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शनिवार, 6 जून 2020

हे जगन्माता!


                         क्षीयन्ते च यदाधर्मा, अधर्माश्चोल्लसन्ति च। तदावतारं गच्छन्तयै, दधिमथ्यै नमोऽस्तुते।।
                        गो-विप्र-सुर रक्षार्थ या लोकेऽवतरत्यरम्। नताः स्मसतवाम् वयं देवी दधिमथ्यै नमोऽस्तुते।।
    (जब-जब धर्म का नाश एवं अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब अवतार लेने वाली हे दधिमथी माँ तुम्हें प्रणाम हो । गौ, ब्राह्मण और देवताओं की रक्षा के लिए संसार में अवतार लेने वाली हे दधिमथी तुम्हें प्रणाम हो।)
    हे माँ दधिमथी आज ऐसी ही विषम स्थिति हो गई है। गौ, ब्राह्मण ओर देवताओं से इस संसार का विश्वास उठता जा रहा है। क्षीर सागर में दधिमंथन से उत्पन्न होने वाली हे माँ दधिमथी गो माता से उत्पन्न दूध, दही, और घी के दर्शन ही दुर्लभ हो गये हैं। आज गौ माता इन कसाइयों के पाले पड़ गई है, कौन उसको मुक्त करें।
    ब्राह्मण अपना चोला उतार कर स्वधर्म-कर्म छोड़ रहे हैं, अब उन्हें अपने पहचान चिन्ह तिलक यज्ञोपवीत, चोटी रखने में भी शर्मिन्दगी महसूस हो रही है। देवता घर की दीवारों पर विराजमान है। ध्यान, पूजन इस आधुनिक सभ्य समाज की दृष्टि में कोरा दिखावा रह गया है। संत असंतों की श्रेणी में गिने जा रहे | हैं। माया-मोह का चारों ओर डेरा दिखाई दे रहा है। विभिन्न प्रिन्ट ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से धर्म की आस्था पर करारी चोट की जा रही है। वैसे भी हिन्दू धर्म जातिगत वैमनस्यता से खंडित-खंडित है, आज विभिन्न चैनल उसका जर्रा-जर्रा किये जा रहे हैं।
    क्या किसी एक शिक्षक, संत या नेता के व्यभिचारी होने से संपूर्ण शिक्षक, संत या नेता से विश्वास उठ जायेगा? ये तीनों ही समाज के मार्ग दृष्टा है। इन तीनों की ही अस्मिता में उदारमना, पवित्रता और सद्विचारों की त्रिवेणी बहती है और बहनी भी चाहिए। ये अपने सदाचरण से समाज को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। सदाचरण की दुहाई देने वाला ये बेलगाम मीडिया विभिन्न चैनलों के विज्ञापनों के माध्यम से परिवार को कैसे-कैसे दृश्य दिखाता है, जिसको परिवार में माता-पिता एवं बच्चे-बच्ची एक साथ बैठकर नहीं देख सकते। आज तंत्र-मंत्र, लूट डकेती, हत्या एवं विभिन्न व्यसन एवं अशीलता का भौंडा प्रदर्शन कर इस सभ्यता को कुत्सित रूप देने में यह मीडिया एक बहुत बड़ा कारक है।
    आज अन्धविश्वास को लेकर बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही है। समस्त वसुधा इसी विश्वास पर टिकी हुई है । माता-पिता अपने बच्चे-बच्चियों को शिक्षा प्राप्ति के लिए गुरू को समर्पित कर देते हैं। एक मरीज रोग मुक्त होने के लिए अपन आपको डॉक्टर को समर्पित कर देता है, चाहे वह कैसी भी दवायें लिखे, उनके बारे में न जानते हुए भी उसी विश्वास भाव से ग्रहण करता है। एक नवदुल्हन अपने मैके का सारा सुख वैभव छोड़कर अपना तन-मन-धन अपने पति परमेश्वर के हवाले कर देती है। समाज का हर वर्ग हिन्दु, मुस्लिम सिख, ईसाई, जैन, बाौद्ध आदि अपने-अपने तरीके से उसी विश्वास के बलबूते अपने स्वधर्म को अंगीकार करते हैं। सभी धर्मों का मकसद तन-मन को स्वस्थ रखने के लिए ही है। मुस्लिम भाई नमाज के द्वारा तो हिन्दु संध्या-प्राणायाम के द्वारा ही अपने आप को स्वस्थ रख धर्म का निर्वाह रख पाते हैं। धर्म में धन का तो कहीं स्थान ही नहीं है। जीवन निर्वाह के अलावा शेष धन त्याग की वस्तु है। फिर ये कौन से अंधविश्वास की बात हो रही है?
    संसार की डगर पर किस चोले में कौन खड़ा है, इसकी अनुभूति तो प्रत्यक्षतः ही होती है। अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग अरमान है, ये उसकी आत्म संतुष्टि हो सकती है। सबको अपने-अपने कर्मों की सजा भुगतनी ही पड़ती है। में यहां संविधान द्वारा प्रदत्त कानून की बात नहीं कर रहा हूँ, इसमें आये दिन प्रतिक्षण बदलाव होते रहते हैं, इससे आगे भगवान के घर में भी कानून है, देर-सवेर उसको भुगतना ही पड़ता है। यह हमारा विश्वास है, इसे आप विश्वास कहे या अंध विश्वास यह हमारी आत्मा से जुडी हुई अनुभूति है। आज भी बड़े से बड़ा डॉक्टर, जज, नेता या कोई भी बड़ा अधिकारी भी अपने इष्टप्रभू को सिर नवाये बिना आगे नहीं बढ़ता, उस माटी की मूरत में ही उसका आत्म विश्वास झलकता है। क्या यह भी उसका अंध विश्वास है?
    हमने शास्त्रों की घोर उपेक्षा की है। हम धर्म सम्मत नहीं चल रहे हैं। अपने आपको अपंग बनाने में हम विभिन्न सरकारों द्वारा बांटी गई रेवड़ियों को बड़े इत्मिनान से ग्रहण कर रहे हैं। माँ दधिमथी स्वरूपा देवियां भी अपनी बसी बसाई घर-गृहस्थी को छोड़कर उन रेवड़ियों को प्राप्त करने के लिए उस जमात में कश्तम पछाड कर रही है। हे जगन्माता ! आप तो स्वयं मार्ग दृष्टा है, आपका स्थान यहां नहीं है, आप तो मंत्र बीज बोने वाली सशक्त हमारे कुल की गरिमा हैं। आश्चर्य है, आज कोर्ट-कचहरियां जहां आपका वास नहीं था, विवाह विच्छेद के माध्यम से नवयुवतियों को, यौन शोषण के नाम पर नाबालिक कन्याओं को, संपत्ति बंटवारे के नाम पर, भाई के विरूद्ध बहिन को न्याय करने के लिए जोर-शोर से पुकार रहा है। क्या वहां जाने से उस परिवार की गरिमा नष्ट नहीं होगी? वैसे भी न्याय में विलंब होने से वहां अन्याय ही सिद्ध हो रहा है।
    शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है-
                      बालया वा युवत्यावा वृद्धया वापियोषिता। न स्वातंत्र्येण कर्तव्यं किञ्चित कार्यं गृहेष्वपि।।
                     बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने। पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत स्त्री स्वतंत्रताम्।।
(मनु.५/१४७-१४८)
 
    (अर्थात् बालिका, युवती एवं वृद्धा को भी स्वतंत्रता से बाहर नहीं फिरना चाहिए एवं घरों में भी कोई कार्य स्वतंत्र होकर नहीं करना चाहिए। बाल्यावस्था में स्त्री पिता के वश में, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के मर जाने पर पुत्रों के अधीन रहे। इसी में उनका मंगल है।)
    अंत में, मैं यही कहूंगा कि कलयुग की काली छाया दिन प्रतिदिन उभर रही है। माया-मोह से ग्रसित मानव बारूदी सुरंग के विध्वंस की कगार पर है। न जाने हमें कितने जन्म लेकर इस काली छाया की करतूतों से अपना आमना-सामना करना पड़ेगा। अब हमें आदि शक्ति मां भगवती की ही शरण में जाना चाहिए वह ही हमें तार सकती है।
                सर्वमङ्गल मङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।  
                    शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते।।
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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

मकड़जाल

                                     
    कहत कबीर सुणो भाई साधो, उलट जम की फाँसी ।।
यह संसार नश्वर है, मकड़जाल है। इसमें उलझ-उलझ कर मर जाना है। जिस प्रकार पक्षी अपने घरोन्दा से उड़कर खेतों में दाना चुगने के लिए जाते हैं, संध्या वक्त वे उड़कर अपने घरोंदे में लौट आते हैं। घरोंदा उनका परमाश्रय है, रात को भगाने से भी पक्षी उसे छोड़ नहीं सकते। हमारा घरोन्दा (परमतत्व/परमधाम/मोक्षं) है। हम घरोन्दे से निकल पड़े हैं, किसी मुख्य कार्य के लिए, लेकिन हम कोई योनियों में भटकते-भटकते मुख्य उद्देश्य को भूल जाते हैं। और हमारा घरोन्दा (मोक्ष धाम) पीछे छूट जाता है। 
वैसे तो हर बड़े कस्बे में मोक्ष धाम बने हैं, पर वह वास्तव में मोक्षधाम नहीं हैं, केवल वहाँ अचेतन शरीर को इस मिट्टी में कायाकल्प करते हैं। सभी को वहाँ जाना है। आत्मा बेचारी भटकती रहती है पुनः देह पाने के लिए। उसको अभी परमधाम(मोक्ष)नहीं मिला है। मोहासिक्त परिजन कुछ समय के लिए रोना रोते हैं। हमारी आँखें भी कुछ पलों के लिए नम हो जाती है। विडम्बना है जनाजे में चलने वाले अधिकाँश व्यक्तियों की श्मशान स्थल पर अलग-अलग झुण्डों में महफिलें लगती है। कोई राजनीति में उलझा है, कोई हास्य-व्यग्य के चटपटे किस्से सुना रहा है। बड़े-बड़े महानगरों में तो जनाजियों को चाय की चुस्की, बीड़ी-सिगरेट, जरदा-गुटका खाकर इस धरती माँ को गुलाल रंगते हुए देखा है और हम कर्त्तव्य पथ से पदच्यूत हो जाते हैं। 
आप ही सोचो! क्या वह मोक्षधाम है? हम वहाँ जाकर भी राग-द्वैष क्यों नहीं भूल पाते हैं? हमारा चिंतन आध्यात्मिक क्यों नहीं बन पाता? पुनः अलग-अलग योनियों में भटकने के लिए हमारा भटकाव बना रहता है। 
बचपन में हम छोटे थे, पिताजी बाजार से कोई सामान मंगवाते। हम हाथों से मोटर ड्राईवर की भाँति हैंडिल बनाते, मुँहसे गाड़ी की पों-पो, पी-पी, दायें-बायें, बाये-दायें मंडराते हुए दौड़ लगाते हुए सामान लेने पहुँचते। बाजार के मध्य जाते-जाते उस सामान की सुधि ही नहीं रहती कि हम क्या लेने आये हैं? अब क्या करें? सोचते एक बार फिर पिताजी के पास जाना पड़ेगा, डाट-डपट सहनी पड़ेगी। फिर दुबारा जाकर सामान लेने निकलते, वही हालत हमारी इस समय है, हमें पुनः परमात्मा की फटकार सहनी पड़ेगीं। हमें कई योनियों में भटकते-भटकते ये मानव देह मिली है, सत्कार्य करने के लिए। लेकिन हम तो मकड़जाल में ऐसे उलझे हैं कि हमें हमारे मुख्य प्रयोजन की ही सुधि नहीं रही।
सोचते हैं, यह लड़का आवारा है, इसकी बहू तेज तर्रार है। यह बहू अच्छी है तो यह लड़का बदचलन है। यह बहू चल जायेगी तो पौत्र-पौत्री के बिना हमारा मन कैसे लगेगा? यह लड़का हमारे पास रहेगा तो हमें अलग-थलग कर देगा। किसी को दुःख है कि मेरे पुत्र-पुत्रादि नहीं, किसी को दुःख है मेरे केवल पुत्रियाँ ही है, वंश कैसे चलेगा? किसी को दुःख है, मेरे पुत्र कँवारे हैं, मेरे दायित्व अभी पूरे हुए ही नहीं। कोई सोचता है, बिना संतति मेरा गुजारा कैसे चले? मुझे कौन संभाले? ऐसे कई यक्ष प्रश्न एवं चिन्तादि हैं जिनको एक-एक हल करते-करते कई सैंकड़ों यक्ष समस्याओं से पाला पड़ता रहता है, हमारी जिन्दगी पल-पल क्षय होती रहती है। हम अपने आपको असहाय महसूस करते रहते हैं।
दुकानदार सोचता है, लाईट नहीं आ रही, मजदूर फालतू बैठे हैं, जी.एस.टी. की वजह से काम दुगना बढ़ गया है, कहीं कमी रह गई तो लेने के देने पडेंगे। कैसे गुजारा हो, कैसे रोटीका जुगाड़ हो? किसान सोचता है, आज पैसा नहीं है डीजल कैसे लाऊँ, पानी कैसे पिलाऊँ? जितना यूरिया, डीएपी खाद डाली, उतनी ही पौधों में बीमारियाँ हो गई, ऊपर से जमीन बंजड़ अलग हो गई। अन्न भी प्रदुषित हो गया।करे तो क्या करे? वह भी सरकार की ओर मोहताज है। जितनी अधिक सब्सिडी, उतना अधिक मोहताज। राजनेता भी दुःखी, इस बार पार्टी नहीं आई तो विरोधी पार्टी हमारी बाल की खाल उधेडेंगे। कैसे भी हो ‘साम-दाम-दण्ड भेद’ विरोधी पार्टी सत्ता पर काबिज नहीं होनी चाहिए। आखिरी समय में ऐसी-ऐसी घोषणा करे, जिस पर रोजगार के लिए युवा, सब्सिडी के लिए किसान, नारी शक्ति के लिए महिला और आरक्षण के लिए दलितों को रिझाना है। कहीं साम्प्रदायिक दंगें भड़का देंगे ताकि जनता भटक जाये और उनको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा कर लेंगे।
जितनी ज्यादा आवश्यकता, उतना आदमी दुःखी, उतना अधिक लाचार। पहले आदमी मोटा-झोटा अन्न खा लेता, अपने तन को मोटे-झोटे वस्त्र से ढक लेता और कच्चा-पक्का आश्रय स्थल बनाकर उसमें बसेरा कर लेता। हर कार्य अपने हाथ-पैरों से करता। उसकी तन्दुरस्ती बनी रहती। आज मनुष्य लाचार व दुःखी बन गया है। वह मशीनरी का पराधीन बन गया है। सोचता है, पूरी दुनियाँ को मुट्ठी में कर लूँ। मोबाईल नेटों में ऐसा उलझा है, उसे अपने तन की सुधि नहीं, परिजनों की वह क्या सुधि लेगा? समाज देश तो बहुत पीछे छूट गए।, आत्मा-परमात्मा के बारे में तो वह सोच ही नहीं सकता, उस पर तो पटाक्षेप ही लग गया। 
यही सांसारिक जाल है, यही मकड़जाल है। अन्तोगत्वा इसमें उलझ-उलझ कर मार जाना ही है। अधिकाँश मौतें आजकल असामयिक ही होते हैं। कुछ एक्सीडेन्ट में तो कुछ बिजली के करंट से, कुछ दंगों में तो कुछ आत्महत्याओं से, कुछ कैंसर से कुछ हार्ड अटैक से। आज तो हर तरफ प्रदूषण आतंकवाद, नशाखोरी का जाल बिछा हुआ है, जिसमें इन्सान ही नहीं, अपितु मूक जीव-जन्तुओं को भी यही दुःखद स्थिति है। आज मनुष्य शतायु तक तो पहुँच ही नहीं पाता। भगवान को भजते-भजते स्वाभाविक मौत तो बहुत दुर्लभ हो गई है।
हमें मकड़जाल से छूटना है, आवागमन के बंधन तोड़ने हैं, परमधाम/परमाश्रय(मोक्ष) को प्राप्त करना है तो अभी से परोपकारी चिंतन प्रारंभ कर दे, आत्मकल्याण का रास्ता चुन लें, यमराज की फाँसी का फंदा खुद ब खुद टूट जायेगा। ऐसा नहीं हो कि ‘अब पछताये होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत’ वाली कहावत हमारे ऊपर ही चरितार्थ हो जायें और हम हाथ मलते-मलते ही इस संसार से विदा हो जाये। हमारे कर्म बंधन हमें पुनः इस मृत्युलोक की त्रासदी में संताप सहने के लिए पलायन कर दे। हमें हमारा जीवन इस तन को नीरोग रखते हुए समाज, देश, प्रकुति-जीवजन्तु आदि के परोपकार में लगाना है। यही आत्मकल्याण का मार्ग है तभी हम मकड़जाल से छूट सकते हैं।
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