हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना जयपुर का रिजर्वेशन करवा लिया।
रणथंभौर एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर बेटा भी बैठ गया। साथ वाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थी। कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल रजत देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, ''मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न जयपुर में, मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा।''
पापा के स्वर की आद्रता पर तो बेटे का ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन बेटा खीझ उठा, बेटे ने कहा कि कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे 'मुन्ना" न कहा करें, 'रजत" पुकारा करें, अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूँ। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊंचा कद है, मान-सम्मान है, बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा, बेटा तनिक जोर से बोला, 'पापा, परसों मेरी गुजरात के गर्वनर के साथ मीटिंग है, मैं जयपुर में कैसे रुक सकता हूँ।"
पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गई। मैं उनसे कुछ कहता, तभी बेटे का मोबाइल बज उठा, फोन लाउड पर था, सभी सुन रहे थे, पुत्रवधु का फोन था, भर्राए स्वर में वह कह रही थी, 'पापा ठीक से बैठ गए न?"
'हाँ हाँ बैठ गए है, गाड़ी भी चल पड़ी है। 'देखो, पापा का ख्याल रखना, रात में मेडिसिन दे देना, भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना, पापा को वहाँ कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए।
'नहीं होगी।" बेटे ने फोन काट दिया। पिता ने पूछा कि रितु का फोन था न? मेरी चिंता कर रही होगी।
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी मेड़ता स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाजा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख बेटे को बेहद आश्चर्य हुआ और एकदम से कहा कि मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाकात होगी। अब रजत अतीत को याद कर कहने लगा कि एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाजी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी। शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया। रजत ने कहा कि दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा, कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफी लोग बैठे हुए थे, बिना उनकी ओर नजर उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था कि यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, 'रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया, पहचाना मुझे मैं रमाशंकर।"
मैं सकपका गया, फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों के सम्मुख उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे खल रहा था, वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाखिल हुआ तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था, उसका मुझे 'सर" कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुजारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया।
कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा, हुंह, आज मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया और वह...। पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल रजत वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर उनके करीब बैठ गया, एक उड़ती सी नजर उस पर डाल रजत ने अखबार पर आंखें गड़ा दी, तभी रमाशंकर बोला, 'नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।" रजत ने नम्र स्वर में पूछा, 'कैसे हो रमाशंकर?"
'ठीक हूँ सर।"
'मेड़ता कैसे आना हुआ?"
'छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था, अब जयपुर जा रहा हूँ , शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था, 'छोटा भाई, हाँ याद आया, क्या नाम था उसका?" रजत ने स्मृति पर जोर डालने का उपक्रम किया, जबकि उसे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था।
'सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं, आए दिन हजारों लोगों से मिलते हैं, आपको कहाँ याद होगा, देवेश नाम है उसका सर।"
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला, 'देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो, हाँ तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश जयपुर में है।"
'हां रजत, उसने वहां मकान खरीदा है, दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है। चार-पांच दिन वहाँ रहकर मैं और अम्मा जोधपुर लौट आएंगे।"
'इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो।"
'अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी, इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न?" 'हाँ, यह तो है, पिताजी कैसे हैं? रजत ने पूछा, तब रमा शंकर ने कहा कि पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था, अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती है, अब तो अल्जाइमर भी बढ़ गया है।
'तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा? क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे? ऐसा पूछकर रजत शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था।"
आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, 'नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से जोधपुर में रही हैं। उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए। कभी इधर, तो कभी उधर, कितनी पीड़ा होगी, उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा। वह हम पर बोझ हैं।
रजत मुस्कुराया, 'रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए, जीवन में सिर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है।" अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों माँ-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे?"
'पता नहीं रजत, मैं जरा पुराने विचारों का इंसान हूँ, मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है। कोई भी काम मुश्किल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए।" माँ-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कत्र्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं। समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाएए तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए, 'मैं दोनों के बीच का संवाद सुन रहा था कि अचानक रजत को ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने उसके मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। रजत नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद रजत की आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें दिलोदिमाग में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका। क्या इतना बड़ा मुकाम मैंने सिर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है, नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है। रजत ने मुझे बताया, तब मैंने उसे कहा कि धैर्य से काम लो, परन्तु रजत निरन्तर बोल कर मुझे अपनी बात बता रहा था ..आखिर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए, मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर कदम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की जरूरत है तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूँ, दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं।
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज से मेरे पांव ठिठक गए।" मम्मी पापा से कह रही थीं, 'इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोडऩा चाह रहे हैं।"
'मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?
पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, 'आपकी तरफ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूँ। रजत और रितु आपका बहुत ख्याल रखेंगे, यह एक माँ के अंतर्मन की आवाज है, उसका विश्वास है जो कभी गलत नहीं हो सकता।"
इस घटना के पाँच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा, बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूँ भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए। अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊ? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाए? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे, पापा को जब इस बात का पता चला तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की जोधपुर में गुजरी थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका वक्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु... सोचते-सोचते रजत ने एक गहरी सांस ली।
आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू पूरी रात तकिया भिगोते रहे। उफ यह क्या कर दिया मैंने? पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया। आज वह जहाँ कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, रजत को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती, वह तो दिल में होती है। अचानक रजत को एहसास हुआ कि मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाजी मार ले गया था, पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का कद मुझसे बहुत ऊंचा था।
गाड़ी जयपुर पर रुकी तो रजत रमाशंकर के करीब पहुंचा। उसके दोनों हाथ थाम भावुक स्वर में बोला, 'रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूँ, यह सफर सारी जिंदगी मुझे याद रहेगा।" कहने के साथ ही रजत ने उसे गले लगा लिया। मुझे भी जाना था, परन्तु मैंने देखा कि आश्चर्यमिश्रित खुशी से रमाशंकर रजत को देख रहा था। रजत बोला, 'वादा करो, रमाशंकर अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे?"
'आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।" खुशी से उसकी आवाज कांप रही थी। अटैची उठाए पापा के साथ रजत नीचे उतर गया। रजत ने जाते जाते मुझे प्रणाम किया और घर आने का आग्रह किया। अब दोनों बाहर आकर एक ही टेक्सी से मानसरोवर जाने का मैंने रजत को कहा तो वह बोला अंकल मुझे एयरपोर्ट जाना है।
रजत ने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, 'एयरपोर्ट क्यों?"
भावुक होकर रजत पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, 'पापा, मुझे माफ कर दीजिए, हम वापिस जोधपुर जा रहे हैं, अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।"
पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा। 'जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।"
वह बुदबुदाए, कुछ पल के लिए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा, रजत को ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हो, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला पूजा।
मैंने भी रजत और उसके पापा से विदा ली और विश्वास दिलाया कि माँ का विश्वास कभी निरर्थक और झूंठा नहीं हो सकता।
द्वारा- रामगोपाल शर्मा (जन सम्पर्क अधिकारी), जोधपुर
जवाब देंहटाएंकहानी प्रेरणास्पद है ।
विदेशों में गये बच्चे लौट कर नहीं आते ।
ज्यादातर संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
भौतिकता में आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई है।
स्वार्थ संकीर्ण होता हुवा वसुदेव कुटुम्बकम से राष्ट्र राज्य जिला गांव कस्बे से होता हुवा समाज परिवार से 'मैं' तक पहुँचने की होड मे लगा है ।
परमात्मा की कृपा हो ऐसे विषम समय में कहानी के माध्यम से इतनी छोटी सी बात समझ आ जाये की बच्चों में जैसे जान झोंकते है उससे कम में ही परिवार के वरिष्ठ सदस्यों व माता पिता की सेवा बन जायेगी । उनका बुढ़ापा सुधर जावेगा । फिर यह समय तो स्वयं के साथ भी आयेगा।
लेकिन सच यह भी है कि यह संक्रमण काल चल रहा है। इसमें कितनों को यह बात समझ में आयेगी ।
फिर गीताजी का दूसरा अध्याय मोह से शोक उत्पन्न होता है।
स्थिति को समझे । स्वयं का जाप्ता रखें। ज्यादा मोह माया में न फंसे , आशायें न रखें। सच को स्वीकारें । सभी के घर परिवार नहीं होते । जीवन मिला है तो जीयेंगें ही । झुझारू बनेंगे पलायन नहीं करेंगे।
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