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बुधवार, 8 जून 2022

सरकार की शह पर शराब का कारोबार


माननीय मुख्यमंत्रीजी(राजस्थान सरकार), 

                                 सादर नमन।

विषय-राजस्थान में शराब बंदी के क्रम में-

हमने इससे पूर्व भी कई बार आपको एवं इससे पूर्व माननीय मुख्यमंत्री वसुन्धराजी को  भी हमारे संपादकीय के माध्यम से समय-समय पर आगाह करते आ रहे हैं कि शराब ऐसा मादक पदार्थ है कि जिससे बनी बनाई गृहस्थी उजड़ती जा रही है। इसकी सबसे ज्यादा मार गृहणियों को ही भुगतनी पड़  रही है। घर में अशांति छा जाती है। शराबी व्यक्ति आये दिन घर में कोहराम मचाता रहता है। पति के मानसिक असंतुलन के साथ-साथ उनके स्वयं का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसे शराबी व्यक्ति को ना किराये से मकान मिल सकता है, और ना ही नौकरी। उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। एकल परिवार पर इसकी मार बड़ी घातक होती है। वहाँ उन्हें कोई समझाने-बुझाने वाला भी नहीं होता है। या तो पत्नी को फाँसी के फंदे पर झूलना पड़ता है या पति को या पूरे परिवार को। क्योंकि आजीविका के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। कभी-कभी तो शराबी व्यक्ति अपने इस व्यसन के कारण कितना ही कर्ज सिर पर चढ़ा लेता है। ये केवल नैतिकता का ही विषय नहीं है, बल्कि महिला बाल-कल्याण से संबधित विषय भी है। 

आज तो इस नशे के रोग ने उच्च जाति के वर्गों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। वे अपनी इज्जत बचाने के चक्कर में पुलिस के पास भी नहीं जा सकते, क्योंकि दूसरे ही दिन सरे आम समाचार पत्रों में अपने परिवार की इज्जत नीलाम हो जाती है। वे बेचारी आखिर फरियाद करे भी तो किससे करे? पुलिस वालों के भी हाथ बंधे हुए हैं। वे एक तरफ नशा मुक्ति अभियान चलाते हैं, दूसरी तरफ सरकारें शराब की दुकानों के लाटरी के नाम से आवंटन पर एक-एक शराब केन्द्रों से 1-1 करोड़ के लगभग अवैध धन इकट्ठा कर रही है। चाहे किसी का घर बार्बाद हो जाये, चाहे शराब के कारण कोई रोड़ एक्सीडेन्ट में मर जाये, सरकारें चुप्पी साधे हुए हैं। आपकी ही सरकार में ऐसे-ऐसे मंत्री हैं, जो शराब की वकालात करते देखे जाते रहे हैं। फिर जनता के प्रति आपकी संवेदना कैसी? ये वे ही मंत्री हो सकते हैं, जो स्वयं शराब के आदी हों, अन्यथा ऐसे वक्तव्य एक जनप्रतिनिधि के मुख से निकलना अस्वाभाविक हैं या हो सकता है कि वे आपको शराब के मामले में मतिभ्रम कर रहे हो। आपके पास बड़े-बड़े राजनायिक, बड़े-बड़े अफसर, एवं कई स्वयं सेवी संस्थाएँ हैं, जिनके माध्यम से भी आप जानकारी ले सकते हैं कि क्या शराब वाकई सही है? हम केवल यह पूछना चाह रहे हैं कि कोई भी माता-पिता अपने बच्चे को शराब पीने की प्रेरणा दे सकता है? या अन्य कोई मादक पदार्थ बच्चें के खाने-पीने से माता-पिता खुश हो सकते हैं? यदि नहीं तो फिर आप जैसे मुख्यमंत्री(राजा) पद पर विराजमान होकर जनता में अपनी छवि क्यों खराब कर रहे हैं? इससे अच्छा तो आपके समय में कोरोना काल ही था, तब चारों ओर पुलिस का पुख्ता बंदोबस्त था। नशे के कारोबार पर एकदम जाम लग गया था। कोई अपराधी इधर से उधर नहीं जा सकता था। शराब को तो छोडिय़े, बीड़ी-सिगरेट, जरदा तंबाकू गुटका तक मिलना बंद हो चुका था। यदि कोई चोरी-छिपे लाकर मंहगे दाम पर भी बेचता हुआ दिखाई देता तो उस पर छापा पडऩा निश्चित था। हम यह नहीं कहते कि पुन: कोरोना काल की स्थिति बने, परंतु इस नशे के कारेबार पर अंकुश लगाना लाजिमी है।  

ऐसा भी नहीं कि अन्य राज्यों में प्रतिबंध नहीं लगा हो। स्वयं प्रधानमंत्री मोदीजी के गृहराज्य गुजरात में सर्वप्रथम प्रतिबंध लगा है, इसके साथ ही नागालैंड, मिजोरम एवं बिहार जैसे राज्यों में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है। महाराष्ट्र के वर्धा जिले में महात्मा गाँधी की कर्म भूमि होने के कारण बहुत समय से शराब प्रतिबंधित है। हाल ही बिहार में नितीश सरकार ने कहा है कि कोई भी परिजन शराबी व्यक्ति की सूचना मुहैया करावे, हम उससे जाँच-पड़ताल कर जहाँ से शराब की बिक्री हो रही है, वहाँ छापे मारकर उस गिरोह का पर्दापाश करेंगे। ऐसा भी नहीं है कि जिन राज्यों में शराब पर प्रतिबंध लगा हुआ है, उस राज्य की स्थिति आर्थिक रूप से डाँवाडोल हो रही हो। हम यह भी नहीं कह सकते कि वहाँ शराब की तस्करी न हो रही हो, पर कम से कम वहाँ परिजन उस शराबी व्यक्ति के बारे में शिकायत दर्ज करवा तो सकता है, क्योंकि वहाँ के कानून में शराब प्रतिबंधित हैं। पर राजस्थान में परिजन कहे तो किससे कहे, यहाँ तक सरकारें स्वयं ही शराब के प्रचलन से पैसा कमा रही है। धिक्कार है ऐसे अवैध कमाई पर।   

एक तरफ आप 'मुख्यमंत्री निशुल्क दवाइयाँ उपलब्ध करा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राजस्थान में शराब का प्रचार-प्रसार हो रहा है। आये दिन समाचार पत्रों में देखने को मिलता है कि शराब से राज्य को कितना राजस्व प्राप्त हुआ। यह तो स्पष्टत: जनता की हत्या है। जनता भले ही मरे, अपना क्या? आज स्थिति यह है कि एक-एक शराब की दुकानें पाँच-पाँच दुकानों के माध्यम से शराब की बिक्री कर रही है और वे बेचारे करे भी तो क्या करे? उन्होंने करोड़ों रुपये देकर दुकानों के ठेके छुड़ाये हैं। उन्हें अपनी रकम वसूलने के साथ कुछ कमाई भी अर्जित करनी है। आज शराब के कारण किसी की किडनी फेल हो रही है तो किसी का लीवर डेमेज हो रहा है, कोई पागलपन का शिकार हो रहा है तो किसी की पत्नी भग रही है। क्या आप भी ऐसा ही चाहते हैं?

एक जमाना था, जब गाँवों-कस्बे में शराब की इनी-गिनी ही दुकाने थी, वे भी मुहल्ले से दूर किसी ओट में, जहाँ सभ्य व्यक्ति तो जाने की हिमाकत ही नहीं कर पाता था। आज हर राजमार्ग पर, मुहल्ले के बीचों-बीच, विद्यालयों के समीप खुले में शराब बिक रही है, कोई प्रतिबंध नहीं है। उस रास्ते पर चलना औरतों के लिए दुश्वार हो गया है। छोटे-छोटे बच्चों के कोमल दिल पर ऐसी कुप्रथा की छाप छूटती जा रही है। ऐसा भी देखा गया है कि अक्सर चुनावों के समय इसकी बहुत बड़ी खेप रेवडिय़ों की भाँति वितरण की जाती रही है। यद्यपि चुनाव अधिकारियों की सतर्कता से कई बार ये गिरोह पकड़े भी जाते रहे हैं।     

आपसे गुजारिश है कि अन्य राज्यों की भाँति राजस्थान में भी शराब पर पूर्ण पाबंदी लगाई जानी चाहिए, जिससे आने वाली पीढ़ी की ऊर्जा को हम सही रास्ते पर लगा सकें। नशा कैसा ही हो, सभी मादक पदार्थ-जैसे भांग, गांजा, बीड़ी-सिगरेट, तंबाकू, गुटकें आदि ऐसे जानलेवा पदार्थ है, जिससे व्यक्ति अपना संतुलन खो देता है तथा यह कैंसर जैसी असाध्य बीमारियों की चपेट में आ जाता है। यदि समय रहते हम इन व्यसनों पर पाबंदी नहीं लगा सकते तो केवल पछताने के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा। आपके प्रति जनता का विश्वास कम होता जा रहा है, क्योंकि जनता के प्रति आपकी जवाबदेयी अधिक है। ऐसे मंत्री जो ऐसे व्यसनों के प्रति ज्यादा वकालात करते हैं, उन्हें तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए। अभी हाल ही में पंजाब के मुख्यमंत्री ने मात्र एक प्रतिशत कमीशन खाने पर एक मंत्री को बर्खास्त कर जनता के प्रति 'आप' पार्टी लोकप्रियता में चार चांद लगा दिये थे। आप तो स्वयं एक जानेमाने राजनैतिक जादूगर रहे हैं, फिर इस काम में देरी क्यों? मैं तो यह कहूंगा कि नशे पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर आबकारी विभाग को ही किसी अन्य विभाग में मर्ज कर दिया जाये, ताकि न रहे बाँस और न बजे बाँसुरी। ऐसी अवैध कमाई कल्याणकारी राज्यों के लिए उचित भी नहीं है।   

हमें आशा है, आप जनता का मर्ज समझेंगे और शीघ्रतिशीघ्र शराब बंदी पर राज्य में एक कानून पास करवायेंगे, जिससे प्रेरणा पाकर अन्य राज्य भी आपका अनुकरण कर सकें और राजस्थान का नाम महिमा मंडित हो, साथ ही नीचे के पायदान पर खड़ी कांग्रेस की लोकप्रियता में कुछ अभिवृद्धि हो। हम मानते हैं कि आपकी वृद्ध व्यक्तियों के प्रति संवेदना रही है। माता-पिताओं के प्रति भी आपका दृष्टिकोण उदारवादी दिखता रहा है, पर शराब के कारण उन्हीं माता-पिताओं के सपने चकनाचूर हो रहे हैं, जिस पर आपका ध्यान अभी तक शायद नहीं पहुँच पा रहा है। यह मासिक पत्रिका आपके विभाग में भी पत्रिका के प्रारंभ से ही पहुँच रही है। हो सकता है आपको पढऩे का समय मिलता हो या नहीं, लेकिन ऐसे समाचार जो राज्यों एवं मुख्यमंत्री से संबंधित हो, आपके अफसरों द्वारा ध्यान में लाये जाने चाहिए। साथ ही प्रत्युत्तर में आपके द्वारा उन समाचार पत्रों को कुछ टिप्पणी भी भेजी जानी चाहिए, जिससे संवाद कायम हो सकें एवं पत्र-पत्रिकाओं का मनोबल बढ़ सकें। हो सकता है, शराब बंदी के उन्मूलन में कैसी भी बाधा हो, पर दृढ़ निश्चय के बल पर उस पर विजय पाई जा सकती है।   

अपनी प्रतिक्रया अवश्य लिखें  व  दूसरों को भी शेयर करें।                          आपका अपना

                                                                                                        महावीर  प्रसाद  शर्मा   

(जून, 2022  के सम्पादकीय से)  

       


गुरुवार, 15 जुलाई 2021

वार्तालाप


     

    जगनाथपुरी में समुद्र को हिलोरों में खूब गोते लगाकर, मैं अपनी बगड़िया धर्मशाला में लौट गया। यह राजस्थान की एकमात्र धर्मशाला थी। अधिकतर राजस्थानी ही इस धर्मशाला में रुकते थे। उत्तमचंद छड़ी वाला पुजारी अपने जजमानों को इसी धर्मशाला से ढूंढ-ढूंढ कर ले जाता था। मेरे वापसी को गाड़ी रात 9 बजे थी अभी 3-4 घंटे का समय था। धर्मशाला के बीचों-बीच एक मात्र था। वहाँ काफी देर देर से तकरीबन 20 वर्ष की एक लड़की गुमसुम बैठी हुई थी, शायद वह यहाँ के पुजारी की बेटी होगी। मैंने सोचा चलो, इससे बात ही की जाये, तब तक  समय भी कट  जायेगा। 

        मैंने पूछा-क्या तुम इसी मंदिर में रहती हो? 

        उसने कहा-नहीं, हम तो यहाँ घूमने आये हैं। 

       मैंने पूछा- तुम कहाँ से आई हो? 

        उसने कहा-मुरादाबाद(यू.पी.) से। 

    उसने पूछा- आप भी यहाँ घूमने आये हैं। 

    मैंने कहा-हाँ,  हम राजस्थान से आये हैं।

    मैंने पूछा - तुम्हारी जाति? 

    उसने कहा-हम धोबी है। 

    उसने पूछ-आप? 

    मैंने कहा-हम ब्राह्मण है, (पुत्र की ओर इशारा करते हुए  मेरे साथ एक भैया भी है।

    मैंने पूछा- तुम्हारे साथ और भी हैं? 

    उसने कहा-हम सात-आठ जने साथ हैं। 

    मैंने पूछ-तुम्हारे माता-पिता भी साथ हैं ?

    उसने कहा-पिताजी को गुजरे सात-आठ वर्ष हो गये और मुरादाबाद में ही है।

    (मेरी रूचि बढ़ रही थी, आखिर यह इतनी दूर किसके साथ आई है) 

    मैंने पूछा-यहाँ तुम्हारे परिवार के कौन-कौन साथ हैं?

    उसने कहा-मैं मेरी दीदी के साथ आयी हूँ। मेरी दीदी के स्टॉफ वाले भी हमारे साथ हैं।

    मैंने पूछा-क्या तुम्हारी दीदी कोई नौकरी करती है? 

    उसने कहा-हाँ, वह मेरे पिताजी की जगह हो लगी है। 

    मैंने पूछा-क्या तुम्हारे भाई नहीं हैं? 

    उसने कहा-नहीं, हम दो बहिनें ही हैं। 

    मैंने पूछा-पिताजी को क्या तकलीफ थी? 

    उसने कहा- उन्हें कैंसर था। (मैं बुदबुदा रहा था-राम, राम, राम भगवान बचाये कैंसर से)

    मैंने पूछा-वे किस डिपार्टमेंट में थे? 

    उसने कहा-वे पुलिस में थे।

    मैने कहा-इस डिपार्टमेंट में माँ को लगना चाहिए था।

    उसने कहा-क्या करे, माँ कम पढ़ी-लिखी थी, चपरासी बनती। दीदी उस समय कॉलेज में पढ़ रही थी कॉन्सटेबल बन गई। 

    मैंने पूछा-दीदी की  उम्र? 

    उसने कहा-लगभग 30-32 वर्ष। 

    मैंने पूछा-दीदी की शादी हो गई?

    उसने कहा-वह शादो कैसे कर सकती है? पिताजी की जगह लगी है। हमारे घर का खर्चा वही उठाती है। माँ कहती है कि तेरी शादी भी वही करायेगी। (मेरे दिल में शूल चुभी, कैसे हैं ये लोग, अपनी सुकोमल पुत्रियों का समय पर विवाह तक नहीं करवा सके।)

    मैंने कहा-तुम्हें तरस नहीं आता कि दीदी का भी परिवार होना चाहिए। आज उसके बच्चे होते तुम्हें मौसी व तुम्हारी माताजी को नानी कहकर पुकारते। तुम्हारी दीदी का भी मन लगा रहता।

    मैंने पूछा-तुम्हारी उम्र? 

    उसने कहा-छब्बीस वर्ष।

    फिर देर किस बात की। विवाह तो 18-20 वर्ष में ही हो जाना चाहिए। मैं तो सोच रहा था कि शायद तुम 18-20 वर्ष की होगी। (वह मौन हो गई, मानो दीदी की तकलीफ उसके दिल को छू गई।)

    होना तो यह चाहिए था कि माँ सर्विस करती, बच्चियों का समय पर हाथ पीला करती। उनका परिवार होता। उसके भी पुत्र के समान जंवाईराज खड़े हो जाते।

    चिन्तन-आज स्थिति ऐसी है कि अपने पुत्रों के छोटे होने के कारण अपने पति की मृत्युपरांत पति की जगह पली को सर्विस करनी पड़ती है और जब उनके पुत्र बड़े हो जाते हैं तो माँ को कमा-कमा कर उन बालिग पुत्रों का भरण-पोषण करना पड़ता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पुत्रों के बालिग होने पर माँ यदि चाहे तो परिवार में से किसी एक पुत्र को उसकी जगह पुनः नौकरी लगा ली जाये तो माँ भी राहत की सांस ले सके तथा उस पुत्र को नौकरी लगने के कारण उसको समय पर शादी हो सके और वह अपना परिवार चला सकें।

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शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

त्रिफला एक रामबाण औषधि (स्वास्थ्यपरक अनुभूत)

 


    बढ़ती हुई उम्र के साथ मनुष्य पर कई व्याधियां आ सकती है। व्यक्ति सोचता है किसको दिखाएं, किससे इलाज करायें। वह सीधे डॉक्टर के पास ही जाता है, क्योंकि उसके सन्निकट ही ये औषधालय अटे पटे हैं, जबकि एलोपैथिक दवाओं के लेने से कई साईड इफेक्ट हो जाते हैं। व्यक्ति को भूल कर भी अंग्रेजी दवा का सेवन नहीं करना चाहिए। ये दवाएं मनुष्य की रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति को नष्ट करते हैं। परहेज साधने के डर से वह आयुर्वेदिक दवाओं को ग्रहण नहीं कर पाता। जबकि परहेज बिगड़ जाने से दवाएं फायदा नहीं करें पर नुकसान कत्तई नहीं करती। ऐसी स्थिति में उस दिन की दवा नहीं लेकर दूसरे दिन से प्रारम्भ कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में हम आपकों ऐसी दवा बताते हैं, जिससे न किसी प्रकार का खतरा और न किसी प्रकार की झंझट। यह औषधि ही नहीं, एक प्रकार का रसायन है, जो आपको हमेशा तंदुरूस्त रखती है, वह है त्रिफला । मैंने स्वयं ने इसका कई वर्षों से लगातार प्रयोग किया है। आप भी प्रयोग करके देखिये।

    त्रिफला के मुख्य अवयव हरड, बहड, आंवला, इसको बाजार से लाकर क्रमशः 1-2-4 के अनुपात में मिलाकर कूट, पीस कपडे से छान कर भी बनाया जा सकता है या सीधे आयुर्वेदिक स्टोर से डाबर, वैधनाथ, कृष्णगोपाल, झंडू आदि कोई से भी ब्रांड का खरीद सकते हैं।

    त्रिफला लेने की विधि:- रात्रि को सोने से पहले 1/4 से 1 छोटी चम्मच (लगभग 5 ग्राम) ठंडे पानी के साथ पीकर सो जाना चाहिए। किसी प्रकार का परहेज नहीं है। यदि दूध पी रखे हो तो आधा घंटा बाद त्रिफला लेवे। कभी त्रिफला न भी ले तो कोई दिक्कत नहीं है। हमेशा लेने पर किसी प्रकार की कोई हानि नहीं है। सर्वप्रथम 1/4 छोटी चम्मच से ही प्रारम्भ करें। अधिक लेने पर कुछ दस्त भी हो सकते हैं, घबराये नहीं। अधिक कब्ज रहने पर त्रिफला गर्म पानी से भी ले सकते हैं।

लाभ-1. व्यक्ति को निद्रा भरपूर गहरी आयेगी।

2. प्रातःकाल पैसाब खुलकर आयेगा। शरीर में किसी भी प्रकार की सूजन समाप्त होगी।

3. हमेशा लेते रहने पर आँखों की ज्योति में अभिवृद्धि होगी।

4. सिर दर्द से हमेशा-हमेशा के लिए निजात मिल जायेगी।

5. पाचन संस्थान तंदुरूस्थ रहेगा। यदि कब्ज है तो मिटेगी या दस्त है तो मल बंध कर आयेगा।

6. किसी भी प्रकार के पेट दर्द में शीघ्रातिशीघ्र आराम मिलेगा।

7. पेट साफ रहने के कारण चर्म रोग में भी लाभकारी है। फोड़े-फुन्सी नहीं होंगे।

8. बुढ़ापा जल्दी निकट नहीं फटकेगा।

9. विटामिन सी भरपूर मिलने के कारण दांत-मसूड़े मजबूत रहेंगे।

10. पेट नरम होने से शरीर में लोच रहेगा।

11. त्रिफला के साथ-साथ कुछ व्यायाम करने से पेट की अनावश्यक मेदा हटेगी।

12. सर्दियोंके दिनों में यह टॉनिक की तरह काम करने से शक्तिवर्धक है, भूख बढ़ेगी।

13. वायु विकार, गैस, बदहजमी, हाथपैरों के बायटों में भी लाभ मिलेगा।

14. त्रिफला को रात में मिट्टी के सकोरे में पानी में गला कर प्रातः काल छानकर आखें धोने से आंखें स्वच्छ होती       है, बचे हुए जल से सिर के बाल धोने पर बाल मजबूत, घने व काले होते हैं।

15. गर्मियों के दिनों में गर्मी से होने वाली दाह, लू, पैरों में जलन आदि में फायदा होगा।

16. सभी प्रकार के गले के रोग समाप्त होंगे।

17. मधुमेह की बीमारी से निजात मिलेगी।

    इस प्रकार त्रिफला अमृत तुल्य है, जो मनुष्य को निरोग रखती है। इसे आजमाये, यद्यपि यह हर व्यक्ति के लिए साध्य है, फिर भी किसी व्यक्ति को किसी प्रकार की परेशानी हो तो वह छोड़ सकते हैं। जहां तक मैं समझता हूं, कम मात्रा पर किसी को कोई परेशानी नहीं आ सकती और वह डॉक्टर, वैद्यों से बचा रहेगा।

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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

बधाई पत्र (नरेन्द्र मोदी के नाम)

 


(यह पत्र दाधीच सुबोधिनी के जून, 2014 के सम्पादकीय से लिया गया है। आरोह-अवरोह  का क्रम सतत जारी रहता है, मंथन आपको करना है कि हम कितने कामयाब हुए है।)

    आदरणीय नरेन्द्र मोदी जी!  

    नमो नमः। आपकी कामयाबी एवं जज्बे को बहुत-बहत सलाम। देश की जनता की ओर से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं। आपने भारतीय संस्कृति की ऐसी मिशाल रखी कि जनता कायल हो गई। साधारण जीवन जीने वाले माँ के दुलारे मोदी को माँ का अपूर्व आशीर्वाद मिला। जहाँ-जहाँ आप गये, भारत माता का आंचल विस्तारित होता गया। आपकी अथक मेहनत, निर्भीकता, जनता का आपके प्रति करिश्माई विश्वास, आपकी सेवा भावना ने बीजेपी को ऐसी ऐतिहासिक जीत दिलवाई, जिसका सपना स्वयं आप और बीजेपी ने भी नहीं सोचा था। कभी मोदी बनाम बीजेपी तो कभी बीजेपी बनाम मोदी एक दिखाई देने लगे। आपने जनता को आश्वस्त कर दिया था कि आपका दिया हुआ प्रत्येक वोट सीधा मझे ही प्राप्त होगा। आपने कांग्रेस को 60 वर्ष दिये हैं, मझे केवल 60 माह ही दीजिये, मैं आपका सेवक बनकर आपकी सेवा करूंगा। जनता ने पूर्ण विश्वास किया और आखिर लोकतंत्र ने करवट बदली। लोकतंत्र ही विजयी हुआ। नमो का नमो-नमो मंत्र सिर चढ कर बोला। चाय बेचने वाले एक साधारण व्यक्ति को देश की जनता ने भारत का सरताज बना दिया। आपको भी जहाँ बोलना था खुलकर बोले। कश्मीर में धारा 370 के नफे-नुकसान पर एक बार कश्मीरियों को सोचने पर विवश कर दिया। यद्यपि कुछ पार्टियां आपको सांप्रदायिक बताती रही लेकिन देश के सभी जाति-धर्म के लोगों ने आपका खलकर समर्थन करते हुए एक छत्र पाटी के रूप में सिरमौर बना दिया तथा जहाँ जिस बिन्दु पर नहीं बोलना था, वहाँ आप चुप रहे। अपने ही बिरादरी के नेताओं के उपेक्षा भाव को आपने अपनी सादगी और सदाचार से अपने पक्ष में बोलने को मजबूर कर दिया। कांग्रेस में कोई कद्दावर नेता नहीं होने से कई राज्यों में तो पत्ता ही साफ हो गया। चुनाव से पहले चारों खाने चित्त हई मुख्य विपक्षी पार्टी दहाई के अंकों में ही सिमट कर रह गई। देखा जाये तो कांग्रेस के प्रति जनता की असंतुष्टि ही आपकी विजय माला बनी। बसपा का आरक्षण कार्ड भी बसपा को नहीं बचा सका और अंत में उसी को ले डूबा। अब भी हमें एक बार आरक्षण पर भी नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन सपा भी आपकी लहर को रोक नहीं सकी। संघ, विहिप, बाबा रामदेव सबने आपको जिताने की पहले ही कमान संभाल ली थी।

    किसान, बेरोजगार युवा, व्यापारी, सबको आप मसीहा के रूप में दिखाई देने लगे। देश की संत्रस्त जनता को गुजरात मॉडल दिखाकर आपने नई जान फूंक दी। आपमें वह मौलिकता तो है ही, जिसकी जनता कायल है। संसद की पहली सीढ़ी पर सिर नवाकर, सभी पडौसी देशों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाकर आपके प्रति जनता का विश्वास और गहरा हो गया। अब आपको जनता की आकांक्षाओ पर खरा उतरना है, हमें विश्वास है कि आपकी निश्छल सेवा पारायणता से आप हर मोर्चे पर कामयाब होंगे।

    पहला मोर्चा-बेरोजगारी-यह ऐसा मोर्चा है, जहां कल का भविष्य खड़ा है। युवाओं के माता-पिता संत्रस्त हैं, उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई से अपने पुत्रों को पढ़ा लिखाकर विभिन्न क्षेत्रों में ट्रेनिंग तक करवा दी है, लेकिन फिर भी उनको काम नहीं मिल पा रहा है। ऐसी स्थितियों में उन ट्रेनिंग सेन्टरों का क्या औचित्य रह जाता है? प्राईवेट सैक्टर में न स्थाई रूप से काम की गारन्टी है और न ही सरकार के बराबर पैसा मिलता है। और तो और जातिगत आरक्षण ने योगयता के सारे मापदंडों के परखच्चे उड़ा दिये हैं। सर्वप्रथम हमें इस मोर्चे पर सफलता हासिल करनी है। बिना भेदभाव हर जाति के युवाओं को हर हाल में काम मिलना ही चाहिए ताकि उनकी भी गृहस्थी बन सकें। आज तो स्थिति यह है कि यदि किसी लड़की को सरकारी नौकरी मिल गई तो उसको सरकारी नौकरी प्राप्त वर ढूंढने के लिए पसीने छूटने लगते हैं और वह लड़की अनब्याही रहने पर लाचार हो जाती है या कभी सामाजिक मर्यादा के बंधनों को ठुकरा देती है या कभी सरकारी नौकरी शुदा वर मिल भी जाये तो उस वर को हासिल करने के लिए वधु पक्ष को वर पक्ष की हर मनोवांछित कामना पूरी करनी पड़ती है। दोनों ही स्थितियों में युवतियों के परिजनों को घोर दुःख उठाना पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि लडकियों को रोजगार के दंगल में धकेला जाये। उनके लिए तो वैसे ही गृहस्थी में इतना काम है कि उसमें पुरुष को पौरूष भी हिम्मत हार जाता है। और यह भी आवश्यक नहीं कि युवकों को 20-25 हजार ही मिले, लेकिन उनको न्यूनतम जीवन स्तर को चलाने के लिए उचित वेतन तो मिलना ही चाहिए, अन्यथा यही बेरोजगारी एक दिन अराजकता के रूप में सिर दर्द बन सकती है। इसके लिए बाकायदा रोजगार मंत्रालय खोला जा सकता है। जिसके माध्यम से सर्वे कराकर हर बेरोजगार को स्वरोजगार या प्राईवेट या सरकारी तंत्र में खपाया जा सकता है। सेवा निवृत्ति की आयु घटाकर या ऐच्छिक सेवा निवृत्ति के द्वारा युवकों के लिए रोजगार के अवसर खोले जा सकते हैं। रोजगार के अभाव में प्रत्येक दंपति से किसी एक को रोजगार का विकल्प दिया जा सकता है ताकि गृहस्थी का पहिया भी नहीं डगमगाये। वैसे भी नारी ही समर्पित मार्ग दृष्टा है जो अपने पति तथा अपने बच्चों का घर में रहकर मार्ग प्रशस्त करती आई है। आज स्थिति यह है कि परंपरागत उद्योग धंधे प्राय: नष्ट हो गये हैं, व्यक्ति जाये तो कहाँ जाये? यद्यपि आधुनिक टेक्नोलोजी अच्छी है, लेकिन जनशक्ति की इससे घोर उपेक्षा हुई है। हमें देश की पूरी श्रम शक्ति को 18 से 20 वर्ष से दोहन कर देश को पॉवरटी बनाना है। इसके लिए हमें पिता की तरह सोचकर उन युवाओं को आत्म निर्भर बनाना है, तब ही हम कल्याणकारी राज्य का सपना संजो सकते हैं। वैसे भी पैसा किसी के पास ठहरता नहीं है, बल्कि यही पैसा आदमी को रन कराता है।

    दूसरा मोर्चा-कृषि-आज यदि सबसे ज्यादा दुःखी है तो वह है भारत का किसान। उसकी सारी उपज आधुनिक टेक्नोलोजी के भेंट चढ़ गई है। बीज की बुवाई से लेकर निराईए सिंचाईए कटाई, एवं लदाई तक वह सारा पैसा खेती पर स्वाहा करता आया है। पशुधन के अभाव में वह रासायनिक खाद दवाइयां आदि के लिए दूसरों का मुँह ताकता रहता है। उसके परिवार की सारी श्रम शक्ति कृषि पर लगी रहती है, उसके बावजूद प्राकृतिक आपदा यथा-सूखा बाढ़ए ओला वृष्टि से उसकी मेहनत का किया कराया सब चौपट हो जाता है। आज अन्नदाता की कद्र बिगड़ गई है। कोई अन्नदाता बनना ही नहीं चाहता, जबकि केवल खाद्य सामग्री ही नहीं अपितु सारे उद्योग धंधे कृषि जिंसों पर निर्भर है। हमें हर हाल में कषि पर ध्यान देना है। हमारे भारत की अधिकांश जनता इसी पर निर्भर है। हमारी कृषि बच गई तो समझ लो हम बच गये। सौर ऊर्जा के माध्यम ये हम किसानों को ही नहीं हर व्यक्ति को आत्म निर्भर बना सकते हैं, क्योंकि हमारा सारा जीवन सूर्य से ही संचालित होता है। हमें उन्नत कृषि एवं पशुओं के संरक्षण पर जोर देकर किसानों को पुरस्कार देते हुए उनका मान बढ़ाना है। क्योंकि आज भी हमारे देश में 70 प्रतिशत किसान मौजूद है, हमें उनका कृषि से पलायन रोकना है। जय जवान-जय किसान का नारा एक बार और बुलंद करना है। उसके लिए कृषि मंत्रालय को सजग करना है। कृषि एवं पशु संपदा से ही हम खुशहाल बन सकते हैं। पशुवध पर पूर्ण पाबंदी ही नहींए कठोर दंड का विधान होना चाहिए। आज पर्यावरण पूर्ण रूप से क्षत-विक्षत हो गया है जिसका खामियाजा हमें कई व्याधियों के रूप में भुगतना पड़ रहा है।

    तीसरा मोर्चा-व्यापार/वाणिज्य-यह देश का रीढ़ खंभ है। इसी के बलबूते हम घर बैठे एक देश के कोने से देश के दूसरे कोने में वस्तु खरीदने में कामयाब हो सकते हैं। व्यापार वाणिज्य को हमें भय मुक्त बनाना है। आज आये दिन सरकारी कारिंदों के द्वारा छापे की कार्यवाही ने उनकी हवा निकाल दी है। टैक्स पर टैक्सों का भार आखिर जनता को ही भुगतना पड़ता है। ये व्यापारी ही है जो हमें अन्नए वस्त्रए दवाइयां एवं कई रोजमर्रा की ढेर सारी वस्तुएं हमें घर बैठे उपलब्ध करवाते हैं। व्यापार वाणिज्य के द्वारा भी हम बेरोजगारों को खपा सकते हैं। हमें लाइसेंस प्रणाली को एक सिरे से खारिज करना है, इसकी तह में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है। सरकारी कारिन्दे द्वारा इसी कारण अन्य व्यापारियों के नाक में दम किया जाता रहा है। सोचो यदि लाईसेन्स नहीं होगा तो हर व्यापारी उस वस्तु को आपके पास पहुँचाने की कोशिश करेगा और वैसे भी ईमानदार व्यापारी ही इसमें कारगर होता है । जनता इतनी मूर्ख भी नहीं कि कोई उसको बरगला सके, लेकिन यदि उस व्यापार में लाइसेंस द्वारा एकाधिकार होता है तो उसमें उसको कुछ हिस्सा सरकार के कारिन्दों को तथा कुछ हिस्सा अपने लिए अनाधिकृत रूप से रखने की सोच विकसित होती है। हमें व्यापार वाणिज्य में शुद्धता के लिए उत्पादित स्तर पर ध्यान रखना है। छोटे-मोटे व्यापारियों को नाजायज परेशान करने से कोई औचित्य नहीं है।

    चौथा मोर्चा-नशा मुक्ति-यह मोर्चा ऐसा है जिसमें बड़े-बड़े भूपति भी अपना सब कुछ दांव पर लगाकर धूल चाटते फिर रहे हैं। इन मादक द्रव्यों ने कई बसी बसाई गृहस्थी को उजाड़ कर राख कर दिया है। इनसे आसक्त होकर कई युवक कई प्रकार की व्याधियों की चपेट में आ गया है। जिसका खामियाजा पूरे परिवार को ही नहीं, रिश्तेदार, समाज, देश तक को भुगतना पड़ रहा है। पूरा देश चाहता है कि गुजरात मॉडल की तरह भारत नशा मुक्त हो जाये। आज बीड़ी-सिगरेट, तम्बाकू-गुटका शराब की हर चौराहे पर दुकाने सजी है। सरकार अपने कोष को भरने के लिए बाकायदा उनको संरक्षण देते देखे गये हैं। उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि जितनी आमदनी उन विषैली नशा सामग्री से होती है, उससे कहीं अधिक गुना उनसे होने वाली बीमारियों पर दवा आयात करने से नुकसान हो जाता है। आज ऐसे व्याधियों के गिरफ्त में वह युवक जल्दी आ जाता है जिसको रोजगार तो उपलब्ध हो गया है पर उसको संभालने के लिए उसकी संगिनी नहीं है या वह एकल रूप से रहता है। और जब उसको संगिनी मिलती है तब तक काफी देर चुकी होती है।

    पांचवां मोर्चा-पुलिस एवं न्यायपालिका-कहने को तो हर पुलिस कार्यालय पर बोर्ड लगा रहता है 'आम आदमी में विश्वास और अपराधियों में डर' लेकिन होता उल्टा है। आम आदमी पुलिस से डरा-डरा महसूस करता है और अपराधी बेखौप होकर पुलिस के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। कोई सी घटना घटने पर आम आदमी पुलिस के पास जाने से ही कतराता है और चला भी जाता है तो उसकी एफ.आई.आर. ही दर्ज नहीं होती या होती भी है तो उसके मन मुताबिक नहीं लिखी जाती है, बल्कि दूसरे पक्ष के वांछित अपराधी से भी शिकायत लिखाकर क्रोस केस दर्ज कराकर इतिश्री कर ली जाती है। पुलिस में भ्रष्टाचार जोरों पर है, उन्हें कोई कहने-सुनने वाला ही नहीं है। इसी तरह न्यायपालिका में वकीलों की चांदी है। छोटे से केस में कई वर्ष लग जाते हैं। कई बार तो जीते जी न्याय ही नहीं मिल पाता। न्याय में देरी ही बहुत बड़ा अन्याय है। पुलिस के द्वारा लाये हुए बड़े से बड़े अपराधी को जमानत मिल जाती है। साधारण व्यक्ति न्यायपालिका की ओर जाना ही पसंद नहीं करता। हमें न्याय शीघ्र दिलवाकर न्याय के मंदिर को पवित्रतम बनाना है।

    देश में वैसे बहुत सारे मोर्चे हैं यथा-वैदेशिक नीति, भ्रष्टाचार का अंत, धर्म निरपेक्षता, नक्सलवाद, राजनैतिक सामंजस्यता, समरसता आदि जहां आपको जीत हासिल कर देश की जनता की वाहीवाही बटोरनी है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपके द्वारा बहुत सारा समाधान तो आपके व्यक्तित्व की सच्चरित्रता से ही पूरा हो जायेगाए जो आपको विरासत में मिला है। कहा भी गया है यथा राजा तथा प्रजा। एक बार आपको पुन: इस ऐतिहासिक विजय पर हार्दिक बधाई। आशा है, पूरी संजीदगी से जिस दम पर आप विजयी हुए है, उसी संजीदगी से देश का मान बढ़ाने में भी आप कामयाब होंगे। देश का भविष्य आपके साथ खड़ा है, सोचना आपको है। धन्यवाद।।   



गुरुवार, 24 जून 2021

डॉक्टर बनाम भगवान ?

 


    कहावत है, 'पहला सुख निरोगी काया' और यह शत प्रतिशत सत्य है। यदि मनुष्य जरा सा भी रुग्ण हो जाता है तो उसका सारा हौंसला पस्त हो जाता है। जब कोई चारा नहीं रहे तो हम भागते हुए वैद्य या डाक्टर के पास जाते ही हैं और डाक्टर मरणासन्न अवस्था से हमें अपनी मृदु वाणी एवं अपने उपचार द्वारा हमें नया जीवन प्रदान करता है। जब कभी आप ऑपरेशन थियेटर का दृश्य देखें तो आपको लगेगा कि जैसे बिजली के ट्रांसपोर्ट से तार जोड़े जाते हैं, ठीक उसी प्रकार नवीनतम संसाधनों के द्वारा मनुष्य के शरीर को कई नलिकाओं द्वारा जोड़कर मनुष्य को एकदम चंगा कर दिया जाता है। नया जीवनदान देने के कारण उनको भगवान से भी हम बड़ा मानते हैं।

यद्यपि पहले गाँव-गाँव में आयुर्वेद औषधालय थे, जिनमें वैद्य बैठा करते थे। उनकी चिकित्सा प्रणाली हमारी वेद विद्या, पर्यावरण, नाड़ी तंत्र एवं घरेलू नुस्खों पर आधारित थी। जिनको जनता भी बखूबी समझ कर अपनी रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ा लेती थी। वैद्य लोगों का आहार-विहार एवं आध्यात्म पर विशेष जोर रहता था। उनका गाँवों में आत्मिक संबंध भी होता था। वे निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा सुश्रुषा करते थे, जिससे उनको आत्मिक संतोष मिलता था।  चाहे वे सरकारी सेवारत हो या घर पर, उनके पास आसपास के गाँवों से बैलगाडिय़ाँ छूटी रहती थी। उस समय एलोपैथी का जमाना ही नहीं था। यह तो अंग्रजों के आगमन के पश्चात् ही प्रारंभ हुआ। मुस्लिम सल्तनत में हकीम लोग भी देशी नुस्खे देकर ही इलाज करते थे। 

अंग्रेजों के आगमन के साथ ही धीरे-धीरे एलोपैथिक का जमाना आया, जिसमें शल्य क्रिया (चीर-फाड़) पर विशेष जोर रहने लगा। पूर्व में डॉक्टर भी निस्वार्थ भाव से चिकित्सा करते थे। हमने यहाँ तक देखा कि पूर्व में कई डॉक्टर गरीब मरीजों को अपनी जेब से फल एवं निशुल्क दवाइयाँ तक देकर भी उनको मौत के मुँह से निकाल लेते थे। ऐसे डॉक्टरों पर केवल पीडि़त ही नहीं, अपितु उनके परिजनों की भी पूर्ण आस्था रहती थी, उन डॉक्टरों को देवतुल्य मानते हुए सब जगह सम्मान मिलता था। यही नहीं, गाँव के देशी जानतेर व जड़ी-बूटियाँ जानने वाले जो स्वयं धूम्रपान करते थे, आगंतुक मरीजों से बीड़ी तक के पैसे नहीं लेते थे, क्योंकि उनकी सोच थी कि यदि हम पैसे लेकर इलाज करेंगे तो हमारे इलाज से मरीज को यथोचित फायदा नहीं होगा।

शनै-शनै जमाना भौतिकता में रूपान्तरित होता चला गया। हर व्यक्ति की पैसे के प्रति आशक्ति बढ़ गई। डॉक्टरों का वेतन इतना बढ़ गया कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। एक-एक डॉक्टर एक-एक लाख। और यदि घर में पति-पत्नी दोनों ही डॅाक्टर हैं तो न्यूनतम दो लाख की सेलेरी, फिर भी भूखे के भूखे ही। एक-एक पेसेन्ट से ऑपरेशन के नाम पर पैसा, मेडिसिन में कमीशन, अस्पताल  समय में भी अपने क्वार्टर में बैठकर मरीजों से फीस लेने का क्रम, पैसे की इतनी भूख कि उनको स्वयं को भी औलाद की कोई फिक्र नहीं, एक या दो बच्चों के होने पर परिवार नियोजन। ऐसे डॉक्टरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है? आलीशान बंगला, गाड़ी सब कुछ होते हुए भी कोई किडनी बेचते हुए तो कोई शरीर का अंग बेचते हुए पढ़े व देखे जा सकते हैं। आज तो स्थिति यह है कि मरीज को डर लगा रहता है कि ऐसा नहीें हो कि डॉक्टर नाराज हो जाये तो हमें मौत के मुँह में धकेल दे। आज भौतिकवाद में डॉक्टरों के प्रति मनुष्य की आस्था, अनास्था में बदल गई।  

         कोई पीडि़त अस्पताल का रुख करता है तो सर्वप्रथम मरीजों की भीड़, डॉक्टर मरीज को अपनी बीमारी पूछेगा, उसके बताते-बताते 500-1000 रु. के दवाइयों की स्लिप मरीज के हाथों में, फिर वह जाने, उसका काम। दो मीठे बोल बोलने की संवेदना एकदम गायब। डॉक्टर उस बीमारी का ऐसा हव्वा बनायेगा कि मरीज की साँसें वहीं की वहीं अटक जाये। पहले कई अनावश्यक जांचें, उसकी भी अनुशंसा अपनी या अपने मिलने वाली लेब पर ताकि मोटी कमाई हो सकें, फिर सीधे मरीज को ऑपरेशन प्लेटफार्म पर, अंग्रजी लिखे हुए फॉर्म पर मौत की जिम्मेदारी से बचने के लिए परिजन के हस्ताक्षर, ना कोई बात। ज्यादा पूछे तो कहेंगे, डॉक्टर आप हैं या हम। बेचारा मरीज इधर पड़े तो कुँआ और उधर पड़े तो खाई। आखिर अपना जीवन उनको समर्पित कर देता है। यदि मरीज मर भी जाये तो उनका बिल तो भरना ही पड़ता है, अन्यथा लाश के भी लेने के देने पड़ते हैं।  

आज तो स्थिति ऐसी है कि डॉक्टर का सर्टिफिकेट प्राप्त कर कुछ ही समय में वे अपना क्लिनिक खोल कर बैठ जाते हैं और यदि सरकारी सेवारत हैं तो अपने परिवार के किसी सदस्य के नाम पर क्लिनिक चला रहे होते हैं। और फिर अपने निजी हॉस्पीटल में इतनी भारी भरकम फीस लेते हैं कि गरीब बेचारा उधर रुख ही नहीं कर पाता। केवल सोचने की आवश्यकता है कि इतना पैसा लेकर कौन आज तक ऊपर लेकर गया है, फिर आपकी वह सेवा भावना कहाँ चली गई? 

उनका मानना है कि पढ़ाई एवं डॉक्टरी  की डिप्लोमा लेने में भी उनको भारी मोटी राशि एवं यहाँ तक कि उनको घर के जेवरात बेचने पड़े हैं, उनका कहना भी शत प्रतिशत सत्य है, पर इसके यह मायने नहीं है कि आप जिंदगी भर जनता को लूटते रहो। जब सरकार ही अच्छा-खासा वेतन और सुविधा दे रही है तो उनको कुछ परहेज रखना चाहिए।    

किसी कवि ने कहा है कि 'आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर' फिर अपन कौनसे खेत की मूली है। हमें यहाँ की अदालत में इंसाफ नहीं मिले, पर भगवान की अदालत में अवश्य इंसाफ है और आज तो वहाँ देरी भी नहीं है, कुछ समय में ही इसी जिंदगी में उस कर्म फल को भोगते हुए देखा जा सकता है। इसलिए अब भी समय है, सेवा ही वह धन है, जिसके आगे सारे धन बेकार है। सेवा करने पर ही आत्मा प्रफुल्लित होती है। किसी की गरीब की दुआ आपको कहाँ से कहाँ तक पहुँचा देती है, इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि डॉक्टर इलाज करते हैं, लेकिन उनमें लालसा की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई है। आज तो स्थिति ऐसी है कि स्वामी रामदेव बनाम योग/आयुर्वेद एवं ऐलोपैथिक में एक तरह से जंग छिड़ गई है। चिकित्सा प्रणाली वही बेहतर मानी जायेगीै, जिसमें  रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़े एवं लोगों पर आर्थिक भार भी नहीं पड़े तथा वह प्रणाली प्राकृतिक/योग एवं घरेलु रूप से हमारे आसपास सुलभता से मिल सकें, जबकि एलोपैथिक हमारे दायरे में नहीं आती है। एलोपैथिक मेडीसिन 10 रु. के 100 रु. तक लगाकर विक्रय की जाती है। और मजबूरन हमें लेनी पड़ती है।

यह भी देखने में आया कि परहेज के कारण लोग आयुर्वेद से डरते हैं, जबकि आयुर्वेद के एक प्रधान चिकित्सक ने बताया कि यदि भूलवश आप आयुर्वेदिक दवाइयाँ लेते हुए वर्जित वस्तुओं को उपभोग कर लेते हैं तो डरने की कोई जरूरत नहीं है। वह दवाई भले ही उस वक्त फायदा नहीं पहुँचाये पर नुकसान नहीं पहुँचायेगी। आप पुन: दूसरे दिन से प्रारंभ कर सकते हैं। आयुर्वेद दवाइयों की एक विशेषता यह भी है कि वे रोग की तह तक जाकर उस बीमारी का हमेशा के लिए खात्मा कर देती है। लोगों में यह भी मान्यता है कि आयुर्वेद प्रणाली देर से काम करती है और एलोपैथिक शीघ्र लाभ करती है। मेरा स्वयं का अनुभव रहा है कि आयुर्वेद प्रणाली बीमारी का शीघ्र व पूर्ण शमन करती है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि गर्वनमेंट का आयुर्वेद की तरफ कम एवं एलोपैथिक की ओर ध्यान अधिक होने के कारण ही यह प्रणाली अधिक फलफूल रही है। और आज हम हमारी भारतीय संस्कृति की वैदिक चिकित्सा प्रणाली को भूलते जा रहे हैं। 

पुन: डॉक्टर यदि जनता का मसीहा बने, तब ही वे वास्तविक सम्मान के हकदार होंगे और इसी में उनको आत्मिक संतोष मिलेगा और वे देवतुल्य बन सकेंगे।

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मंगलवार, 22 जून 2021

लोक डाउन बना जीव का जंजाल

 


 ऐसा सुनने में आ रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से अधिक घातक है। कोरोना ने पहले भी सबकी जिन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी। और जब बड़ी मुश्किल से गाड़ी पटरी पर लौटी तो पुन: लॉक डाउन का कहर बेरोजगारी का तांडव नचा रहा है। इसका प्रभाव न सरकारी नौकरों पर पड़ रहा है न पेंशनधारियों पर और न ही मंत्री-संतरियों पर, सीधे-सीधे आम जनता को इसकी मार झेलनी पड़ रही है। कभी-कभी तो लगता है, कई बार इसको राजनेता हथियार के रूप में काम में ले रहे हैं। जब मन चाहा, लॉक डाउन और जब चाहा अन लॉक। और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई इस पर अपना मुँह खोल भी नहीं सकता, जब चाहे राजद्रोह ही धारा में फँसा दे। पत्र-पत्रिकाओं से देखने सुनने में आ रहा है कि चुनावों में, राजनैतिक रैलियों में भीड़ तंत्र सक्रिय है, फिर इन छोटे-मोटे उद्यमियों पर नकेल क्यों?
सुबह दूध बेचने वाला दिन में अपने ऑटो से राहगीरों को ढोता है, आज सुबह उसने कहा, कि इस लॉक डाउन ने रही सही कमर भी तोड़ दी।  परिवार का पालन ही दूभर हो रहा है। थडिय़ों वाले का धंधा ठप्प, कपड़े का धंधा ठप्प, मजदूरी ठप्प चारों ओर पुलिस का पहरा, आदमी करें तो क्या करें? चिकित्सालयों में जाये तो सबसे पहले यही चिंता कि ऐसा न हो डाक्टर कोरोना बतलादें। और यह भी विडंबना है कि कि सर्दी-जुकाम, सांस-खांस, नमोनिया सबके लक्षण कोरोना से  मिलते जुलते। जितनी जाँचें, उतने ही कोरोना पेसेन्ट। ऐसा भी नहीें कि रिकवरी की दर कम हो, शरीर की मौजूद रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अपना काम करती है। पर कोरोना का हव्वा जीवन पर भारी पड़ रहा है। ताज्जुब तो यह है कि कोरोना के टीके की दो-दो डोज लेकर भी लोग पोजीटिव आ रहें हैं। 
कहने को तो सरकारें कल्याणकारी है, प्रजा हितेषी है, जनता को ऊँचे-ऊँचे सपना दिखाती है, पर रोजगार के नाम पर शून्य है। हाँ शराब ठेकों की वाही-वाही है। बड़े अचरज की बात है शराब के एक-एक ठेके की बोली करोड़ों में लगी है। अकेले राजस्थान में  तकरीबन 200 करोड़ की बोली लगी है। पर अधिकाँश व्यक्ति कहते हैं कि यह शराब ना हो तो राज्यों की आमद ही रुक जाये, सरकारें कैसे चले? सरकार की मुख्य आमद ही शराब है, पर हमें ऐसे दूसरे राज्यों से भी प्रेरणा लेनी चाहिए जहाँ सरकारों ने इस शराब पर अपने राज्यों में पूर्ण पाबंदी लगा रखी है। हमने इस हेतु सरकार को कई बार लिखा, पर सरकारें तो वही करेगी, जिसमें उनका भला दिखता हो, जनता जाये भाड़ में। मीडिया वाले चिल्लाते रहे, उनके कानों में जूँ नहीं रेगेंगी।
एक तरफ राजस्थान में राजस्थान पत्रिका द्वारा पुलिस-पब्लिक संवाद का कार्यक्रम चल रहा है, हर संवाद में यह बात उभर रही है कि नशा परिवारों का नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है, परिवार टूट रहे हैं, नशेडिय़ों के कारण रोज घरों में कलह और हत्यायें बढ़ रही है। शादियाँ तलाक में तब्दील हो रही है, नशाबाजी के कारण कुँवारों की शादियाँ तक नहीं हो पा रही है। फिर  राज्य/देश में शराब पर बैन क्यों नहीं? क्या सरकारें इन नशा व्यवसायियों से ही अपनी सरकार चला रही है? पुलिस के हाथ बँधे हैं, उन्हें तो जो हुक्म दिया है, उसे ही निभाना होगा, आखिर उनका वेतन भी तो ये सरकारें ही दे रही है, फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे। पर कम से कम पत्रिका पब्लिक सेतु कार्यक्रम को आधार बना कर पुलिस महानिरीक्षक यह तथ्य सरकार के सामने तो रख ही सकते हैं, जिस पर सरकारें मंथन कर सकें। ऐसा पैसा किस काम का जो जनता को नशे का गुलाम बना दें। यदि शराब बनाने की फेक्ट्रियाँ ही बंद हो जाये तो शराबी स्वत: ही लाईन पर आ जायेंगे। न रहेगा बाँस नबजेगी बाँसुरी।              
                  अकेली शराब ही नहीं, जरदा-गुटका, भांग-अफीम, नशे की गोलियाँ सबके सब परिवार की दुश्मन है, कोई भी एक बार इसकी गिरफ्त में आ गया तो उसका छूटना नामुमकिन ही है। वैसे भी हम रासायनिक खादों के द्वारा खेतों में जहर तो बो ही रहे हैं। और  खुले आम उस जहरीली उपज को खा ही रहें हैं। फिर कोरोना का ही डर ही क्यों? क्या हम इनको कोरोना से कम नहीं आँक रहें? जब हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति ही काम नहीं करेगी तो कारोना का असर तो व्यापक होगा ही। हमें इसके साथ-साथ इन सब पर भी विचार करना चाहिए। 
हमें पुन: पर्यावरण की स्वच्छता की ओर ध्यान देना आवश्यक हैं। मादक व्यसनों को सरकार चाहे तो कानून पास कर पूर्ण प्रतिबंध लगा सकती है। छोटी-छोटी थडिय़ों एवं प्राईवेट काम करने वालों को भी ऐसे समय में कुछ राहत देकर उनके परिवार को बचाया जा सकता है। स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेदिक, होम्यापैथिक, प्राकृतिक एवं घरेलू चिकित्सा पर भी फोकस किया जा सकता है। वैसे भी आयुर्वेदिक काढ़ा भी गत वर्ष इसी कोरोना काल में रामबाण साबित हुआ है।   
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रविवार, 20 जून 2021

भारतीय संस्कृति पर कोरोना का कहर





    कभी किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि सारे देवालय यथा-माताजी, भेरूजी, बालाजी, बड़े-बड़े मंदिरों के पट बंद हो जायेंगे? जनता की आस्था इस महामारी के भेंट चढ़ जायेंगी। बड़े-बड़े आक्रमणकारियों ने मंदिरों को ध्वंस अवश्य किया, पर जनता की आस्था से खिलवाड़ नहीं कर पाये। आज हम दिखावे के लिए स्वतंत्र अवश्य हैं, लेकिन पूरे भारत में लॉक डाउन का कहर गरीब बेरोजगारों पर पहाड़ बनकर टूट रहा है। सब अपने घरों में बंद है, अनावश्यक बाहर निकलने पर ही चालान है। यह भी हम कह नहीं सकते कि यह खेल कब तक चलता रहेगा? अब तक कोरोना की लहर थी, अब सुनने में आ रहा है कि ब्लेक फंगस भी टूट पड़ा है। और कल अन्य कोई नई बीमारी अपना रूप बदलकर जनता को अपने चपेट में ले लेगी। शादी-ब्याह, मेले समारोह  सब पर रोक लग चुकी है। चारों ओर पुलिस का पहरा है। अब तो स्थिति यह है कि शादी और मृत्यु पर भी सरकारी गाईड लाईन के अनुसार ही परिजन आमंत्रित हो सकेंगे। शादी का आलम तो यह है कि आवश्यक हो तो कोर्ट मैरिज कर लो या ग्यारह परिजनों की देखरेख में चुपचाप शादी कर लो। रिश्तेदार, पंडित, वैदिक मंत्रों व अग्रि की साक्षी को कोई आवश्यकता नहीं।    

आज तो स्थिति ऐसी है, कोई परिजन  हमसे बिछुड़ रहा है, उससे हम मिल तक नहीं सकते। हमारा भी खून सूख चुका है। बहाना भी सच्चा और अच्छा है, चारों ओर लॉक डाऊन लगा है। कोई कुछ कहने वाला नहीं है। आज तो स्थिति यह है कि माँ वेंटिलेटर पर है, बेटा, भाई मिल भी नहीं सकते, और इस कोरोना की हव्वा से कोई मिलना भी नहीं चाहते। यदि कोई परिजन बीमार पड़ भी जाता है, अव्वल तो वह अस्पताल का रुख करेगा ही नहीं और यदि परिजनों के दबाव में अस्पाल मेंं भर्ती हो भी जाता है तो बेचारा पीडि़त अस्पताल में अकेला फँस जाता है। उसको सांत्वना देने वाला तक भी कोई परिजन नहीं, कर्मचारियों की पौबारह है, उन्हें कोई कहने सुनने वाला भी नहीं और यदि पीडि़त मर जाता है तो  सरकारी अमला ही उनको जला देता हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कलयुग की काली छाया मंडराने लगी है। अब तक तो केवल पशुओं के साथ ही ऐसी क्रूरता करते देखी जाती थी, लेकिन आज मनुष्य के  अंगों को बेचकर शवों को पानी में बहाते सुना जा रहा है। 

आज तो जनता भी भेड़ चाल चल रही है। उन्हें मौत का दंश इस कदर सता रहा है कि कोरोना के टीकों की कतार के साथ-साथ रेमडेसीवर इंजेक्षन व आक्सीजन सिलेण्डरों के  लिए मारामारी हो रही है। उनके मुँह माँगे पैसे दिये जा रहे हैं, कई जगह ब्लेक में खरीद-परोख्त हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आदमी मर रहे हैं, पर अधिकाँश वे ही मर रहे हैं जिन्हें कोई बीमारी पहले से हो या उनकी उम्र 60-70 के बीच में हो या किसी लालची डाक्टरों के हाई डोज चंगुल में फँस गये हो। 

हम बार-बार कहते हैं कि सरकारों को कोरोना का कहर ही अधिक दिख रहा है, जबकि इससे अधिक शराब एवं मादक द्रव्य व्यसन अधिक जानलेवे हैं जो जीते जी मनुष्य को नरकगामी बनाने के साथ-साथ परिवारों की इज्जत को तहस-नहस करते हुए नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं, लेकिन राजस्व के आगे  सरकारों का इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं है। जबकि  वास्तव में यदि सरकार जनहितेषी है तो इन मादक द्रव्यों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए। 

पहले कहा जाता था कि 'सुबह शाम की हवा- लाख टके की दवा पर शायद हम भूला चुके हैं। महानगरों में कंकरीट के मकान ही मकान अधिक मिलेंगे, जगह के अभाव में पेड़ तो वैसे ही कम हैं और रही सही कसर कल-कारखानों, कलपुर्जों व पेट्रोल-डीजल वाहनों ने भरपाई कर दी। मनुष्य का खुले में साँस लेना दुभर हो गया। हमने इन दिनों ऐसे-ऐसे गांवों के बारे में भी सुना, जहाँ हर घर के बाहर नीम व छायादार पेड़, ऑक्सीजन का भरपूर खजाना है, ऑक्सीजन के चाहे कितने ही सिलेण्डर भर लो और उस गाँव में अभी तक कोरोना का एक भी पेसेंट नहीं। प्राचीन काल में ऋषि-महर्षियों द्वारा वायुमंडल को स्वच्छ रखने हेतु यज्ञों का आयोजन होता था, धर्म तो एक सहारा मात्र था, जिससे जनता प्रतिबद्ध हो सकें। उन यज्ञों में वैदिक स्वर नाद के साथ-साथ गौघृत, काष्ट, कपूर आदि का हवन होता था, उस हवन से वायुमंडल में दूषित हवा भस्मीभूत हो जाती थी। मनुष्य पूर्ण निरोगी हो जाता था। आज हमें कल की बातें कल्पना लगती है। आज हम डाक्टरों के भौतिक कुचक्र में फँस चुके हैं, वे भी  सरकारी गाईड लाईन के अनुसार ही इलाज करते हैं। न उन्होंने दवाई बनाई और न उनको उन दवा के तत्वों के बारे में पता है। बड़े-बड़े दवा निर्माता अपनी दवाओं को कमेटी बिठवाकर, पैसा देकर स्वीकृत करवा लेते हैं। आज तो हम छोटी सी बीमारी का इलाज भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के  मार्गदर्शन में लेते हैं। जबकि आयुर्वेद व प्राकृतिक इलाज हमारी परिधि में हैं, लेकिन हमारा उन पर से विश्वास उठ गया है। और न ही सरकार उनके लिए जनता को प्रेरित करती है, और यदि इस दिशा की ओर प्रेरित करे भी तो डाक्टरों के ट्रेनिंग सेन्टर, बड़े-बड़े एलोपैथिक दवा उत्पादक केन्द्र बंद करने की नौबत आ जाये, फिर हो सकता है सरकारों को भी अपेक्षित राजस्व नहीं मिले।   

हमें यह समझ नहीं आती कि कश्मीर की केसर क्या भारत के गर्म राज्य में उगाई जा सकती है, या अफगानिस्तान का अखरोट किसी ऐसे इलाके में पैंदा किया जा सकता है जहाँ उसके प्रतिकूल जलवायु हो? तो कोरोना जैसी महामारी संपूर्ण विश्व में क्यों? और यदि यह बीमारी हमारी मिट्टी में ही पैदा हुई है तो उसका इलाज भी इसी मिट्टी में होगा, जिसे हमें ढूंढना होगा। मौसमी बीमारियाँ आती है और चली जाती है। जब मौसम में उतार-चढ़ाव होगा तो हम उससे अछूते कैसे रह सकते हैं? पर हमारा सब्र का बाँध टूट जाता है और हम सीधे डॉक्टरों के चंगुल में फंस जाते हैं, वहाँ वहीं होता है, जो वे चाहते हैं। भले ही धनी को फर्क नहीं पड़े, पर गरीब कर्ज के बोझ में दब जाता है। डॉक्टर किसी की सुनते भी नहीं है, यदि हमने कुछ आयुर्वेदिक दवाएँ ली है और हम उनको जानकारी देते हैं तो उन्हें घिन्न सी होती है, मानों उनके पेट पर लात मारी जा रही हो। जबकि ऐसा कोई डाक्टर नहीं जिन्हें न्यूनतम 70-80 हजार प्रति माह से कम मिलता हो। सरकार भी इन्हीं को बढ़ावा देती है। ऐसा भी नहीं है कि सब ही डॉक्टर एक जैसे हो, कुछ के दिल में दया होती है, जो पूरे मनोयोग से मरीज के मर्ज को दूर करता है।

आज हमें आवश्यकता है, हमारी संस्कृति की ओर झांकने की, वैदिक चिकित्सीय पद्धति को देखने की, पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की। हमें शपथ लेनी है कि हमारे घर के बाहर एक पेड़ अवश्य लगाये। यदि आपके पास जगह नहीं है तो भी कम से कम अपनी बालकनी में तुलसी, ग्वारपाठा(एलोवेरा), गिलोय आदि तो लगा ही सकते हैं।

यह कहने में अतिशयाक्ति नहीं होगी कि दाधीच जनसेवा संस्थान के बाहर गुलमोहर, अशोका, नीम, गिलोय, मीठा नीम, आंवला, छुराड़ा(हरे पत्तल बनाने का पेड़), बील जैसे दस पेड़ तथा संस्थान के अन्दर अंगूर, अनार, नींबू, अमरूद, केरुंदा, चीकू, अंजीर तथा सुगंधित चंपा, चमेली, मोगरा, रातरानी आदि के पौधों के साथ मैदान में हरी दूब भी मन को शकून देती है, जिससे प्रतिपल प्राण वायु एवं पौष्टिकता बनी रहे। सौर ऊर्जा संस्थान के लिए वरदान बनकर उभरी है।  

बरसात का मौसम प्रारंभ होने वाला है। अभी से हमें इस कोरोना जैसे व्याधियों से बचना है तो प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपने मकान में जगह के अनुसार  कुछ न कुछ पौधे अवश्य लगाये। आत्मनिर्भरता के लिए आप भी सौर ऊर्जा के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ रखने हेतु इलेक्ट्रिक वाहनों को ही अधिक प्राथमिकता दें। हो सकें तो कुछ शारीरिक परिश्रम भी करें। इसके लिए गौमाता का पालन भी किया जा सकता है, जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ावा मिल सकें और यही हमारी संस्कृति है जिसको अपनाकर हमारे ऋषि-महर्षियों ने शतायु प्राप्त की थी।        

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रविवार, 4 अक्टूबर 2020

गौ माता की सेवा-जीवन भर मेवा

  


                                                    या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। 

                                                नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ।। 

    समस्त चराचर वसुधा में देवी का ही महात्म्य है। हम सब भी देवी के ही अंश है। बिना देवी की कृपा के कोई देवता प्रकट नहीं हो सकते। देवी के इस अंश को हम धरती माता, गौमाता एवं कन्या माता के साथ-साथ समस्त देवियों को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, दधिमथी आदि कई माताओं के रूप में देखते हैं। यहाँ तक कि हम हमारे देश को भी भारत माँ के नाम से पुकारते हैं। माँ का रूप ही लावण्यमयी, ममतामयी, त्यागमयी, सरल एवं सादगी से परिपूर्ण है। माँ ही पालनहार है। समस्त लोक में माँ ही माँ का रूप दिखाई देता है। सियाराम मय सब जग जानि, करहूँ प्रणाम जोरि जुग पाणि।' यहाँ तक कि जल-थल-नभ में विचरण करने वाले समस्त प्राणी भी माँ से ही पल्लवित होते हैं। मनुष्य के साथ-साथ सभी जीवों का जीने का पूर्ण अधिकार है। वनस्पति से लेकर चींटी से हाथी तक सभी जीव माँ की कृपा से ही जीवित है।  

    हमने पूर्व के अंक में भी धरती माता, गौमाता एवं कन्यामाता के बारे में विशेष रूप से लिखा था। यदि मुझसे पूछा जाये कि देश कैसे खुशहाल और समृद्ध हो तो मैं यही कहूँगा कि मनुष्य के जीवन को पल्लवित एवं खुशहाल बनाने में गौ माता का ही विशेष स्थान है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक गौमाता का दूध-मूत्र-गोबर उपयोग में लिया जाता है। यहाँ तक कि गौमाता के दूध से बने हुए मक्खन, घी, दही, आदि से यह शरीर पुष्ट ही नहीं होता है, बल्कि शरीर को नीरोग रखने के लिए भी आयुर्वेदिक औषधियों में भी गौमाता के गौदुग्ध, गौघृत, गौमूत्र आदि का विशेष महत्व है। गौमाता के गोबर से घर पवित्र रहता है, यहाँ तक कि मनुष्य के देहावसान के समय में भी गौमाता के मल-मूत्र-गौबर से शमशान भूमि तक को पवित्र किया जाता है। 

    गौमाता तो साक्षात् कामधेनू है, मनोवांछित फल देने वाली है। उसमें सभी देवताओं का निवास है। भगवान राम का जन्म भी हआ तो उनके पूर्वज महाराज दिलीप की नन्दिनी की सेवा करने के कारण ही उनका वंश चला है। भगवान कृष्ण तो साक्षात गैया मैया के परम भक्त थे। उनको जब तक गैया मैया का माखन नहीं मिलता, तब तक वह चैन से नहीं बैठते थे। गौमाता को चराने में उनको बड़ा असीम आनन्द मिलता था। हमारी माँ दधिमथी माता भी प्रकट हुई तो उस समय भी ग्वाल-बाल धेनू ही चरा रहे थे। विश्व कल्याण के लिए हमारे महर्षि ने अस्थिदान दिया तो उसमें भी गौमाता ही सहायक बनी। 

    आज से पूर्व गाँवों में गौमाता से ही रोजगार था। संपूर्ण देश में गौमाता ही रोजगार की आधार स्तंभ थी। किसान गौवत्सों से कार्य करते थे। कई जातियां जैसे जाट, गूजर, यादव, नागर, मीणा आदि का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन ही था। कृषि यंत्रों मरम्मत का कार्य खाती-लुहार करते थे। कृषि में कपास से बने वस्त्रों के लिए पिन्दाई, कताई, बुनाई, छपाई, सिलाई आदि के लिए कई जाति-उपजातियां पिन्दारे, जुलाहे, छीपा, दजी आदि को काम मिला हुआ था। मृत जानवरों के चमड़ों से निर्मित जूते, बेग, पर्स, चड़स आदि के लिए रेगर, मोची आदि को रोजगार मिला हुआ था। कन्यादान के साथ गौदान का रस्म था। गौदान की बहुलता के कारण मंदिरों में भी ब्राह्मणों द्वारा गोमाताओं का पालन होता था। और तो और आज भी हमारे हर त्यौंहार में भी गौमाता ही रची बसी है गौमाता के बिना गाँव की छवि अधूरी है। समस्त त्यौहारों में गौमाता की प्रतिच्छाया देखने को मिलती है। दीपावली पर हम गौमाता एवं वृषभराज को छापे लगाकर सजाते हैं । बछबारस पर आज भी गोमाता की पूजा करते हैं। 

    अंग्रेजी में उक्ति है- 'अर्ली ट्र बेड़, अली टू राईज' हमारे शास्त्रों में भी लिखा है रात को जल्दी सोने एवं जल्दी उठने  से लक्छमी का आगमन होता है, और तो और उषाकाल में उठने से शरीर निरोग तो रहता ही है। यदि घर में गौमाता होगी तो स्वतः ही उठना पडेगा। आपको उसकी पालना में मेहनत करनी होगी। अकेली गौमाता आपके पूरे परिवार को पाल लेगी। घर में दूध, दही, घी का भंडार भरा रहेगा। आपको किसी चिकित्सक के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। आज तो हम सब कुछ उल्टा कर रहे हैं। रात को देर से सोते हैं, फलतः सवेरे को भी देर तक उठते हैं। शौचालय हमने घर में ही बना लिये हैं। उस गंगा-यमुना-गोदावरी माने जाने वाली जलधारा को टैंक में समाहित कर उसमें मल-मूत्र त्यागते हैं। घर से बाहर जाने का तो हमने कोई विकल्प ही नहीं छोडा, फिर हम निरोग रहने की कामना करें तो यह कैसे संभव है? 

    हमने गौमाता को न पालने के सत्रह बहाने ढूंढ लिये हैं। हमारे पास वक्त नहीं है, हमारे पास जगह नहीं है, हमारे पास उसको खिलाने का साधन नहीं है। मैं पूछता हूँ, आप अपने बच्चों को कैसे पालते हैं ? उनको भी होते ही छोड़ दो मँझधार में। नहीं न! क्योंकि वे हमारे अपने है, और गौमाता परायी है। जबकि सुबह उठते ही तुम्हें चाय पीने के लिए दूध उसी का चाहिए। जब गौमाता ही नहीं है तो दूध कहाँ से मिलेगा। केवल और केवल गौमाता का दूध ही है, जो बल, बुद्धि, वैभव सब कुछ दे सकता है। भैंस का दूध पीने वालों के तो भरी जवानी में घुटने तक रुक जाते हैं। मनुष्य आलसी होकर दिन भर पाडे की तरह पड़ा रहता है । गौमाताके दूध में जो चंचलता है, वह उसके बछड़े में देख सकते हैं, वह कैसे चारों पैर उठाकर फुदकता है, उसको देखने मात्र से ही दिल आह्लादित हो जाता है। 

    समय के साथ आज हमारी गौमाता भी हमसे छिनती जा रही है। सारा चारागाह इन आतताई कसाइयों के अतिक्रमण के भेंट हो गये हैं। हमें ध्यान है कि घरों में सांड बाबा के आगमन पर रोठी दिये बिना उसको नहीं टरकाते थे। वह रोठी लेकर आगे निकल जाता था। गाय के गर्भवती होने पर सांड महाराज को भी 1-2 किलो गुड़ एवं तेल ग्वालों के साथ भेजकर खिलाया जाता था। ऐसी मान्यता थी, जिस खेत में सांड बाबा घुस जाते थे, उसमें फसले लहलहा उठती थी। सांड बाबा को भगाने की किसी में हिम्मत नहीं थी, यदि खेत मालिक ने उसे भगा भी दिया तो वह रात को सारे खेतों को छोड़कर उसी में आ धमकता था। अर्थात् मवेशियों को भी अपने परिवार की भांति ही मानते थे। कृषि के लिए प्रचुर मात्रा में देशी खाद इन मवेशियों से ही हो जाता था। आज हमने गौमाता को नकार दिया है तो हमारा भी गाँवों से पलायन हो गया है। बैलों के गले में बंधे धुंघरूओं की रुनझुन कहीं खो गई है। आज तो ये कसाई इन गौमाताओं के सामने ही उनके वत्सों का कत्ले आम कर रहे हैं। हम मूक बैठे हैं। हमारे जन प्रतिनिधि भी मूक बैठे हैं। संसद में उनको लड़ने से फुर्सत ही नहीं, जनता को क्या अनुशासन का पाठ पढ़ायेंगे? हमारे देश में हरित क्रांति एवं श्वेत क्रांति का सपना कैसे साकार करेंगे? 

    अब भी जगो, हे देश के कर्णधारों कुछ तो शर्म करो। आप संसद में लड़ने के लिए नहीं गए हैं। जनता को सुख-शांति देने के निदान के लिए भेजे गए हैं। नहीं चाहिए हमें ऐसी गर्वनमेंट जो सिर्फ और सिर्फ अपने गोले सेकती हो। इससे अच्छा तो हमारा जीविकोपार्जन हम ही कर सकते हैं। वैसे भी इस धरती पर हजारों जीव-जंतुओं का पालन उत्तम रीति से हो ही रहा है। आप वोट मांगते समय तो कैसे विनम्रता के अवतार बन जाते हैं और जब जनता आपसे सहायता की पुकार करें तो आपकी कैसे भृकुटियां तन जाती है। आपसे प्रार्थना है कि आप आगे आये, 'जीवो और जीने दो' के नारे को बुलन्द करे । गौमाता को प्राश्रय दें। सारे चारागाह मुक्त करवाये। यदि चारागाह ही नहीं रहेंगे तो हमारी गौमाता सड़कों पर रहेंगी। उसे कब तक घरों में नजरबंद किया जा सकता है। प्रत्येक ग्राम पंचायत में कांजी हाऊस को चालू करें ताकि ये गौमाता किसी कसाइयों के पाले नहीं पड़े। ये कसाई इनकी कभी पूँछ काट देते हैं, तो कभी टांगें तोड़ देते हैं। कत्लखानों को शीघ्र बंद करें। इन कसाईयों को कठोर दंड दें। गौमाता बच गई तो हमारा देश बच गया। आज हमारी सभी माताएँ बडी लाचार हो रही है। उसकी भावनात्मक सुधि ले। केवल पैसों का जाल फेंकने से कुछ नहीं होगा। प्रत्येक गौपालक को 500  रु. महीने भी दिया जाये तो कोई नुकसान नहीं है हमको। कम से कम हमें शुद्ध दूध तो मिलेगा ही। 

    याद रखो, जिन घरों में गौमाता है, उस घर की कन्यामाता ही आदर्श गृहणि बन सकती है। जिसने अपने मैके में गौमाता की सेवा करली। वह ससुराल में सास-ससुर एवं अपने पति की सेवा से क्या घबरायेगी। अपने घर में गौमाता के रहने पर उसको अपने पति की आमदनी का भी मोहताज नहीं होना पड़ेगा। गौमाता के कंडे से उसका चूल्हा जल जायेगा तो गौमाता के गौरस खाने एवं श्रम शक्ति करने से उनके बच्चे हृष्ट-पुष्ट बनेंगे। देश सुखी और संपन्न बनेगा।                                              ।। वन्दे मातरम् ।।

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बुधवार, 30 सितंबर 2020

यह कैसा लोकतंत्र है?

 



    यह कैसा लोकतंत्र है, जहाँ न लोक की आवाज सुनी जाती है और न लोगों का कार्य समय पर होता है। इससे अच्छा तो राजतंत्र ही ठीक था, जिनकी कोई जिम्मेदारी तो थी, वे अपना कुछ नैतिक कर्तव्य तो मानते तो थे। मैं मानता हूँ कि वे कभी-कभी राजा निरंकुश हो जाया करते थे, लेकिन उसका जवाब भी जनता बड़ी बखूबी से दे देती थी। यहाँ तो 20-30 प्रतिशत मतों से ही जनता का फैसला मानकर पार्टियाँ सत्तासीन हो जाती है। नोटा का बटन तो मात्र कोरा दिखावा है, उसके बारे में तो कोई कुछ नहीं सोचता, और सोचे भी तो कौन, यहाँ तो सारे कुएँ में ही भांग घुली है, कोई किसी की जिम्मेदारी नहीं है। सब एक-एक कर पाँच सालों के लिए प्रजा पर राज करने चले आते हैं, यदि यह कह दिया जाय कि ये पार्टिया एक तरह से लुटेरों की फौज है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  

हमारा समाज पहले सब एक दूसरों के सहयोगी हुआ करते थे। सभी का एक-दूसरों पर रोजगार टिका था। क्या ब्राह्मण, क्या खाती, क्या नाई, क्या दर्जी और क्या हरिजन सब एक दूसरों के काम आते थे। सबकी अपने कर्मों से पहचान थी। सबको तीज-त्यौंहारों पर एक-दूसरों से कुछ न कुछ भेंट प्राप्त होती थी। पर अब तो हमें हमारे कर्मों से ही नफरत हो गई। और तो और दीपावली एवं मोहर्रम जैसे त्यौंहारों पर हिन्दू-मुस्लिमों की एकता एक तरह से मिशाल थी। कोई किसी को दलित नहीं कहता था, ये सब इन नेताओं की चालें हैं, ये अपना उल्लू सीधा करने के लिए एक-दूसरों को लड़ाना-भिड़ाना जानते हैं, जिससे उनको विभिन्न प्रकार के टैक्सों के माध्यम से नजराना मिलता रहे।

  आज हमारे देश को उन गोरे अंग्रजों की पराधीनता से स्वतत्र हुए करीबन सत्तर साल हो चुके हैं, पर क्या बदला है? अब भी गरीब, गरीब ही है। कभी सत्ताधीशों ने सोचा कि वे गरीब क्यों हैं? एक वर्ग दलित क्यों है? उनको दलित किसने बनाया? अमीर-गरीब की खाई किसने गहराई? वे तो बड़े मजे से उनको गरीब कहने में भी नहीं सकुचाते, बल्कि इन लब्जों को तो उन्होंने अपने वोट बटोरने के हथियार बना लिया है। संसद में सबको ध्वनिमत से अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने में कैसे सांप सूंघ जाता है, कोई कुछ तो नहीं बोलता, सब चुप्पी बना लेते हैं, ये कैसे जनता के प्रतिनिधि है? इनको जनता की फिक्र नहीं, अपितु अपनी स्वयं की फिक्र है, अपनी-अपनी पार्टियों  की फिक्र है। इनको तो ये पाँच वर्ष एक-दूसरों को नीचा दिखाने में ही लग जाते हैं। जनता सब जानती हुई भी कुछ नहीं कर पाती। ये सत्ताधारी तो उन पाँच सालों में जनता को पूरी तरह से निचोड़ देते हैं। इन्होंने कभी सोचा, कि हम जनता को पराधीन पर पराधीन क्यों बना रहे हैं, उन्हें आत्मनिर्भर क्यों नहीं बनाया जा रहा है। 

आज जगह-जगह शराब की दुकानें, मांस की दुकानें खुल्लमखुल्ला चल रही है। इन सरकारों को तो इसी से आमदनी चाहिए, चाहे जनता मरे, इनको इनसे क्या फर्क पड़ेगा। बेचारे घर के घर उजड़ रहे हैं। गृहणियाँ विरोध दर्ज करवा रही है, पर इनके कानों पर जूँ नहीं रेंगती। ये शासक पिता हो ही नहीं सकते। यह भी सही है कि उन व्यक्तियों का रोजगार उन्हीं काम-धंधों पर टिका है, सरकार ने कभी उनको अच्छे रोजगार की ओर मोड़ा ही नहीं, यदि उन्हें कोई अच्छा रोजगार मिल जाये तो कोई कारण नहीं कि वे अपना ये खोटा धंधा छोड़ नहीं सकते। 

हमने कई बार कहा है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है और रहेगा। खाने के लिए ये पैसा काम नहीं आता, बल्कि वह जमीन माता ही काम आती है जिससे केवल मनुष्य को ही नहीं, अपितु समस्त जगत के प्राणियों का भरण-पोषण होता है। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए। आज किसान क्यों दु:खी है, उसे हमने पूर्ण रूप से पराधीन बना दिया। आज उसकी समस्त कृषि ट्रेक्टरों पर निर्भर हो गई है। चाहे जुताई हो या बुवाई, चाहे निराई हो या कटाई, चाहे माल लदाई हो या खाद-बीज सबके लिए उसे बगले झाँकना पड़ता है। उसको उस फसल की एवज में कुछ नहीं मिल पाता बल्कि कभी-कभी तो उसे लेने के देने पड़ जाते हैं। फिर उसे सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, ऐसी खेती करने से क्या मतलब। उन ट्रेक्टर मालिकों के भी कुछ नहीं बचता बल्कि आधा पैसा तो डीजल और अन्य टैक्सों में ही पूरा हो जाता है। और तो और सरकारी मशीनरी भी किसानों को हेय दृष्टि से देखती है। जबकि असल में वह ही अन्नदाता है। अब वह भी कुछ काम नहीं करना चाहता। आपकी मोटर-गाडिय़ों को देखकर उसका भी जी ललचाता होगा।

सोचा कभी, हमने उनके लिए क्या किया? सरकारी मशीनरी, मीडिया और कंपनियों ने मिलकर उसको गलत राह दिखाई। उसके पशुधन को प्राय: नष्ट ही कर दिया, जिससे उसका आराम से काम चलता था। हमने महंगे दामों पर यूरिया जैसी महंगी खादें एवं गुणवत्ता के नाम पर 10 गुणा महंगे बीजों को प्रचारित किया, जिसका खमियाजा आज न केवल किसान बल्कि प्रत्येक परिवारों को कैंसर जैसी कई घातक बीमारियों से जूझकर चुकाना पड़ रहा है। आज गाँवों में बैलों की जोडिय़ाँ प्राय: लुप्त हो गई। हम मनुष्य से हैवान हो गये। सोचा कभी उन पशुओं की क्या गति होती होगी। ये सब नाकारा-बेरोजगार हो गये। यही कारण है कि आज पशु कत्लखाने के भेंट चढ़ रहे हैं।

मैं मानता हूँ तकनीकी अच्छी है, पर इसका यह मतलब तो नहीं है कि हम उन जीव-जन्तुओं को एकदम खारिज कर दें, जिससे उनका ही नहीं, बल्कि समस्त चराचर का पालन होता है। अरे आप गंभीरता से सोचे कि यदि खेतों में टे्रक्टर चलेंगे, तो खेतों में धुंआ ही धुंआ उड़ेगा और यदि खेतों में बैल काम आयेंगे तो कम से कम उनका गोबर एवं मूत्र तो खेतों को उर्वरकता से भर देगा। तकनीकी ऐसी होनी चाहिए जिससे मानव व पशुधन दोनों काम आये, जिससे उनकी महत्ति भूमिका पर प्रश्र चिन्ह नहीं लगे।  

हमने कई बार कहा है, 1. गोसेवकों की भरती होनी चाहिए, जो हर ग्राम पंचायत में गौमाता को चरा सकें, उन्हें इसके लिए बाकायदा सरकार की ओर से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जो उन्हें समय पर प्राथमिक चिकित्सीय सुविधा भी दे सकें। चाहे ग्राम पंचायत अपने स्तर पर गायों को चराने के लिए गोपालको से 200-300 रु प्रति पशु ले सकती है, जिससे उन पर अतिरिक्त भार नहीं पड़े। 2. प्रत्येक गोपालक माताओं या परिवारों को न्यूनतम 500 रुपये की सब्सिडी मिलनी चाहिए, जिससे पुन: वह इस ओर लोटे, 3. कांजी हाऊस का पुननिर्माण होना चाहिए, ताकि आवारा पशुओं के नाम पर कोई उनको कष्ट नहीं पहुँचा सकें।  4. गोसेवकों व पटवारियों में सामंजस्य होना वाहिए, जिससे चारागाह पूर्ण रूप से मुक्त हो सकें। पर किया किसी ने?  

चुनावों के समय जनता को रिझाने के लिए घोषणाएं तो होती है, पर उस पर कभी अमल नहीं होता। जनता उन प्रतिनिधियों तक पहुँच ही नहीं पाती। और उनको उनसे कोई मतलब भी नहीं होता है। वे तो अपना काम कैसे भी करके परिवार को चलाने में लगाते हैं, पर ये सरकारे तो अच्छे-भले चलते हुए परिवारों को उजाडऩे के लिए छापे मारकर उनको कोर्ट तक घसीट देती है। अरे कभी सोचा कि आपका वेतन-भत्ता कितना है और एक व्यक्ति ऐसा है जो पढ़ा-लिखा होकर भी रोजगार के लिए मारामारा फिर रहा है, फिर कैसी पढ़ाई और कैसा उस पढ़ाई का औचित्य? जातिगत आरक्षण एक घिनौना षडय़ंत्र है, जो अखिर समाज में नफरत-वैमनस्यता फैलाकर हादसे पर पूरा होता है। यह सब सरकारों को अपनी तिजोरियों को भरने का एक तरीका है। पुलिस, सी.बी.आई. कोर्ट-कचहरियाँ कोई कुछ नहीं कर सकती क्योंकि ये भी उनके कारिन्दे ही है। वे क्यों बोलेंगे? 

आज सरकारों को पुन: गाय व मंदिर याद आ रहे हैं, करेंगे कुछ भी नहीं। अरे इन देवालयों के साथ तो गायें हमेशा जुड़ी थी, कहीं आपको भगवान कृष्ण बाँसुरी बजाते हुए गौमाताओं के रूप में दिखाई देंगे तो कहीं भगवान शिव नंदी पर विराजे। भगवान राम के गुरू वशिष्ट व विश्वामित्र में भी गोमाताओं के लिए ही संवाद-परिसंवाद होता था। और तो और हमारी माँ दधिमथी के प्राकटय एवं महर्षि दधीचि के देह त्याग में भी गौमाता की ही महत्ति भूमिका थी। हमारे सारे त्यौहार एवं जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार गौमूत्र एवं गोबर से ही पूरित होते हैं। आयुर्वेद की संपूर्ण चिकित्सा भी इस गौरस-दुग्ध, तक्र, दही, घी एवं गौमूत्र के बिना अधूरी है। हमारा सारा आध्यात्म एवं शांति हमें इन जीवों के पालन से ही मिलती है। हम सब एक-दूसरे के पूरक है। 

क्या हिन्दु और क्या मुसलमान सिक्ख, ईसाई कौन गाय से नफरत करेगा, पहले हर घरों में गोपालन होता ही था। यह हमारी शिक्षा प्रणाली ही दूषित थी, जो हमने बच्चों को क्या बड़ा होकर क्या पूँछ मरोड़ेगा?, क्या ढाँडे चरायेगा, ऐसा कहकर उसको इस पशु धन से विरक्त कर दिया। देखा जाय तो गौमाता, धरती माता और कन्या माता इन सबके बिना हम अधूरे हैं। हर पिता को अपनी कन्या को गौदान अवश्य करनी चाहिए जिससे वह पराश्रित नहीं रहे उसका चूल्हा व उसका परिवार को गौरस पौष्टिक आहार मिल सकें।

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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

जीव-वन

 




 

                ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे। 

                जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी। 

                निश्चल प्रेम कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनि रे। 

                जहाँ साँझ सी जीवन छाया, ढोले अपनी कोमल काया, 

                नील नयन से ढुलकाती हो ताराओं की पाँति घनेरी रे।                                            जयशंकर प्रसाद 

    वन है तो शांति है, वन से ही जीवन है। वन ही शुद्ध पर्यावरण है। थके-मांदे, जीवन से निराश व्यक्तियों के लिए भी यही शरण स्थली है। चिन्तन-मनन एवं ज्ञान-पिपासा के लिए वैचारिक बुद्धि जीवियों के लिए भी यहीं केवल्य ज्ञान मिलता है। भगवान महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य आदि ने संसार के कल्याण के लिए इन्हीं वनों में केवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। हमारे ऋषि-मुनियों के आश्रम भी इन्हीं उपवनों में होते थे। हमारा साधन और साध्य भी ये वन ही है। बिना वनों के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाने के लिए यह साधन है और जीवन मुक्ति का मार्ग भी यही है। वन ही हमारे ग्राम्य जीवन के साथ जुड़े हैं। भगवान राम ने वन में कंदमूल खाकर ही अपना जीवन व्यतीत किया था। इन्हीं वनों की लकड़ियाँ उनकी आश्रय स्थलियाँ थी। भगवान राम की पंचवटी में पूर्व दिशा में पीपल, पश्चिम में बरगद, दक्षिण में आँवला, उत्तर में बेल और दक्षिण पूर्व में अशोक के पेड़ का वैज्ञानिक औषधीय एवं पौराणिक महत्व है। अकेला पीपल प्रति घंटा 1800 किग्रा.  ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है। इसी कारण कहा गया है, जीते लकडी-मरते लकड़ी, देख तमाशा लकड़ी का। प्राणवायु का अक्षय स्रोत भी ये वन ही है, जहाँ रहकर मनुष्य नीरोग रह सकता है।  

    वैसे भी समस्त वसुधा में आबादी कम और वन ही अधिक है। इन वनों से ही समस्त जीव-जंतुओं का पालन-पोषण होता है। हमारी भारतीय संस्कृति तो इसमें रची बसी है। हमारे वैदिक मंत्र ॐ द्यो शांति वनस्पतयः शांतिः के रूप में हमने हमारे भारतीय कैलेण्डर को भी वृक्षों की पूजा के हिसाब से जीवन में उतार लिया है। हम कभी नवमी को आँवला की पूजा करते हैं तो कभी पूर्णिमा को वट वृक्ष की । पीपल पूर्णिमा का तो विवाह में विशेष महत्व होने के कारण यह अबूझ सावा है। तुलसी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है, बिना तुलसी के भगवान का भोग ही नहीं लगता। सावन के महीने में हरियाली अमावस्या को हम विशेष रूप से मनाते हैं, इस समय प्रकृति का रूप निखर जाता है, हम आनन्दित होकर पेड़ों की छाँह तले महिला-पुरुष झूले झूलते हैं। महिलाएँ श्रावण के हर सोमवार को व्रत करती है। अधिकांश त्यौंहार भी वर्षाकाल में ही आते हैं। यद्यपि प्रत्येक वनस्पति औषधि एवं रसायन है, उनमें नीम महौषधि है। अलग-अलग जलवायु के हिसाब से देवदार, चीड़, शीशम, सागवान, कैर, खेजड़ली कई प्रजातियां है। उद्योगों के लिए भी समस्त कच्चा माल भी यही से प्राप्त होता है, यहाँ तक कि घर का चूल्हा तक भी प्राचीन काल से अब तक इनके ईधन से ही चलता आ रहा है। आयुर्वेदिक दवाईयों से लेकर महिलाओं के प्रसवकाल की जड़ीबूटियाँ भी यहाँ से प्राप्त होती है। बच्चों के जन्मोत्सव पर बांदनवार तक भी इन्हीं फूल.पत्तों से बनाई जाती है। 

    वनों में केवल नदी.झरने, पहाड़, पेड़.पौधे ही नहीं, अपितु वन्य प्राणी भी हमारे जीवन से जुड़े हैं, जिनके साहचर्य में रहकर मनुष्य अपना जीवन बसर करते थे। हमें याद है, बचपन में सपेरा बीन बजाकर नाग को कैसे नचाकर हमारा मन मोहित कर देता था। मदारी की डमरु बजते ही हम दौड़े चले आते थे। मदारी जब बन्दर और भालू को अपने पैरों पर खड़ा करके नचाता था तो हम दंग रह जाते थे। सर्कस वाले बड़े-बड़े खतरनाक जानवर के करतब दिखाकर हमारा मनोरंजन कर अपना पेट पालते थे। आज हम जानवरों के शोषण के नाम पर उनको खारिज कर दिये हो, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारी कृषि में काम आने बैल,(गौवत्सों) ही थे, जिन्हें हम आज इन कसाइयों को सरे आम दे रहे हैं, क्या यह इंसाफ है ? 

    आजकल हमने करीब-करीब वनों को पूरी तरह भुला दिया है। वनवासियों एवं वनों के इर्द-गिर्द रहने वाले ग्रामीण को हम हेय दृष्टि से देखने लगे हैं, यही कारण है कि उनका शहरों की ओर पलायन हो रहा है। पर हम यह भूल जाते हैं कि मिलने वाला खाद्यान्न, फल-फूल, दूध, घी, आयुर्वेदिक दवाईयां सभी गाँवों और वनों से ही मिलती है। 

    भले ही यहाँ यातायात के साधन विपुल न हो, लेकिन आज भी वनों के इर्द गिर्द ठेठ गाँवों में रहने वाले लोग कठिन परिश्रम करते हुए पसीना बहाते हैं, मोटा अनाज बदलता हआ अनाज(ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूँ खाते हैं तथा दूध, दही, घी  छाछ का सेवन कर निरोग रहते हैं। पेड़-पौधों के संसर्ग में रहने के कारण उनको बीमारी छू तक नहीं सकती। हाँ कभी-कभी वे डाक्टरों के चँगुल में फँस जाने के कारण रासायनिक दवाईयों के साईड इफेक्ट से असाध्य बीमारी से ग्रस्त अवश्य हो जाते हैं। 

    कहने को तो हमने वन एवं पर्यावरण मंत्री तक बना दिया है, लेकिन उनका दायित्व क्या है ? वनों की सुरक्षा के नाम पर ग्रामीणों के वन कटाई पर रोक लगा देते हैं, लेकिन उनकी छत्रछाया में ही वन कर्मचारी अवैध कटाई करवाकर अपनी जेबे गरम करवाते हैं। जहाँ इन जंगलों में अफसरों की पहुँच नहीं है, वहाँ के जंगल फल-फूल रहे हैं। कई जगह तो जान बूझकर वनों में आग तक लगाई जाती है, फिर जाँचे होती है, अपने सिपाहियों के बल पर निरीह ग्रामीण भोलीभाली जनता पर गाज गिरती है, फिर नक्सलवाद क्यों नहीं पनपेगा? मैं यह नहीं कहता कि ये वन मनुष्य के लिए ही है, उसके ईधन या अन्य रूप में दोहन करने से कोई कमी पड़ जायेगी, बल्कि इनका जितना ज्यादा उपयोग होगा, हम उतने ही अधिक पेड़.पौधे लगा सकेंगे। पहले भोज में हरी पत्तलों का प्रयोग होता था, जिनको जानवर ही साफ कर जाते थे, आज प्लास्टिक दोने-पत्तलों के प्रयोग के कारण छुराड़े के पेड़ जिनके दोने-पत्तल बनते थे, समूल नष्ट हो गये हैं।  प्लास्टिक का अधिकाधिक प्रयोग गौमाता के असामयिक मौत के साथ-साथ पर्यावरण को भी दूषित कर रहा है। स्थिति तो ऐसी है किसी भोज में एक आदमी के लिए न्यूनतम दस गिलास प्लास्टिक के बिगाड़े जाते हैं। 

    पहले घरो के चूल्हें  का ईंधन पेड़ पौधों  एवं पशुओं  के मल-मूत्र पर निर्भर करता था, जिसका हर घर में प्रचलन था, घरो में निर्धूम चूल्हे लगाए जाते थे। गाँव  में चूल्हों  के जलने से मच्छरों का नामोनिशान नहीं था। मच्छरों को भगाने के लिए शाम के समय पशुओं के लिए विशेष रूप से पेडों के पत्ते जलाते थे। आज हर गाँव गैस सिलेण्डर पर निर्भर होता जा रहा है। जिसका उत्पादन हमारी पहुँच से बाहर होने के कारण हम गैस कंपनियों पर आश्रित हो गये हैं। अधिकाधिक गैस सिलेण्डरों के कारण पर्यावरण में गैसीय असंतुलन होने से पर्यावरण को भी क्षति पहुँचती है। आज तो स्थिति यह है कि मकानों में ए.सी., फ्रिज, वाहन सभी गैसों पर निर्भर हो गये हैं। हम प्राकृतिक वातावरण को भूलते जा रहे हैं, जिसके बिना हमारा स्वास्थ्य अधरझूल में है।  

    हमें चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जगह के अनुसार कम से कम पाँच पेड़ अवश्य लगाये। जिनके घरों में जगह नहीं है, वे अवश्य गमले का प्रयोग कर सकते हैं। प्रत्येक घर में तुलसी अवश्य लगाये। तुलसी का धार्मिक महत्व होने के साथ वह स्वास्थ्य रक्षक भी है। 


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बुधवार, 23 सितंबर 2020

थूंको और चाटो


  आजकल एक नया कारोबार चल निकला है, थूंको और चाटो। माता-पिता अपनी पुत्री की शादी में दिखावे के लिए लाखों रुपये खर्च करते हैं, बहुत सारी अनर्गल वस्तुएँ दहेज के रूप में देते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे अपनी कमाई में से वह धन जुटा रहे हो, उनकी कमाती-खाती बिटिया का ही वह धन होता है, 'तेरा तुझको अर्पण-क्या लागे मेरा' की तर्ज पर वे दहेज रूपी भस्मासुर को वर पक्ष के पीछे लगा देते हैं। फिर होता है एक नया खेल, थोड़ी सी अनबन होने पर वे अपने मोहित मंत्र द्वारा अपनी दुहिता (धन कमाने वाली) पुत्री को महिला थानों के मार्फत घर पर बैठाने का जतन करते हैं या अच्छा सौदा पट जाने पर एक जगह से दूसरी जगह, दूसरी से तीसरी जगह कठपूतली की भाँति उसको नाच नचाते हैं। कन्यादान में दी हुई सारी वस्तुएँ भरकर पुनः अपने घर में ले आते हैं, चाहे वे वस्तुएँ नवयुगल के रूप में किसी वैवाहिक सम्मेलन से ही मिली हो। उनका इससे भी उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगले की भी कोई इज्जत होगी। वह स्वयं जैसा है, औरों के लिए भी उनकी ही सोच होती है। वैवाहिक सम्मेलन के आयोजकों को चाहिए कि वे ऐसे तलाकशुदा नवयुगलों के उपहार की राशि अपने ट्रस्ट में पुन जमा कराने की लिखित शर्त अवश्य रखें और दोनों पक्षों के अभिभावकों से उस फार्म पर हस्ताक्षर करवाये जायें, ताकि कोई भी नवयुगल तलाक की स्थिति में जाने से बचे। फिर वे सामान या तो अगले वैवाहिक सम्मेलन के लिए या किसी गरीब परिवार के लिए जो भी आयोजक समिति की ओर से सम्मति बने, दिये जा सकते हैं। लेकिन ऐसे त्याज्य परिवारों को जिन्होंने सम्मेलन में हजारों स्वजनों एवं आगन्तुक विशिष्ट अतिथियों की साक्षी का मान नहीं रखा, उनके पास कदापि ऐसे सम्मेलन के उपहार नहीं रहने चाहिए। क्योंकि उन्होंने ऐसे पवित्र सामूहिक वैवाहिक सम्मेलन पर कलंक के दाग लगा दिया। आज मान-मर्यादा, धर्म-संस्कृति उनके सामने बौने पड़ गए हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि वे निर्बुद्धि हो, बल्कि पढ़े-लिखे, कुलीन खानदान के, धर्म की दुहाई देने वाले, वे ही अधर्म का नाटक करते नहीं हिचकिचाते । महानगरों की बात ही छोड़ो, वहाँ हर घर में आग लगी है। कोई किसी से पूछने वाला तक नहीं।   
    फिर क्या जरूरत है कन्यादान की? सात जन्म के फेरे सात दिनों में ही स्वाहा हो जाते हैं। स्वयं माता-पिता उस अभागी कन्या के दुश्मन बन जाते हैं। फिर कैसा कन्यादान? और कैसा रिश्ता? समाज में इसकी आँच दूर-दूर तक जाती है, सब एक-दूसर के दुश्मन बन जाते हैं। फिर एक-दूसरे के दोष निकालकर विषैले बाणों द्वारा टीका-टिप्पणी होती है। घर की जरा सी बात कोर्ट-कचहा माध्यम से सार्वजनिक गलियारों में पहुँच जाती है। फिर पुलिस-वकीलों के माध्यम से दोनों पक्षों को नौंचा जाता है। ऐसी  विषम परिस्थिति में में भावी पीढी होगी भी कि नहीं, या होगी तो कैसी होगी, इस पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। 

आज शिक्षा का संबंध धर्म से नहीं रहा। नैतिकता के पन्ने न जाने कहाँ गायब हो गये। मनुष्य ऐन केन प्रकारेण धन अर्जित करना चाहता है। दीन-दनियाँ से उसका कोई वास्ता नहीं है। रिश्वत-भ्रष्टाचार उसके कर्म बन गए हैं। लडकों को हम चरित्रवान नागरिक बनाना ही नहीं चाहते, हमें तो उसे कमाऊँ पूत बनाना है। लड़कों को हम पढ़ाते ही इसलिए हैं कि वे किसी प्रकार पैसे कमाने लायक हो जाये। अप्रत्यक्ष रूप से लड़कों को पढ़ाना फिर भी लाजिमी है, ताकि वे अपना आर्थिक दायित्व निभाते हए गृहस्थ 'धर्म' का पालन करा सकें। उनके माध्यम से स्त्री को सुरक्षा एवं संतति का पालन हो सके। पर वे इस धर्म का पालन भी अकेले नहीं कर सकते। इसके लिए उन्हें जीवन संगिनी चाहिए जो एक-दूसरे को पूरक हो। धूप-छाया की भाँति एक-दसरे पर आश्रित हो। 

    लड़कियों को शिक्षा ही इसलिए दी जाती है कि वह अपने पति पर निर्भर न रहे। अपने सास-ससुर की सेवा न करें, स्वयं आत्म निर्भर रहे ताकि जब चाहे तब फटकार लगाती हुए मैके आ जाये। जब स्वयं वह आत्मनिर्भर है तो फिर क्या जरूरत रह जाती है अपने पति की? केवल शारीरिक क्षुधा के लिए? स्थिति तो ऐसी बन रही है कि 'यूज एण्ड थ्रो' की भाँति किसी भी पुरुष को काम में लिया और चलते बनो। मार्केट में 'बी गैप' जैसे कैप्सूल तो है ही, फिर नो टेन्शन। माता-पिता में इस कुकृत्य में सहभागी बन जाते हैं। फिर भी  यदि गर्भ ठहर जाता है, पढ़ने के नाम पर माता-पिता तो दूर है ही, कहीं भी भ्रूण को कचरे के ढेर में फेंक दिया और इति श्री।  

    यह क्या हो गया समाज को? क्या यही हमारी संस्कृति रही है? आर्यावृत्त में तो कन्या के रजस्वला होते ही उसके माता-पिता, दादा-दादी को विवाह का चिन्ता सताने लग जाती थी। रजस्वला के दो-तीन वर्ष उपरांत उसका विवाह कर दिया जाता था, जो तकरीबन सोलह वर्ष तक हो जाया करता था। 

 त्रीणि वर्षाण्युदिक्षेत कुमारयुतुमति सती । ऊर्ध्व तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम।।       (मनु.९/९०)

    अर्थात् कन्या के रजस्वला होने के तीन वर्ष पश्चात् पति को प्राप्त करना चाहिए, इस प्रमाण से उसका विवाह 15-16 वर्ष में अवश्य हो जाना चाहिएयद्यपि सरकार ने परिपक्वता मानते हुए लड़की के विवाह की आयु 18 वर्ष कर दी, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन फिर भी निर्लज्ज माता-पिता की आँखें 24-25 वर्ष तक भी नहीं खुलतीधिक्कार है ऐसे माता-पिता को। 

    आजकल यह पढ़ाई लड़कियों के लिए चक्रव्यूह है, जिसमें उनके रोजमर्रा में काम आने वाली यथा-चौका बरतन, पाक कला, शिशु पालन, गौपालन, आतिथ्य सत्कार, घरेलू चिकित्सा, खानपान सब गौण है, बल्कि अल्हड़ युवावस्था में पढ़ाई के नाम पर उसको परिवार से अलग कर दिया जाता है, फिर धीरे-धीरे वह कई उच्च मानक उपाधियों से विभूषित हो जाती है, हो सकता है लड़कियों के आरक्षण के नाम पर उसको सरकारी नौकरी भी मिल जाएवह ऐसे दुश्चक्र में घुस जाती है कि योग्यता के नाम पर समाज के 90 प्रतिशत लड़कें उसके लिए खारिज कर दिये जाते हैंयोग्यता के नाम पर यदि कहीं उसको समाज में सरकारी नौकरीशुदा लड़का मिल भी जाता है तो उसकी मुंहमांगी बोली लगाई जाती है, यदि इसमें भी सफल हो जाते हैं तो लड़की के नौकरी करने की शर्त थोप दी जाती है और बाद में यदि लड़कों के परिजन नौकरी नहीं कराते हैं तो वह विवाह तलाक में बदल जाता हैसरकारें, कोर्ट-कचहरियाँ, महिला आयोग लड़की का जमकर पक्ष लेती है, अन्त्वागत्वा वही स्थिति बन जाती है, थूंको और चाटो। कोई भी संस्थाएँ समाज में शादी कराने की गारन्टी नहीं देती है

    कुछ माता-पिता तर्क देते हैं कि लड़की पढ़ी-लिखी है तो किसी प्रकार का हादसा घट जाने पर वह कमा लेगी, हमारे ऊपर बोझ नहीं रहेगीयह माता-पिता की संकीर्ण सोच है, उनको अपने पैसे की क्षति होते दिखती है, पर वे यह नहीं सोच पाते कि विधवा हो जाने पर जवानी में वह अपने दिन कैसे निकाल पायेगी? क्यों नहीं उसका पुनर्विवाह कर दिया जायेफिर क्या आवश्यकता रह जाती है उसको अर्थार्जन के दुश्चक्र में डालने की, पुनर्विवाह होने पर पुनः उसके पति का दायित्व प्रारंभ हो जाता है

    हमने यह भी देखा है कि जो कामकाजी महिला है, उनके पति उन पर एक नया पैसा खर्च नहीं करते हैं, बल्कि उन पैसों को लेकर हमेशा तनातनी रहती हैऐसी महिला संयुक्त परिवामें टिक ही नहीं पाती, पति भी उससे कन्नी काटने लगता है, फिर रिश्तेदार समाज तो बहुत दूर की बात है। 

    माता-पिता को चाहिए, अपनी बिटिया की 18 से 21 वर्ष के बीच विवाह कर अपना दायित्व निभाये। इसके लिए आगे होकर पहल करें, जिससे आपको यह शिकायत का मौका मिले कि इनके परिजनों ने पहले हमसे बात की और आज हमारी बिटिया दुःख पा रही हैसुख-दुख केवल मन की अनुभूति हैसेवा ही वह कार्य है जिसके सहारे बहू अपने पति को ही नहीं, सास-ससुर एवं रिश्तेदारों की भी लाडली बन सकती है। 

     यदि समाज में 25 वर्ष का कोई भी नवयुवक या नवयुवती अविवाहित है तो धिक्कार है समाज कोयदि शादीशुदा युवती है तो उसे किसी भी परिस्थिति में मैके नहीं रोके, अन्यथा समाज में कोई सी भी अवांछनीय घटना घट सकती हैफिर देर किस बात की? देवउठनी एकादशी समीप हैआपके देवता भी अब जग जाने चाहिए। 

                        समय पर शादी-मन की आजादी 

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