गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कोरोना का कहर



     एक छोटे से कोरोना वायरस ने दुनियाँ को किस कदर नचा दिया। बड़े-बडे राष्ट्र अपनी अकड़ में किसी को कुछ समझ नहीं पा रहे थे। सबके मन में सुपर पावर बनने की होड़ लगी थी। कोई चंद्रमा पर धरती तलाश रहा था, कोई मंगल पर अपना झंडा गाड़ रहा था। सबके एक ही सपने थे कि हमारा वर्चस्व अधिक रहे। इसके पहल के आगे एक राष्ट्र, दूसरे राष्ट्र को घुटने टिकाने पर आमादा था। कोई परमाणु परीक्षण कर रहा था तो कोई मिशाइल परीक्षण, कोई रासायनिक हथियार तलाश रहा था तो कोई जैविक हथियार, किसी को यह अहसास ही नहीं था कि इन हथियारों का जखीरा हमारे अपने लिए कितने विध्वंस का कारण बन सकता है? महामारी कहकर नहीं आती, उसके बीज तो हमने स्वयं ही बो दिये थे।  
महत्वाकांक्षा
गाँव के नवयुवा अपनी धरती को छोड़कर, अपने माता-पिता को छोड़कर, अपने पैतृक धंधों को छोड़कर, बड़े-बड़े महानगरों में रोजगार के लिए पलायन कर रहे थे, उनकी महत्वाकाँक्षा परिवार पर भारी पड़ रही थी। गाँव की महिलाएँ भी अपने ससुराल के परिवार से विलग होने के लिए अपने पतियों में मंत्र फूँक रही थी। उनके माता-पिता भी तो यही चाहते ही थे कि उन्होंने अपनी लड़कियों का कन्यादान केवल अपने जँवाइयों के लिए किया है, परिवार से उनका क्या लेना-देना? सास-ससुर, ननदें, देवरानी, जेठानियों की बकझक क्यों? और अंतगत्वा गाँवों की ये सारी की सारी भीड़ नगरों-महानगरों में जमा हो गई। नवयुवकों की महत्वाकाँक्षा ने उनको अपने देश की सीमा में में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों की सीमा में लाँघने को मजबूर कर दिया। उनके दिमाग में कहीं नहीं आया कि हमारा भी अपने माता-पिता के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति भी कुछ कर्तव्य हैं। बड़े-बड़े उद्योगपतियों के पैसों के भारी पैकेजों के मोह ने उसे कहीं का न छोड़ा, कुछ वहीं के होकर रह गये, तो कुछ ने वही विदेशी मेमों से शादी कर ली। अंतोगत्वा मातृभूमि के प्रति उनकी यादें भी धुँधली हो गई।  माता-पिता संतान के होते हुए भी निसंतान हो गये। उनका भी मोह भंग हो गया। उन्होंने अपने को 'हरि इच्छा समझ कर अपने को अपने आप में समेट लिया। 
प्रकृति की मार
और जब प्रकृति की मार पड़ी, एक छोटे से वायरस का कहर टूटा तो शहर के शहर खाली होने लगे। लॉकडाउन में, आवागमन का साधन न होते हुए भी हजारों की भीड़ अपने सिर पर गठरी का बोझ लिए अपनी पत्नी एवं छोटे-छोटे बच्चों सहित अपने पैरों से ही सड़के नापने लगे। उनको यह अहसास ही नहीं रहा कि मौत का तांडव हमारे चारों ओर पसरा है, हम सब भी मौत के दूत बनकर मौत बाँट रहे हैं। उनको कोरोना से भी बढ़कर भूख की मौत सता रही थी। सबका एक ही लक्ष्य था कि किसी प्रकार अपने गाँव पहुँच जाये। मरना ही है तो अपने गाँवों में मरे। कोई अग्रि को चिता तो देने वाले होंगे। दुर्भाग्य की बात, कई गाँवों में तो उनके पट ही बंद हो गये। जब गाँवों में माताजी, भैरूजी, बालाजी और बड़े-बड़े तीर्थस्थलों के ही पट बंद हो गये तो उनकी क्या बिसात? यह तो वही हो गया 'आसमान से गिरा, खजूर में अटका।   
महानगरों में यह पूछने वाला भी नहीं है कि तुम्हारे कितने दाँत है अर्थात् तुमने भोजन किया या नहीं? वहाँ तो सबके पट हर वक्त बंद ही रहते हैं। ऊपर से सत्कार करने के लिए भौंकते हुए कुत्ते मिलेंगे और दीवारों पर ये श्लोगन भी लिखे हुए मिल जायेंगे कि 'कुतों सावधान। पैसे कमाने की इतनी मारामारी कि सुबह से शाम तक एक क्षण परिवार से बात करने की फुर्सत नहीं, जो महानगरों के मूल वाशिंदे हैं, उनको अपने माता-पिता से बात किये ही महीनों बीत जाते हैं। उनकी गृहणियों भी नहीं चाहती कि उनके पति अपने माता-पिता के भक्त बने। और जरा सी कभी उनके पति अपने माता-पिता से बात करले तो उनकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो जाती है। पर इस कोरोना की महामारी ने तो सबको एक दीवारी के भीतर समेट दिया है। सबकी अक्ल ठिकाने लग गई।  
दानदताओं की फेरहस्त बहुत लंबी है, कोई लाख तो कोई करोड़, कोई सौ करोड़ तो कोई दो सो करोड़, दान देना बुरी बात नहीं है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतना पैसा आया कहाँ से? एक-एक जज को दो-दो लाख, एक-एक पति-पत्नी को एक-एक लाख मासिक वेतन। और कहीं गाँव का नवयुवा दस हजार मासिक की पगार का भी तरस जाता है। वाह रे न्याय तंत्र? वाह रे लोकतंत्र?  नोटबंदी में भी जो नोट नहीं निकले वे, इस आफतकाल में निकल रहे हैं। सबके कुछ-कुछ समझ में तो आ ही रहा है कि ये चमचमाती कारें, ये जगमगाते महल, ये स्वर्णाभूषित जेवरात किस लिए? क्या इससे किसी का पेट भर सकता है? 
धरती माँ
यदि असल में मनुष्य का पोषण है तो धरती माँ से, वहीं अन्न के रूप में, सब्जी के रूप में, फलों के रूप में और तो और जीव जंतुओं के पोषण के लिए भी वही उत्तरदायी है और वह बड़ी जिम्मेदारी से अपना फर्ज सदियों से अदा करती आई है, पर हमने उसके लिए क्या किया? हमने तो रासायनिक खादों एवं विभिन्न कीटनाशकों के रूप में उसकी कोंख में ही जहर घोल दिया। फैक्टरियों के जहरीले तरल पदार्थ ने गंगा-यमुना को प्रदुषित कर दिया। और इन कारखानों के काले धुँआ ने हवा में ही जहर घोल दिया। अब आप ही सोचो, हम इन वायरस से कैसे बच सकते हैं? यह वायरस हमारी महत्वाकाँक्षा का ही प्रतिफल है।
                                                            
  और यदि धरती का पोषण होता है तो इन्हीं जीव जंतुओं के मल-मूत्र से। हम तो उपभोक्ता है। जीव जंतु और पेड़-पौधों से हमं हर प्रकार से पोषित हो रहे हैं और तो और शुद्ध रूप से ऑक्सीजन भी हमें हमारे पर्यावरण से ही मिलती है। मैं यह नहीं कहता कि इसका दोहन नहीं होना चाहिए। दोहन होने से ही इसकी आपूर्ति बढ़ती रहेगी। पर यदि हम इनकी जड़ों को ही काटने लग जायेंगे तो हमारा पतन निश्चित है। आज हमारे गोवत्स बेरोजगार होकर कत्लेआम हो रहे हैं, किसी का ध्यान जाता क्यों नहीं है। सुबह उठते ही चाय-दूध के लिए तो सब तैयार हो जाते हैं, पर हमने इनके लिए क्या किया? आज तो मनुष्य इतना दुराचारी हो गया है कि वह इनके मांस भक्षण से भी परहेज नहीं करता, जरदा-तंबाकू, शराब जैसे व्यसनों की हर गाँव गली में इनकी दुकानें आसानी से मिल जायेगी। सोचो, यह वायरस आया कहाँ से? अभी रिसर्च बाकी है, पर यह सब हमारे अपने ही कर्मफल का नतीजा है। हमारे दुराचरण का प्रतिफल है।
महामारी से निजात
खैर अभी इस महामारी से निजात पाना पहली आवश्यकता है। हमें सरकारों की अपील पर ध्यान देते हुए, घर के बाहर लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघकर इस दुश्चक्र को तोडऩा है। हर हाल में सामाजिक दूरी बनाये रखनी है और जो कर्मी हमारा सहयोग कर रहे हैं, उनका हमें पूरा-पूरा सहयोग करना है। हम है तो जहान है। 

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