस्बे में इधर-उधर चक्कर काटने लगा था। कभी सिनेमा घर में पोस्टरों को निरखते तो कभी रावण चौक में क्रिकेट खेलते हुए बच्चों को। सुनिल कभी छोटे भाईयों को आईस्क्रीम खिलाता तो कभी पानी पतासा। छुटपुट पैसे घर से मिल ही जाते थे। एक दिन उसने हरिद्वार से लाये चोलड़े से पैसे निकालने की योजना बनाई। सुनिल ने छोटे भाई अनिल को भी अपने विश्वास में लिया कि कहीं मम्मी-पापा को न कह दे। उसी दिन वह पैसे लेकर हमेशा की तरह अपने पापा के साथ विद्यालय के पास चौराहे पर उतर गए। वे विद्यालय न जाकर छोटे अबोध भैया को वापस घर भेज दिया तथा सुनिल अनिल को लेकर रोड़वेज स्टेण्ड आ गए। बस का कण्डक्टर उन छोटे दोनों बच्चों को देखकर एक बार ठिठक कर उनके घर का पता पूछने लगा, लेकिन सुनल की बेबाकी से वह शायद संतुष्ट हो चुका था। कहा, हो सकता है, घर वालों ने ही भेजा हो। सुनील कुछ दिन पहले ही अपने परिवार के साथ मानसरोवर तक गया था, अतः वह सांगानेर थाने तक का रास्ता जानता था। सुनिल और अनिल वहीं उतर गए।
    अब क्या था, अब वे पूर्ण स्वतंत्र थे। सारा दिमाग सुनिल का चल रहा था। जिस प्रकार अभिमन्यु चक्रव्यह में प्रवेश करना तक ही जानता था, आने का मार्ग वह नहीं जानता था। सुनिल का दिमाग वहाँ तक पहुँचने तक का ही कार्य कर रहा था, लौटने की तो उसने सोची तक नहीं थी। अब वे बेफिक्र होकर बाजार में घूमने लगे। कभी चश्मा लेते तो कभी गुब्बारा, कभी मिठाईयां लेते तो कभी मूंगफली। उन्होंने खिलौने टाइप की दो घडियां भी खरीद ली थी। ये सब नजारा वहां रिक्षा वाले एवं ऑटो वाले देख रहे थे। वे सोच रहे थे, ये सुन्दर बच्चे कौन हैं? कहां से आये हैं? कहां जायेंगे? आखिर बार-बार यहीं पर आकर क्यों रुक रहे हैं? पर कोई बात करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। हो सकता हो, उनके परिजन इर्द-गिर्द हो। तभी छोटे भैया अनिल को लेट्रिंग लगी।। उसने एक रिक्षे वाले से पूछा, अकंल मैं लेट्रिंग करुंगा। रिक्षे वाले ने तुरंत एक प्लास्टिक की बोतल में पानी भरकर बच्चे को पकड़ा दी तथा शौच करने का रास्ता बता दिया। उसने उनका सामान अपने पास ले लिया। एक बार तो वह सुनिल से पैसे भी लेना चाह रहा था, लेकिन सुनिल ने उसको पैसे नहीं दिये। अनिल के शौच से निवृत्त होने के पश्चात् रिक्षेवाला निश्चिंत हो गया था कि ये अकेले हैं, क्यों नहीं इनको अपनी झुग्गी में ले जाया जाये। उसने अपना रिक्षा वहीं खड़ा कर दिया तथा उन बच्चों को एक सिटी बस में बैठाने लगा। वह एक बच्चे को ही अपने साथ ले जाना चाहता था। अत: कभी एक को अंदर बैठाता तो कभी दूसरे बच्चे को बाहर धकेलता। बच्चे एक-दूसरे से चिपटे हुए थे, वे अलग होने का नाम नहीं ले रहे थे। हार कर उसने देखा कि कहीं यात्रियों को इसकी भनक नहीं लग जाये। अत: वह आँख निकालकर भी अपने आपे को समेटे हुए था। जैसे-तैसे उसने उन बच्चों को अपने साथ बस में बैठा दिया तथा बजाज नगर उतरकर अपना झोपड़ी में लिवा लाया।
    रिक्षा चालक का नाम भज्जी था। उसकी उम्र 30-32 वर्ष की थी। उसने अपनी बीबी को घर से मारपीट कर कुछ दिनों पहले ही बाहर निकाल दिया था। वह अकेला ही रहता था। उसकी बहिन ने पूछा, क्यों रे भज्जी, ये छोरे कहां से पकड़ कर लाया है। भज्जी ने कहा, ये थानेदारजी के लड़कें हैं। इनको उनके घर छोड़ना है। यह कहकर वह अपने कमरे से बाहर निकल गया। पीछे से उसकी बहिन ने उन बच्चों से उनके परिवार की सारी जानकारी भी लेकर अपने घर वालों को दे दी। परिवार के दो-चार आदमियों ने बजाज नगर थाने में इत्तिला दे दी। थानेदार ने कहा, उन लड़कों को थाने लेकर आओं। इतनी ही देर में भज्जी अपनी झोपड़ी में आ चुका था। परिवार वालों ने भज्जी से कहा कि थाने में जानकारी हो चुकी है और थानेदार साहब ने बच्चों को लेकर तुम्हें थाने बुलवाया है। अब भज्जी विवश हो गया था। उसने उन छोरों पर आँखें तरेरते हुए कहा कि तुम मेरा नाम मत लेना कि मैं तुम्हें लेकर आया हूँ और कह देना कि तुम थानेदार जी के लड़कें हो।
    भज्जी एवं उनके परिवार के दो-चार आदमी उन लड़कों को लेकर थाने आ चुके थे। थानेदार जी ने उन लड़कों से उनका पता पूछना चाहा तो भज्जी की लाल-लाल-आँखें सुनिल को डरा रही थी। सुनिल झूँठमूठ अपने को थानेदार का लड़का बताने लगा, इसके आगे वह कुछ नहीं कह पाया। थानेदार जी ने अन्य थानों में भी फोन लगाकर पूछा, लेकिन झूठ के पांव नहीं होते। जब थानेदार ने देखा कि बात नहीं बन पा रही है तो भज्जी को डंडा दिखकर उसे अपने कक्ष से बाहर कर दिया। तथा बच्चों को बडे प्रेम से कहा बेटा तुम सच-सच अपने बारे में बता दो नहीं तो यह डंडा देख लेना। अनिल ने अपनी संपूर्ण जानकारी थानेदारजी को उनके प्रश्रानुसार दे दी। थाने से वायरलेस द्वारा मदनगोपाल के कस्बे के थाने में रात को घंटी घनघना उठी। जयपुर से बच्चों की गुमनामी की सूचना दी गई, जिसकी इस थाने से पुष्टि हो गई। फिर क्या था, रात्रि को ही थाने के सिपाही के द्वारा सूचना मिलने पर मदनगोपाल बच्चों को जयपुर से लिवा लाया था।

    दूसरे दिन सुनिल को साथ लेकर स्कूल बैग की तलाशी की गई। पंचायत समिति के पीछे पेड़ की ओट में दोनों के बैग सुरक्षित मिल गए थे। आज रविवार था। रवि की रश्मियां पूर्ण कांति से प्रकाशमान थी। कुँहासे के बादल छंट चुके थे। ग्रहयोग टल चुका था।

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रविवार, 30 अगस्त 2020

लाचार पिता का अफसर बेटा (जीवंत कहानी)

 

    


  मैं जोधपुर से जयपुर जा रहा था, एसी कोच था, सीमित यात्री थे। मेरे सामने की सीट पर एक पिता पुत्र बैठे थे। ठीक उसी समय एक फोन आता है और पुत्र बातें करने लगता है। बाद में मैंने उससे पूछा कि क्या बात है, तब उस लड़के ने बताया कि चार महीने बीत चुके, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई खबर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे? यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो, हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है। जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुजरने लगते हैं। कभी भाभी की तबीयत खराब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है। विवश होकर मुझे ही पापा को छोडऩे जयपुर जाना पड़ता है।  

हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना जयपुर का रिजर्वेशन करवा लिया।

    रणथंभौर एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर बेटा भी बैठ गया। साथ वाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थी। कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल रजत देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, ''मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न जयपुर में, मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा।''

पापा के स्वर की आद्रता पर तो बेटे का ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन बेटा खीझ उठा, बेटे ने कहा कि  कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे 'मुन्ना" न कहा करें, 'रजत" पुकारा करें, अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूँ। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊंचा कद है, मान-सम्मान है, बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा, बेटा तनिक जोर से बोला, 'पापा, परसों मेरी गुजरात के गर्वनर के साथ मीटिंग है, मैं जयपुर में कैसे रुक सकता हूँ।" 

पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गई। मैं उनसे कुछ कहता, तभी बेटे का मोबाइल बज उठा, फोन लाउड पर था, सभी सुन रहे थे, पुत्रवधु का फोन था, भर्राए स्वर में वह कह रही थी, 'पापा ठीक से बैठ गए न?"

'हाँ हाँ बैठ गए है, गाड़ी भी चल पड़ी है।   'देखो, पापा का ख्याल रखना, रात में मेडिसिन दे देना, भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना, पापा को वहाँ कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए।

'नहीं होगी।" बेटे ने फोन काट दिया। पिता ने पूछा कि रितु का फोन था न? मेरी चिंता कर रही होगी।

पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी मेड़ता स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाजा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख बेटे को बेहद आश्चर्य हुआ और एकदम से कहा कि मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाकात होगी। अब रजत अतीत को याद कर कहने लगा कि एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाजी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी। शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया। रजत ने कहा कि दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा, कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफी लोग बैठे हुए थे, बिना उनकी ओर नजर उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था कि यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, 'रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया, पहचाना मुझे मैं रमाशंकर।"

मैं सकपका गया, फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों के सम्मुख उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे खल रहा था, वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाखिल हुआ तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था, उसका मुझे 'सर" कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुजारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया।

कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा, हुंह, आज मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया और वह...।  पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल रजत वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर उनके करीब बैठ गया, एक उड़ती सी नजर उस पर डाल रजत ने अखबार पर आंखें गड़ा दी, तभी रमाशंकर बोला, 'नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।" रजत ने नम्र स्वर में पूछा, 'कैसे हो रमाशंकर?"

'ठीक हूँ सर।"

'मेड़ता कैसे आना हुआ?"

'छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था, अब जयपुर  जा रहा हूँ , शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था, 'छोटा भाई, हाँ याद आया, क्या नाम था उसका?" रजत ने स्मृति पर जोर डालने का उपक्रम किया, जबकि उसे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था।

'सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं, आए दिन हजारों लोगों से मिलते हैं, आपको कहाँ याद होगा, देवेश नाम है उसका सर।"

पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला, 'देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो, हाँ  तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश जयपुर में है।"

'हां रजत, उसने वहां मकान खरीदा है, दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है। चार-पांच दिन वहाँ रहकर मैं और अम्मा जोधपुर लौट आएंगे।"

'इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो।"


'अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी, इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न?"  'हाँ, यह तो है, पिताजी कैसे हैं? रजत ने पूछा, तब रमा शंकर ने कहा कि पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था, अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती है, अब तो अल्जाइमर भी बढ़ गया है।

'तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा? क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे? ऐसा पूछकर रजत शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था।" 

आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,  'नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से जोधपुर में रही हैं। उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए। कभी इधर, तो कभी उधर, कितनी पीड़ा होगी, उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा। वह हम पर बोझ हैं।

रजत मुस्कुराया, 'रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए, जीवन में सिर्फ  भावुकता से काम नहीं चलता है।" अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों माँ-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे?"

'पता नहीं रजत, मैं जरा पुराने विचारों का इंसान हूँ, मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है। कोई भी काम मुश्किल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए।" माँ-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कत्र्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं। समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाएए तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए, 'मैं दोनों के बीच का संवाद सुन रहा था कि अचानक रजत को ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने उसके मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। रजत नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद रजत की आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें  दिलोदिमाग में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका। क्या इतना बड़ा मुकाम मैंने सिर्फ  अपनी मेहनत के बल पर पाया है, नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है। रजत ने मुझे बताया, तब मैंने उसे कहा कि धैर्य से काम लो, परन्तु रजत निरन्तर बोल कर मुझे अपनी बात बता रहा था ..आखिर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए, मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर कदम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की जरूरत है तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूँ, दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं।

एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज से मेरे पांव ठिठक गए।" मम्मी पापा से कह रही थीं, 'इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोडऩा चाह रहे हैं।"

'मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?

पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, 'आपकी तरफ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूँ। रजत और रितु आपका बहुत ख्याल रखेंगे, यह एक माँ के अंतर्मन की आवाज है, उसका विश्वास है जो कभी गलत नहीं हो सकता।"

इस घटना के पाँच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा, बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूँ भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए। अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊ? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाए? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे, पापा को जब इस बात का पता चला तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की जोधपुर में गुजरी थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका वक्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु... सोचते-सोचते रजत ने एक गहरी सांस ली।

आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू पूरी रात  तकिया भिगोते रहे। उफ यह क्या कर दिया मैंने? पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया। आज वह जहाँ कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, रजत को  आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती, वह तो दिल में होती है। अचानक रजत को एहसास हुआ कि मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाजी मार ले गया था, पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का कद मुझसे बहुत ऊंचा था।

गाड़ी जयपुर पर रुकी तो रजत रमाशंकर के करीब पहुंचा। उसके दोनों हाथ थाम भावुक स्वर में बोला, 'रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूँ, यह सफर सारी जिंदगी मुझे याद रहेगा।" कहने के साथ ही रजत ने उसे गले लगा लिया। मुझे भी जाना था, परन्तु मैंने देखा कि आश्चर्यमिश्रित खुशी से रमाशंकर रजत को देख रहा था। रजत बोला, 'वादा करो, रमाशंकर अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे?"

'आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।" खुशी से उसकी आवाज कांप रही थी। अटैची उठाए पापा के साथ रजत नीचे उतर गया। रजत ने जाते जाते मुझे प्रणाम किया और घर आने का आग्रह किया। अब दोनों बाहर आकर एक ही टेक्सी से मानसरोवर जाने का मैंने रजत को कहा तो वह बोला अंकल मुझे एयरपोर्ट जाना है। 

रजत ने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, 'एयरपोर्ट क्यों?" 

भावुक होकर रजत पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, 'पापा, मुझे माफ कर दीजिए, हम वापिस जोधपुर जा रहे हैं, अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।" 

पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा। 'जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।" 

वह बुदबुदाए, कुछ पल के लिए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा, रजत को ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हो, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला पूजा।

मैंने भी रजत और उसके पापा से विदा ली और विश्वास दिलाया कि माँ का विश्वास कभी निरर्थक और झूंठा नहीं हो सकता।  

                                                                      द्वारा- रामगोपाल शर्मा (जन सम्पर्क अधिकारी), जोधपुर 

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

आधुनिक युग में एक दाधीच परिवार- जिसमें सतयुग की परम्परा

प्रेरणास्रोत जीवंत परिवार - 




     जोधपुर-जोधपुर के पास पीपाड़ तहसील में साथीन गांव में भेड़ा(दाधीच) परिवार जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। यानि 80 बीघा जमीन, पांच ट्यूबवेल, सारे खेत में पाईप लाईन 5-5 हजार लीटर की दो पानी की टंकियां, ट्रेक्टर, जीप, मोटरसाइकिल और गांव में छ: कमरों का बहुत बड़ा मकान, दो  कमरे गेट पर एक महिलाओं के लिये और एक पुरुषों के मेहमानों से मिलने के लिये। उनमें दरी बिछी हुई तथा पानी का घड़ा और ऊपर लोटा। आप समझ गये होंगे कि आधुनिक कोई मेहमान घर के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। वर्तमान में दो बेटे जो स्वयं आठवीं पास, लेकिन उनकी पत्नियां एक एल.एल. बी. और दूसरी बी.एस.सी. पास। पिताजी भी आठवीं पास और माताजी दसवीं पास। उनके घर में गेहूँ, चावल, चीनी, तेल, मसाले वगैरह लाना वर्जित है। मकान के अन्दर बहुत बड़ा चौक है, जो पत्थर का बना हुआ है। कमरों की छत किसी जमाने में घास-फूस की झोपड़े की तरह थी, लेकिन अब सीमेंट की सीटें लगवा ली। टाईलेट बाथरूम में अब टाइलें लगवा ली। नल चौक में एक ही है। अभी भी बाल्टियों में पानी भर ले जाते है। छ: कमरों को तीन परिवार में बाँटा हुआ है। चार बच्चे हैं-सबसे बङा 15 साल का आठवीं पढ रहा है, साथ में खेती के काम में हाथ बंटाता है। गाँव में आठवीं तक की ही स्कूल है। अत: बाहर पढऩे कोई नहीं गया। बच्चा मोटर साईकिल चला लेता है। जीप और ट्रेक्टर सीख रहा है। औरते घाघरा-ओढना ही पहनती है। पुरुष कमीज-पाजामा, लेकिन खेतों में काम करते वक्त बरमोड़ा पहन लेते हैं। 


    जोधपुर-पीपाड़ के कई रिश्ते आते हैं, लेकिन वे लोग वहाँ सम्बन्ध नहीं करते हैं। एक बहू हैदराबाद की है तो दूसरी श्री गंगानगर की। बेटी कलकत्ता ब्याहि है। गाँव वाले कितनी बार उनके परिवार वालों को सरपंच-मुखिया बनाना चाहते हैं, लेकिन उनका मानना है कि हमारे विचार रहन-सहन बदल जायेगें। अत: उन्हें साफ  मना कर देते है। मकान पूरा गोबर से साल में दो बार लीपते हैं। उनके पास चार भैस एवं चार गायें है। दो फसल लेते हैं और साग-सब्जी उगाते हैं । वे पहले फसल काटते थे। अब पूरी फसल ठेका पर दे देते हैं। सब्जियां भी छ: छ: महीनो में ठेके देते हैं। इससे उन्हें फिक्स आमदनी हो जाती है और पूरा ध्यान फसल बोना, पैदा करने में ही लगाते हैं। घर का गोबर खेती के काम में ही लेते हैं। सारा काम घर के छ: जने मिलकर करते हैं। कभीकभार बाहर के मजदूरों से काम करवा लेते हैं। दूध भी कोई आकर ले जाता है। काफी दूध तो घर में ही लग जाता है। बिलौना, घट्टी पीसना, खीच कूटना घर की औरतें कर लेती है। बाजरी की रोटी, मक्खन हमारे नाश्ते में हर रोज़ होता है। हरी सब्जियाँ, दाल, कढ़ी, राबड़ी, गुड़ खाने का मीनू में होता है। बाहर की कोई वस्तु न तो बड़े लोग और न ही बच्चे लाते हैं और खाते है। वे कहते हैं- ईश्वरकी कृपा है,अभी तक बहुओं ने हमारी परम्परा तोडऩे की बात नहीं कही। मोबाइल हमारे घर में नहीं है। कोई अर्जेन्ट होता है तो पड़ौसी का नम्बर देकर रखते हैं। कार्य की व्यस्तता के कारण ज्यादा रिश्तेदारी में आना जाना पसंद नहीं करते है। शादी-विवाह, मरण-मौत में यहां से एक दो जने ही जाते हैं। लङकों की शादी में भी 10-15 जनों से ज्यादा इकठ्ठे नहीं हुए। इनका परिवार महाराज के नाम से जाना जाता है। बहुत ही कम लोगों को पता है कि ये भी दाधीच ब्राह्मण है। ये सुखी और स्वस्थ है। आज तक हमारे परिवार में कोई अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ। कभी कभार गाँव के वैद्यजी से पुङिया ले आते हैं। 

द्वारा ए, एन. करेशिया, जोधपुर  

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

शराब विरोधी संकल्प(लघु कहानी)


    

 किसी गाँव में एक गोपी पटेल रहता था। उसकी उम्र लगभग 45-50 वर्ष की थी। उसका रंग पक्का एवं मजबूत कद काठी थी।   पटेल खानदान का गाँव में अच्छा रुतबा था। लेकिन गोपी पटेल में एक आदत खराब थी, वह शाम के समय अक्सर शराब पीता था। इसी कारण पटेल खानदान की इज्जत माटी में पलीत हुए जा रही थी। उसी शराब की लत के कारण उसकी पत्नी उसको छोड़कर दूसरी जगह बैठ गई थी। उसके एक लड़का भी था, जो अब बड़ा हो चुका था, वह ट्रक में ड्राईवरी का कार्य करने लग गया था। उसके पिता के  शराब की लत के कारण उसकी भी शादी भी नहीं हो पा रही थी। इसी कारण वह भी घर पर यदा-कदा ही आता था।  
जब गोपी पटेल सादा रहता, तो सबके हाथ जोड़कर बड़े मान-सम्मान से बात करता, लेकिन शराब के नशे में वह सीधे तू-तड़ाम के साथ सीधे गाली से बात करता। इसी कारण गाँव वाले उससे कन्नी काट चुके थे। यहाँ तक कि उसके दो भाई भी उससे बात नहीं करते थे। अब वह अकेला था, उसकी रोटी वह स्वयं ही बनाता। तीसरे पहर वह अपने गाँव से सटे तीन किमी दूर राजमार्ग स्थित गाँव में अक्सर जाया करता। वहाँ भी किसी बेवा महिला से उसकी आँख लग गई थी। शाम के समय वहीं ढाबों में चाय पी लिया करता।  
एक दिन वह सुबह 10-11 बजे ही राजमार्ग पर आ धमका। नशे में वह धुत तो था ही। गाँव का एक परिचित छोटू खां मिल गया। छोटू खां केवल नाम से ही छोटू था, लेकिन था वह पूरे छ: फिट का हृष्ट-पुष्ट, उससे केवल दो-चार साल ही छोटा था। यद्यपि वे नौ भाई थे, लेकिन उस गाँव में उसका अकेला ही घर था। वह उस गाँव में रुई पिन्दाई का कार्य करता था। अपने काम से काम में ही उसकी लगन थी। गाँव वालों से भी उसकी अच्छा मेल-मिलाप था। आज वह भी अपने कस्बे में जाने के लिए बस का इन्तजार कर रहा था कि सुबह-सुबह ही उसकी इस शराबी से मुलाकात हो गई। यद्यपि वह इससे कन्नी काटना चाह रहा था, लेकिन बस की राह में उसे वहाँ खड़ा रहना भी उसकी मजबूरी थी।
गोपी पटेल को क्या सुझी कि उसके पास आकर बोला, अरे तू मुझसे लड़। बेचारे छोटू को लडऩे से क्या मतलब था। वह हाथ जोड़कर बोला, भाई तू जीता मैं हारा, मैंने अपनी हार मानली। लेकिन गोपी पर तो लडऩे की धुन सवार थी। वह फिर छोटू को उकसाया अरे तू मुझसे भिड़ता है कि नहीं? बेचारा छोटू बार-बार हाथ जोड़ता, उधर गोपी की धुन बढ़ती जाती। आखिर छोटू का भी खून खोलने लगा, लेकिन गाँव में पटेलों का आतंक था सो वह समझदारी से काम कर रहा था। अबके गोपी ने छोटू की कमर को पकड़ कर उसको उठाना चाहा, तो छोटू ने उसको उठाकर जमीन पर पटक दिया। हाथ पैर तो पहले से ही लडख़ड़ा रहे थे, अब पटेल से उठा नहीं जा रहा था। छोटू बेचारा घबरा गया था। ढाबों वालों ने उसे समझाया कि डरने की कोई बात नहीं है, हम खुद देख रहे थे, तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं, हम सब उसके घर वालों को समझा देंगे। इतने में छोटू की बस आ गई, वह बस में बैठकर चला गया।
गोपी पटेल के छोटू खां द्वारा सड़क पर गिराये जाने की खबर आग की तरह फैली। सब अपने-अपने मुँह से बातें बना रहे थे। जितने मुँह उतनी बात। उसके तीन भाई लट्ठ लिये राजमार्ग पर आ धमके। वह अभी तक सड़क पर ही पड़ा था, किसी ने उसे उठाने की जहमत भी नहीं की। ढाबे वालों ने उनको समझा दिया कि इसमें छोटू खां  की कोई गलती नहीं थी, तुम्हारा भाई ही उसे उठा कर पटक रहा था सो वह तो उठा नहीं, और उसके वजन से तुम्हारा भाई गिर पड़ा।
अब उसके भाइयों ने अपने उस बड़े भाई को गाँव ले आये। वहाँ आकर उसको खूब समझाया कि तूने हमारे पटेल खानदान की इज्जत को मिट्टी में मिलाया है। उसके बाद उसको खूब धोया, तथा उसे एक जनेऊ भी धारण करा दी, तथा संकल्प भी कराया कि जिन्दगी भी अब शराब नहीं पिऊँगा।
लेकिन गाँव वालों की मजबूरी थी कि सरकार ने एक-एक लाईसेंस पर शराब की चार-चार दुकाने लगा रखी थी। गाँव वालों की कोई सुनने वाला भी नहीं था, न जाने कितने शराबी पैदा हो रहे थे, जिनके घर उजड़े जा रहे थे। अबके गांव वालों ने सोच लिया था कि वोट उसी को देंगे, जो हमारे गाँव में शराब के ठेके हटायेगा। आज गाँव में सबने मिलकर शराब विरोधी संकल्प लिया।
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गुरुवार, 21 मई 2020

खामोश (कहानी)


    अचानक रात्रि के सन्नाटे को चीरते हए मकान की कॉलबैल एक घनाघना उठी। गर्मी के दिन तो थे ही-थकी-हारी मैं ग्यारह बजे सोई थी, कि उनींदी बाहर की लाईट जलाकर देखा तो मेरे होश फाख्ते हो गये। सामने चंचल खड़ी थी। ऑटो पीछे मुड़ रहा था। इतनी देर रात यह कहाँ से आ रही है? मैंने खड़े-खड़े ही दीवार घड़ी पर नजर डाली। रात के सवा बज रहे थे। मैंने अन्दर से ही पूछा, चंचल सब ठीक तो है? कम से कम तू फोन तो कर ही सकती थी।
चंचल मुंबई में किसी युवक के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही थी। उसका इन तीन वर्षों में एक-आध बार ही फोन आया होगा। वह बड़ी जिद्दी स्वभाव की थी, कभी किसी की बात नहीं मानती थी।
चंचल ने कहा, यही से सब पूछ लेगी कि गेट भी खोलेगी? मैंने गेट खोल दिया। चंचल के पास दो सूटकेश व एक हैण्डबेग था। उसने सारा सामान बरामदे में एक ओर फेंक दिया और हो खुद बरामदे में पड़े पलंग पर पसर गई। वह काफी उदास एवं अनमनी लग रही थी। मैंने पुनः पूछा, इतनी रात तुम कहाँ से आ रही हो? कम से कम एक बार तो फोन कर ही देती, तेरे जीजाजी को ही तूझे लेने बस स्टेण्ड भेज देती। सब ठीक-ठाक तो है? उसने कहा, सारे सवाल दीदी तुम अभी ही पूछ लोगी, क्या सुबह नहीं पूछ सकती?
मेरे दिमाग में ढेर सारे सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे। मैं हम अनमने मन से बिस्तर पर आ गई। पतिदेव निश्चिंत होकर सो रहे थे, चाहे चोर चोरी कर ले जाये, उनकी बला से। उनकी भोली सूरत मनमोहक लग रही थी। यद्यपि मैं उधेड़बुन में थी, लेकिन सोते हुए पतिदेव को जगाना मैंने उचित नहीं समझा।
मैं करवटे बदल रही थी, नींद कोसों दूर हो गई थी। अभी कल ही की तो बात थी....।
घर में हम चार ही प्राणी थे। माँ-पिताजी, मैं और चंचल। हमारे घर में एक छोटा सा मंदिर भी था। माँ ही सेवा-पूजा करती थी। माँ आध्यात्मिक, सुसंस्कारी, धार्मिक मनोवृत्ति की थी। रोज रामचरित मानस के पाठ करके भोजन किया करती। पिताजी को जरा भी कष्ट न हो, उनका पूर्ण ध्यान रखती थी। पिताजी प्राईवेट फैक्टरी में काम करते थे। यद्यपि पिताजी की आय अधिक न थी, फिर भी हमारी हर डिमांड वह बड़ी सहजता से पूरी करवा देती थी। अपने लिए वह कभी कुछ नहीं मांगती। उनकी आमद में ही घर का काम चला देती थी। माँ सारे दिन काम पर लगी रहती, मुझे तो माँ पर तरस आता, मैं अक्सर उनके काम में हाथ बँटाती रहती थी।

हमारा पालन-पोषण लड़कों की भाँति हो रहा था। हम एक ही विद्यालय में पढ़ती थी। पिताजी चाहते थे कि हम खूब पढे बजे और बड़े अफसर बने। लेकिन जब मैंने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली तो माँ ने पिताजी को साफ कह दिया कि बच्ची बड़ी हो गई है। जमाना खराब है, महानगरों में आये दिन शराबी, लडकियों को अपनी हवश का शिकार बना रहे हैं । मैं अपनी बच्ची को खोना नहीं चाहती। जल्दी ही इसके हाथ पीले कर दीजिए। वैसे भी इनके ही खाने-पहनने के दिन हैं।

जल्दी ही माँ की मुराद पूरी हो गई। एक कस्बे में मेरे लिए वर मिल गया। वह दिल्ली की एक प्रेस में काम करता था। जब पिताजी ने माँ को बताया तो माँ मारे खुशी के फूली न समायी। लगे बात हाथ पिताजी ने माँ को जब उनकी फोटो बताई तो माँ बड़ी प्रसन्न हुई।
माँ चाहती थी कि हम दोनों का एक साथ ही विवाह हो भी जाये तो खर्चा भी बच जायेगा। जब चंचल ने सुना तो साफ इन्कार कर दिया कि मैं अभी विवाह नहीं करूंगी। मैं अपने पैरों पर खड़ी होकर ही शादी करुंगी। पहले आप लोग ही तो कहा करते थे कि हमारी बेटियों को अपने पैरों पर खड़ी होने पर ही इनकी शादी करेंगे। पिताजी भी चंचल का पक्ष लेने लग गये थे। फिर मम्मी जी कुछ नहीं बोली, मन मसोस कर रह गई। है?
मेरा धूमधाम से विवाह संपन्न हो चुका था। मैं अपने ससुराल में आ गई थी। सासु माँ मेरा बहुत ख्याल रखती थी। मेरी पढ़ाई ब्रेक हो चुकी थी। मेरे ससुराल वाले नहीं चाहते थे कि हमारी बहु घर से बाहर निकले। घर में सब कुछ था। समय के साथ मेरे दो बच्चे भी हो गये थे। मेरा मन ससुराल में रम गया था। अब मैं यदा-कदा ही । किसी कार्यक्रम के निमित्त अपने पीहर जाती थी।
मेरे ससुराल जाने के बाद माँ अनमनी को हो गई थी। चंचल, चंचल लड़की तो थी ही। वह घर पर कहाँ टिकती थी। उस पर शादी से ज्यादा अपने कॅरियर बनाने की ज्यादा धुन थी। पिताजी भी चाहते थे कि मेरी बिटिया का विवाह इस महानगर से बाहर न हो। समय के साथ उसने एम.ए./एम.एड./ पी.एच.डी. कई उपाधियां धारण कर ली थी। समाज में अब उसकी शैक्षणिक योग्यता के समकक्ष वर मिलना असंभव सा लग रहा था। माँ परेशान हो रही थी। उसकी तबियत भी खराब रहने लगी थी। पिताजी चंचल के लिए वर तलाश करने में जुटे थे कि देखते ही देखते चंचल गर्भवती हो गई। जब माँ को मालूम हुआ तो उन पर सौ-सौ घड़े पानी पड़ गये। उसने मुहल्ले में बाहर आना-जाना छोड़ दिया। चंचल ने सब कुछ बता दिया था। लड़का उसका सहपाठी ही था। वह गैर बिरादरी का था।
माँ-पिताजी ने चंचल को गर्भ गिराने के लिए बहुत समझाया, लेकिन चंचल उसी से शादी करने के लिए अडिग थी। माँ पिताजी कर भी क्या सकते थे? समाज भी कोर्ट-कचहरियों के आगे साथ नहीं दे रहा था। ऐसों केसों में कोर्ट भी लड़कियों का ही साथ देता दिखाई दे रहा था। गैर बिरादरी के कारण समाज भी उनको कैसे समझा सकता था? आखिर हार कर हालात से समझौता कर लिया। जैसे-तैसे चंचल ने नीरज से मंदिर में शादी कर ली और आर्य समाज में शादी का रजिस्ट्रेशन भी करा लिया।
चंचल उसके ससुराल में जा चुकी थी। चंचल के बच्चा भी हो चुका था। घर में नीरज और उसकी माँ ही थी। नीरज की मनमौजी स्वभाव का था। शुरू-शुरू में तो वह चंचल को खूब घुमाया करता, बाद में उसके पैसे भी ठिकाने लग गये थे। उधर सास भी चंचल से खपा थी। वह कहती रहती थी कि इसने मेरे बेटे की जिन्दगी खराब कर दी। चंचल बाहर जाकर कमाना चाहती थी, लेकिन सास इसके खिलाफ थी। अक्सर चंचल दिन में अपने पीहर आ जाती। पहले-पहले तो मम्मी-पापा को अच्छा लगता। पर धीरे-धीरे उन्होंने भी उससे कन्नी काटना शुरू कर दिया। पापा उसे ससुराल में रहने की हिदायत देते, पर चंचल कहाँ मानने वाली थी। उसका भी वहाँ से मोह भंग हो चुका था। उधर नीरज ने भी उस पर ध्यान देना बंद कर दिया था।
चंचल को एक बार फिर अपना कॅरियर याद आया। वह बहुत सारा पैसा कमाना चाहती थी। उसको पैसे में ही सारा सुख नजर आने लग गया था। एक दिन चंचल बड़ी खुश थी, मानो उसकी मुराद पूरी हो गई हो। उसने हाल ही में एक प्राईवेट कंपनी में इन्टरव्यू दिया था। जिसका हैड ऑफिस मुंबई में था। वहाँ उसको चार लाख रुपये वार्षिक का पैकेज दिया जा रहा था। मम्मी-पापा ने उसको खूब समझाया कि तुम्हारा जीवन अपने पति व बच्चों के लिए हैं, तूने खुद पसंद किया है फिर तू क्यों उनको छोड़कर जा रही है ? तूने वैसे ही हमारे खानदान पर कालिख पोत दी है। तेरे कारण हमारा रिश्तेदारों में भी आना जाना छूट गया है। पर चंचल कहाँ मानने वाली थी।
एक दिन वह मुंबई चली गई। उसने वहाँ अपनी नौकरी को ज्वाइन कर ली। अब वह न पीहर की सुध लेती और न ससराल की, यहाँ तक कि उसे उसके बेटे की भी सुध न रहती। उस पर तो मानो पैसे कमाने का भूत सवार था।
यद्यपि माँ अपना मकान बेचकर दूसरी जगह मकान लेना चाहती थी, लेकिन कोड़ियों के दाम बेचना भी सहज नहीं था। पीछे से माँ भी घुटती रही और एक दिन वह चल बसी। पिताजी भी माँ के सदमे को सहन नहीं कर सकें, तीसरे दिन वह भी चल बसे। हमने ही उनका क्रिया कर्म किया। चंचल का तो कोई अता-पता ही नहीं था।
जवान लड़की अकेली कैसे रह सकती थी। उसे किसी न किसी का अवलंबन तो चाहिए ही। चंचल के फ्लेट में उसके सामने के रूम में एक समवय सुन्दर लड़का रहता था। वह हमेशा अपनी आँखों पर एक बड़ा सा चश्मा लगाये रहता। गौरा-चिट्ठा का रंगरूप था, पैसे की कोई कमी न थी। एक गाड़ी और एक ड्राईवर भी हमेशा उसके साथ रहते थे। धीरे-धीरे चंचल पर उस लड़के का नशा चढ़ने लगा था और एक दिन उसने मुंबई की वह हाईफाई नौकरी भी छोड़ दी तथा उसके साथ ही रहने लगी थी। उसका एक-आध बार ही फोन आया होगा।
मुझे नींद कब आ गई, ध्यान ही नहीं रहा। दीदी-दीदी की आवाज से मेरी निद्रा टूटी। सामने देखा, चंचल मेरे लिए चाय लेकर खड़ी थी। उधर चंचल ने बताया कि आज उस लड़के को पकड़ने के लिए पुलिस पीछे पड़ी थी। वह हाई फाई अन्डर डॉन था। वह हिरोइन की तस्करी में गिरफ्तार हो चुका था। अब उसको भी अपनी गिरफ्तारी का भी डर सता रहा था। अब अचानक उसे अपने पति व बच्चे की याद सता रही थी।

उधर नीरज का भी उसकी माँ की इच्छानुसार अपनी
बिरादरी में विवाह हो चुका था। उसकी गृहस्थी बस चुकी थी। वह भी अब कमाने लग गया था। जब हमने उनको फोन किया तो नीरज की पत्नी बिफर पड़ी, वह पुलिस बुलाने के लिए कह रही थी। चंचल को पुलिस का डर वैसे ही था सो अब वह खामोश हो चुकी थी।
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रविवार, 17 मई 2020

मृत्यु (कहानी)




      मैं
उसके कमरे के दरवाजे पर जाकर बैठ गया। वह अधीर था, उसका ध्यान छोटी मूसल से जल्दी-जल्दी दर्द निवारक गोली को बांटने में लग रहा था। उसने पिसी हुई दवाई को कप में उड़ेला, और लोठे से कप में कुछ पानी डाला और एक ही घूँट में गटागट गले से नीचे उतार दिया। ढाढी बढ़ी हुई थी, शरीर पर एक बनियान नीचे चड्डी पहने हुए था। कमरे में एक विशेष प्रकार की गंध रही थी। उसने मेरी तरफ देखा, देखते ही उसको कुछ सांत्वना मिली। उसने इशारा से अपनी स्थिति के बारे में बताया, मैं बेबस था। पहली बार मैं अपने छोटे भाई को तिल तिल कर मरते हुए देख रहा था। उसके गले में कैंसर था, वह उस बीमारी से जूझ रहा था।
    दिन में कई मर्तबा दर्द चलता, वह रोता-चिल्लाता, दीवारों से अपना सिर टकराता, मूसल से दवाई घोटता और कप में पानी डालकर गटक लेता। यही उसका नित्यक्रम था। कभी-कभी वह मुझसे जहर लाने की अनुनय प्रार्थना करता, गिड़गिड़ाता। मुझसे उसका दर्द देखा नहीं जाता। मैं उठकर अपने मकान में जाता। वह मुझे कहता-दादा तू बैठ, मेरे दर्द को देख, मैं कितनी वेदना सहता हूं, क्या करूं? वह अपनी पत्नी को बुलाने के लिए बार-बार लकड़ी से पीटता रहता। क्योंकि धीरे-धीरे उसकी आवाज बैठ रही थी। कभी-कभी भगवान की तस्वीर को भी लकड़ी से पीटता। भगवान की तस्वीर फट चुकी थी। वह भगवान से चिरौरी विनती करता हे भगवान! अब तू उठा ले, अब दुःख सहा नहीं जाता पर मौत अभी उससे कोसों दूर थी। एक-एक पल उसके लिए। असह्य था।
    मैं सोचता, अभी कुछ महीनों पहले वह कितना हट्टा-कट्टा नौजवान था। चाय और बीड़ी उसकी लत थी, कभी-कभी जर्दा भी खा लेता था। चाय का तो वह इतना आदि था कि बिना दूध शक्कर के स्वयं चाय बनाकर पी लेता। बीड़ी उसकी कमजोरी थी। एक बुझते ही दूसरी बीड़ी सुलगा लेता। मैं उसको डाटता, उसकी पत्नी उसको समझाती, भाभी उपालंभ देती पर वह किसी की नहीं सुनता था। वाचालता, गाली-गलौज करना, झूठ बोलना, सौंगंध खाना, कडुवा बोलना, गप्पें लड़ाना, यह सब उसकी वाणी के दोष थे। फिर भी जाने क्यों वह मुझे अधिक प्रिय था। भाभी से भी उसकी पटरी नहीं बैठती, अपनी धर्मपत्नी को वह हर कुछ कह देता। मेरी तो भरी जमात में कई बार उसने इज्जत उतार दी, लेकिन सबसे बड़ी उसमें खूबी थी कि वह लड़कर भी माफी मांग लेता। उसका गुस्सा क्षण भर का होता, मेरी गांठ क्षण भर में फूट जाती, वह था ही ऐसा। उसकी भाभी कभी-कभी मुझे उलाहना देती आप मेरी बात को कैसे पकड़ते हैं और अपने भाई की कड़वी-कड़वी बातों को भी ऐसे गटागट पी जाते हैं मानों शक्कर घुली हुई हो। मैं उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं देता। उसकी भाभी भी दिल की साफ थी, अपने देवर की कुछ बातों को पी जाती तो कभी-कभी झाड़ देती। दोनों का एक ही स्वभाव, एक ही उम्र मैं कभी पत्नी को समझाता तो कभी छोटे भाई को। इतना सब कुछ होते हुए भी वह मुझे अच्छा लगता, उसकी फुहड़ हँसी भरी बातें मुझे गुदगुदाती रहती। कभी-कभी तो वह हंसते-हंसाते हमे दोहरा कर देता पेट में बल पड़ने लगते।
    अब उसके कब्ज होने लग गई थी। एसीडिटी की शिकायत थी। भोजन पचता नहीं था। कभी कायम चूर्ण लेता तो कभी एलोपैथी सिरप] वह हमेशा अपने साथ रखता। डाक्टर चाय-पीने के छोड़ने के लिए कहते। पर उससे छूटती नहीं थी। चाय-बीड़ी की तलब हमेशा बनी रहती। एक दिन उसके गले में छाले हो गये। वह छाला मिटने का नाम नहीं ले रहा था। मैंने उसको हास्पिटल में दिखाया। उसने डॉक्टर से पूछा- कैंसर-वैसर तो नहीं है, शायद उसको आभास होने लग गया था। डॉक्टर हल्के में ले रहा था, उसने कुछ नहीं कहा, पांच दिन की दवाई लिख दी। कभी उसके छाले ठीक होते, कभी पुनः उभर जाते। एक के बाद एक दवाई बदलता, कभी हकीम को दिखाता, कभी वैद्य को तो कभी डॉक्टर को। वैसे आयुर्वेद में उसका विश्वास ही कम था।
    डॉक्टर मित्तल आया हुआ था, उसने जांच कराई। दूरबीन में गांठ दिखाई दी। डॉक्टर ने कहा नाइन्टी नाइन परसेन्ट कैंसर की संभावना है, इसकी बायोप्सी होगी। उसने तारीख दे दी। उसको जयपुर ले जाया गया। बायोप्सी के नाम पर जीभ से कुछ टुकड़ा काटा गया, उस समय उसके ऐसी पीड़ा हुई कि उसको बयां नहीं किया जा सकता। वह कभी किसी से नहीं डरता, बड़ी से बड़ी मुश्किल को वह चुटकियों में हल कर देता। हंसना और हंसाना उसका काम था, आज पहली बार मैने उसको निढाल, निराशामय देखा अब तो इस असाध्य बीमारी के जाल में वह दिनों-दिन फंसता जा रहा था। अंग्रेजी के साथ-साथ देशी दवाईयां भी देते, तुलसी-गौमूत्र भी देते। बाबा रामदेव के भी दिखाया पर सभी जगह से निराशा ही हाथ लगी। यह जानलेवा बीमारी उसके हाथ धोकर पीछे पड़ गई थी। अब वही प्रक्रिया प्रारंभ हो गई जो अक्सर कैंसर रोगी के होती है। कीमोथेरेपी, इलेक्ट्रोथेरेपी होने के बाद वह काफी कमजोर हो गया था। उसकी हड्डी-हड़ी दिखाई देने लग गई थी। उसकी भाभी उस पर पूरी संवेदना लुटाती जा रही थी। वह कहने लगती, भगवान यह मौत मुझे दे दे। मैं चुपचाप उसकी असह्य सात्वंना सुनता। वह मुझको हमेशा आगे करती, वह उस पर मर-मिटने के लिए तैयार थी, हां अपने पोते-पोतियों को उससे दूर ही रखती। कैसी ममता और कैसा त्याग।। मैं उसको देखता और सोचता। मैं भी कैंसर से डरने लग गया था। उसके घर वाले भी उससे परहेज करने लग गये थे। माँ भी डरने लग गई थी कि मेरे यह | बीमारी लग गई तो मेरी सेवा कौन करेगा?
     अब डॉक्टर ने उत्तर दे दिया था। घर ले जाओ, सेवा करो, यह रोगी महीने दो महीने का ! मेहमान है। मैं उसके पास जाता, उसे अजीब शांति मिलती, माँ को वह अपने से दूर रखना नहीं चाहता था। पत्नी को लकड़ी-पीट-पीट कर बुलाता रहता। पहले वह चिड़चिड़ाता रहता, गाली निकालता रहता था, अब उसकी जबान भी सूख गई थी, वह सबके हाथ जोड़ता। उसके मेरे बच्चे सहित पूरा परिवार घंटों बैठी रहते। माँ तो अपना गांव छोड़, बेटे के सिरहाने बैठ गई थी। सब बेबस थे, भगवान से उसकी मोक्ष मांग रहे थे, पर अभी मौत कोसों दूर थी।
     आज लड़का शिविर में गया हुआ था, उसे कमरा नहीं मिल रहा था। श्रीमती जी का दिल कसमसा रहा था, उसकी ममता मुझे शिविर में भेजने को आतुर थी ताकि उसको राहत मिल सके। मैं रात्रि गाड़ी से बैठ गया। माँ को मालूम हुआ तो वह श्रीमती जी पर बरस पड़ी। मां ने कहा इसे हास्पीटल ले जाया जा रहा है और तू उसको भेज रही है। उसने मुझे फोन किया, मैं पुन: लौट आया। वह घर पर ही था। मैं धर्म संकट में था सुबह बिना पूछे मुझे शिविर के लिए बस में बैठना पड़ा। भगवान से कहा, हे भगवान! तू ही रक्षा करना। पांच दिन बाद श्रीमती जी का फोन आया, उनकी तबियत सही नहीं हैकुछ भी हो सकता है, आप देख लो। मैंने कहा दो दिन और रूकना पड़ेगा, डोर जगदम्बा के हाथ में है। शिविर में भी घोर संकट ही चल रहा था, मैं धर्म संकट में फंसा था। वहां से कई बार फोन नहीं मिलते थे, मैं घर पर फोन लगा कर नजर रखे हुए था।
    आठवें दिन मातेश्वरी को प्रणाम कर मैं वहां से भागा, मैनें माँ जगदम्बा से विनती की, कि डोर पकड़े रहना, मेरे पहुँचने से पहले डोर मत खींचना। दो सो किमी. का सफर बहुत लम्बा था। मैंने सब बच्चों को तुरंत फोन करके घर बुला लिया था। रात्रि को कस्बे में पहुंचते ही उसके बारे में पूछा, अभी उसके जीवित रहने का समाचार मिला, मन को तसल्ली हुई। 
    प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व ही उसके मकान पर चला गया। मकान पास ही था। अब मैंने सोच लिया था कि एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं होना है। माँ वहां पहले से मौजूद थी। मुझे देखकर वह फूला नहीं समाया, मुरझाये चेहरे पर एक क्षण के लिए चमक की लकीर दिखाई दी। पर वह बोल नहीं सकता था। यमदूत ने उसको अपने जाल में फंसा लिया था। शरीर केवल हड्डियों का ढांचा था, सात दिन से पेट में कुछ नहीं था। पेट चिपक गया था। रात को ही बाहर रहने वाले लड़के भी गये थे। पूरे परिवार को देखकर उसके प्राणों में जान गई। वह कुछ कहना चाहता था, उसने पास रखी कॉपी-पेन की और इशारा किया। मैंने ज्योंही उसको कॉपी थमाई उसने जल्दी-जल्दी अंगुलियों को सम्हालते हुए 'स्नान' लिखा। अब तक उसके इस इशारे को हम नहीं समझ पा रहे थे। उसकी धर्मपत्नी भी भौच्चकी रह गई, जो व्यक्ति रूग्णावस्था में अक्सर नहाने से कतराता था, सहसा स्नान कैसे करना चाहता है? शीघ्र ही कुछ गर्म पानी किया गया। उसने पानी पीने की इच्छा भी जताई। उसे एक गिलास पानी पकड़ाया गया। यह क्या? जिस व्यक्ति से एक बूंद पानी गले से नहीं उतरता था, आज पूरा गिलास गटक गया। उसने प्रसन्न मुद्रा में | इशारे से कहा, अब वह ठीक है, पूरा पानी पेट में चला. गया। अभी उसको स्नान करवाकर कपड़े| पहनाये ही जा रहे थे कि उसके हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे, आंखें ऊपर की ओर चढ़ने लगी। उसके कपड़े बदलने के कारण, मैं अभी कमरे से नीचे उतरा ही था कि मुझे बबलू ने आवाज दी, पापा तुरंत आओ। बच्चे चाचा को घेर कर बैठे थे। उसकी धर्मपत्नी ने पैर के एक तलवे को तथा उसकी भाभी ने दूसरे पैर के तलवे को पकड़कर मालिश प्रारम्भ कर दी। देखते ही देखते पुनः उसकी स्थिति कुछ सामान्य हो गई। उसके ससुराल भी फोन कर दिया गया था। उसने धर्मपत्नी के हाथ को कसकर पकड़ लिया मानो उसे बहुत बड़ा संबल मिल रहा हो। उसे आभास हो गया था कि अब वह मृत्यु के चंगुल से नहीं बच सकेगा। इस बीच उसे तुलसी दल और गंगाजल का पान कराया गया। गीता तो उसे सप्ताह में कई बार सुना चुके थे। बारह बजे तक उसके ससुराल वाले भी आ गये थे। ज्योंही उसने अपने ससुराल के पूरे परिवार को देखा, उसका वही दौरा फिर आया। आंखे ऊपर चढ़ने लगी, शरीर पूरी तरह अकड़ गया। उसकी श्वास लम्बी-लम्बी चलने लगी। देखते ही देखते उसने एक लम्बी श्वास ली। उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।