क्षीयन्ते च यदाधर्मा, अधर्माश्चोल्लसन्ति च। तदावतारं गच्छन्तयै, दधिमथ्यै नमोऽस्तुते।।
गो-विप्र-सुर रक्षार्थ या लोकेऽवतरत्यरम्। नताः स्मसतवाम् वयं देवी दधिमथ्यै नमोऽस्तुते।।
(जब-जब धर्म का नाश एवं अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब अवतार लेने वाली हे दधिमथी माँ तुम्हें प्रणाम हो । गौ, ब्राह्मण और देवताओं की रक्षा के लिए संसार में अवतार लेने वाली हे दधिमथी तुम्हें प्रणाम हो।)हे माँ दधिमथी आज ऐसी ही विषम स्थिति हो गई है। गौ, ब्राह्मण ओर देवताओं से इस संसार का विश्वास उठता जा रहा है। क्षीर सागर में दधिमंथन से उत्पन्न होने वाली हे माँ दधिमथी गो माता से उत्पन्न दूध, दही, और घी के दर्शन ही दुर्लभ हो गये हैं। आज गौ माता इन कसाइयों के पाले पड़ गई है, कौन उसको मुक्त करें।ब्राह्मण अपना चोला उतार कर स्वधर्म-कर्म छोड़ रहे हैं, अब उन्हें अपने पहचान चिन्ह तिलक यज्ञोपवीत, चोटी रखने में भी शर्मिन्दगी महसूस हो रही है। देवता घर की दीवारों पर विराजमान है। ध्यान, पूजन इस आधुनिक सभ्य समाज की दृष्टि में कोरा दिखावा रह गया है। संत असंतों की श्रेणी में गिने जा रहे | हैं। माया-मोह का चारों ओर डेरा दिखाई दे रहा है। विभिन्न प्रिन्ट ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से धर्म की आस्था पर करारी चोट की जा रही है। वैसे भी हिन्दू धर्म जातिगत वैमनस्यता से खंडित-खंडित है, आज विभिन्न चैनल उसका जर्रा-जर्रा किये जा रहे हैं।क्या किसी एक शिक्षक, संत या नेता के व्यभिचारी होने से संपूर्ण शिक्षक, संत या नेता से विश्वास उठ जायेगा? ये तीनों ही समाज के मार्ग दृष्टा है। इन तीनों की ही अस्मिता में उदारमना, पवित्रता और सद्विचारों की त्रिवेणी बहती है और बहनी भी चाहिए। ये अपने सदाचरण से समाज को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। सदाचरण की दुहाई देने वाला ये बेलगाम मीडिया विभिन्न चैनलों के विज्ञापनों के माध्यम से परिवार को कैसे-कैसे दृश्य दिखाता है, जिसको परिवार में माता-पिता एवं बच्चे-बच्ची एक साथ बैठकर नहीं देख सकते। आज तंत्र-मंत्र, लूट डकेती, हत्या एवं विभिन्न व्यसन एवं अशीलता का भौंडा प्रदर्शन कर इस सभ्यता को कुत्सित रूप देने में यह मीडिया एक बहुत बड़ा कारक है।आज अन्धविश्वास को लेकर बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही है। समस्त वसुधा इसी विश्वास पर टिकी हुई है । माता-पिता अपने बच्चे-बच्चियों को शिक्षा प्राप्ति के लिए गुरू को समर्पित कर देते हैं। एक मरीज रोग मुक्त होने के लिए अपन आपको डॉक्टर को समर्पित कर देता है, चाहे वह कैसी भी दवायें लिखे, उनके बारे में न जानते हुए भी उसी विश्वास भाव से ग्रहण करता है। एक नवदुल्हन अपने मैके का सारा सुख वैभव छोड़कर अपना तन-मन-धन अपने पति परमेश्वर के हवाले कर देती है। समाज का हर वर्ग हिन्दु, मुस्लिम सिख, ईसाई, जैन, बाौद्ध आदि अपने-अपने तरीके से उसी विश्वास के बलबूते अपने स्वधर्म को अंगीकार करते हैं। सभी धर्मों का मकसद तन-मन को स्वस्थ रखने के लिए ही है। मुस्लिम भाई नमाज के द्वारा तो हिन्दु संध्या-प्राणायाम के द्वारा ही अपने आप को स्वस्थ रख धर्म का निर्वाह रख पाते हैं। धर्म में धन का तो कहीं स्थान ही नहीं है। जीवन निर्वाह के अलावा शेष धन त्याग की वस्तु है। फिर ये कौन से अंधविश्वास की बात हो रही है?संसार की डगर पर किस चोले में कौन खड़ा है, इसकी अनुभूति तो प्रत्यक्षतः ही होती है। अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग अरमान है, ये उसकी आत्म संतुष्टि हो सकती है। सबको अपने-अपने कर्मों की सजा भुगतनी ही पड़ती है। में यहां संविधान द्वारा प्रदत्त कानून की बात नहीं कर रहा हूँ, इसमें आये दिन प्रतिक्षण बदलाव होते रहते हैं, इससे आगे भगवान के घर में भी कानून है, देर-सवेर उसको भुगतना ही पड़ता है। यह हमारा विश्वास है, इसे आप विश्वास कहे या अंध विश्वास यह हमारी आत्मा से जुडी हुई अनुभूति है। आज भी बड़े से बड़ा डॉक्टर, जज, नेता या कोई भी बड़ा अधिकारी भी अपने इष्टप्रभू को सिर नवाये बिना आगे नहीं बढ़ता, उस माटी की मूरत में ही उसका आत्म विश्वास झलकता है। क्या यह भी उसका अंध विश्वास है?हमने शास्त्रों की घोर उपेक्षा की है। हम धर्म सम्मत नहीं चल रहे हैं। अपने आपको अपंग बनाने में हम विभिन्न सरकारों द्वारा बांटी गई रेवड़ियों को बड़े इत्मिनान से ग्रहण कर रहे हैं। माँ दधिमथी स्वरूपा देवियां भी अपनी बसी बसाई घर-गृहस्थी को छोड़कर उन रेवड़ियों को प्राप्त करने के लिए उस जमात में कश्तम पछाड कर रही है। हे जगन्माता ! आप तो स्वयं मार्ग दृष्टा है, आपका स्थान यहां नहीं है, आप तो मंत्र बीज बोने वाली सशक्त हमारे कुल की गरिमा हैं। आश्चर्य है, आज कोर्ट-कचहरियां जहां आपका वास नहीं था, विवाह विच्छेद के माध्यम से नवयुवतियों को, यौन शोषण के नाम पर नाबालिक कन्याओं को, संपत्ति बंटवारे के नाम पर, भाई के विरूद्ध बहिन को न्याय करने के लिए जोर-शोर से पुकार रहा है। क्या वहां जाने से उस परिवार की गरिमा नष्ट नहीं होगी? वैसे भी न्याय में विलंब होने से वहां अन्याय ही सिद्ध हो रहा है।शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है-
बालया वा युवत्यावा वृद्धया वापियोषिता। न स्वातंत्र्येण कर्तव्यं किञ्चित कार्यं गृहेष्वपि।।
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने। पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत स्त्री स्वतंत्रताम्।।
(मनु.५/१४७-१४८)
(अर्थात् बालिका, युवती एवं वृद्धा को भी स्वतंत्रता से बाहर नहीं फिरना चाहिए एवं घरों में भी कोई कार्य स्वतंत्र होकर नहीं करना चाहिए। बाल्यावस्था में स्त्री पिता के वश में, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के मर जाने पर पुत्रों के अधीन रहे। इसी में उनका मंगल है।)अंत में, मैं यही कहूंगा कि कलयुग की काली छाया दिन प्रतिदिन उभर रही है। माया-मोह से ग्रसित मानव बारूदी सुरंग के विध्वंस की कगार पर है। न जाने हमें कितने जन्म लेकर इस काली छाया की करतूतों से अपना आमना-सामना करना पड़ेगा। अब हमें आदि शक्ति मां भगवती की ही शरण में जाना चाहिए वह ही हमें तार सकती है।सर्वमङ्गल मङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।
शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते।।
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