शनिवार, 25 अप्रैल 2020

मकड़जाल

                                     
    कहत कबीर सुणो भाई साधो, उलट जम की फाँसी ।।
यह संसार नश्वर है, मकड़जाल है। इसमें उलझ-उलझ कर मर जाना है। जिस प्रकार पक्षी अपने घरोन्दा से उड़कर खेतों में दाना चुगने के लिए जाते हैं, संध्या वक्त वे उड़कर अपने घरोंदे में लौट आते हैं। घरोंदा उनका परमाश्रय है, रात को भगाने से भी पक्षी उसे छोड़ नहीं सकते। हमारा घरोन्दा (परमतत्व/परमधाम/मोक्षं) है। हम घरोन्दे से निकल पड़े हैं, किसी मुख्य कार्य के लिए, लेकिन हम कोई योनियों में भटकते-भटकते मुख्य उद्देश्य को भूल जाते हैं। और हमारा घरोन्दा (मोक्ष धाम) पीछे छूट जाता है। 
वैसे तो हर बड़े कस्बे में मोक्ष धाम बने हैं, पर वह वास्तव में मोक्षधाम नहीं हैं, केवल वहाँ अचेतन शरीर को इस मिट्टी में कायाकल्प करते हैं। सभी को वहाँ जाना है। आत्मा बेचारी भटकती रहती है पुनः देह पाने के लिए। उसको अभी परमधाम(मोक्ष)नहीं मिला है। मोहासिक्त परिजन कुछ समय के लिए रोना रोते हैं। हमारी आँखें भी कुछ पलों के लिए नम हो जाती है। विडम्बना है जनाजे में चलने वाले अधिकाँश व्यक्तियों की श्मशान स्थल पर अलग-अलग झुण्डों में महफिलें लगती है। कोई राजनीति में उलझा है, कोई हास्य-व्यग्य के चटपटे किस्से सुना रहा है। बड़े-बड़े महानगरों में तो जनाजियों को चाय की चुस्की, बीड़ी-सिगरेट, जरदा-गुटका खाकर इस धरती माँ को गुलाल रंगते हुए देखा है और हम कर्त्तव्य पथ से पदच्यूत हो जाते हैं। 
आप ही सोचो! क्या वह मोक्षधाम है? हम वहाँ जाकर भी राग-द्वैष क्यों नहीं भूल पाते हैं? हमारा चिंतन आध्यात्मिक क्यों नहीं बन पाता? पुनः अलग-अलग योनियों में भटकने के लिए हमारा भटकाव बना रहता है। 
बचपन में हम छोटे थे, पिताजी बाजार से कोई सामान मंगवाते। हम हाथों से मोटर ड्राईवर की भाँति हैंडिल बनाते, मुँहसे गाड़ी की पों-पो, पी-पी, दायें-बायें, बाये-दायें मंडराते हुए दौड़ लगाते हुए सामान लेने पहुँचते। बाजार के मध्य जाते-जाते उस सामान की सुधि ही नहीं रहती कि हम क्या लेने आये हैं? अब क्या करें? सोचते एक बार फिर पिताजी के पास जाना पड़ेगा, डाट-डपट सहनी पड़ेगी। फिर दुबारा जाकर सामान लेने निकलते, वही हालत हमारी इस समय है, हमें पुनः परमात्मा की फटकार सहनी पड़ेगीं। हमें कई योनियों में भटकते-भटकते ये मानव देह मिली है, सत्कार्य करने के लिए। लेकिन हम तो मकड़जाल में ऐसे उलझे हैं कि हमें हमारे मुख्य प्रयोजन की ही सुधि नहीं रही।
सोचते हैं, यह लड़का आवारा है, इसकी बहू तेज तर्रार है। यह बहू अच्छी है तो यह लड़का बदचलन है। यह बहू चल जायेगी तो पौत्र-पौत्री के बिना हमारा मन कैसे लगेगा? यह लड़का हमारे पास रहेगा तो हमें अलग-थलग कर देगा। किसी को दुःख है कि मेरे पुत्र-पुत्रादि नहीं, किसी को दुःख है मेरे केवल पुत्रियाँ ही है, वंश कैसे चलेगा? किसी को दुःख है, मेरे पुत्र कँवारे हैं, मेरे दायित्व अभी पूरे हुए ही नहीं। कोई सोचता है, बिना संतति मेरा गुजारा कैसे चले? मुझे कौन संभाले? ऐसे कई यक्ष प्रश्न एवं चिन्तादि हैं जिनको एक-एक हल करते-करते कई सैंकड़ों यक्ष समस्याओं से पाला पड़ता रहता है, हमारी जिन्दगी पल-पल क्षय होती रहती है। हम अपने आपको असहाय महसूस करते रहते हैं।
दुकानदार सोचता है, लाईट नहीं आ रही, मजदूर फालतू बैठे हैं, जी.एस.टी. की वजह से काम दुगना बढ़ गया है, कहीं कमी रह गई तो लेने के देने पडेंगे। कैसे गुजारा हो, कैसे रोटीका जुगाड़ हो? किसान सोचता है, आज पैसा नहीं है डीजल कैसे लाऊँ, पानी कैसे पिलाऊँ? जितना यूरिया, डीएपी खाद डाली, उतनी ही पौधों में बीमारियाँ हो गई, ऊपर से जमीन बंजड़ अलग हो गई। अन्न भी प्रदुषित हो गया।करे तो क्या करे? वह भी सरकार की ओर मोहताज है। जितनी अधिक सब्सिडी, उतना अधिक मोहताज। राजनेता भी दुःखी, इस बार पार्टी नहीं आई तो विरोधी पार्टी हमारी बाल की खाल उधेडेंगे। कैसे भी हो ‘साम-दाम-दण्ड भेद’ विरोधी पार्टी सत्ता पर काबिज नहीं होनी चाहिए। आखिरी समय में ऐसी-ऐसी घोषणा करे, जिस पर रोजगार के लिए युवा, सब्सिडी के लिए किसान, नारी शक्ति के लिए महिला और आरक्षण के लिए दलितों को रिझाना है। कहीं साम्प्रदायिक दंगें भड़का देंगे ताकि जनता भटक जाये और उनको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा कर लेंगे।
जितनी ज्यादा आवश्यकता, उतना आदमी दुःखी, उतना अधिक लाचार। पहले आदमी मोटा-झोटा अन्न खा लेता, अपने तन को मोटे-झोटे वस्त्र से ढक लेता और कच्चा-पक्का आश्रय स्थल बनाकर उसमें बसेरा कर लेता। हर कार्य अपने हाथ-पैरों से करता। उसकी तन्दुरस्ती बनी रहती। आज मनुष्य लाचार व दुःखी बन गया है। वह मशीनरी का पराधीन बन गया है। सोचता है, पूरी दुनियाँ को मुट्ठी में कर लूँ। मोबाईल नेटों में ऐसा उलझा है, उसे अपने तन की सुधि नहीं, परिजनों की वह क्या सुधि लेगा? समाज देश तो बहुत पीछे छूट गए।, आत्मा-परमात्मा के बारे में तो वह सोच ही नहीं सकता, उस पर तो पटाक्षेप ही लग गया। 
यही सांसारिक जाल है, यही मकड़जाल है। अन्तोगत्वा इसमें उलझ-उलझ कर मार जाना ही है। अधिकाँश मौतें आजकल असामयिक ही होते हैं। कुछ एक्सीडेन्ट में तो कुछ बिजली के करंट से, कुछ दंगों में तो कुछ आत्महत्याओं से, कुछ कैंसर से कुछ हार्ड अटैक से। आज तो हर तरफ प्रदूषण आतंकवाद, नशाखोरी का जाल बिछा हुआ है, जिसमें इन्सान ही नहीं, अपितु मूक जीव-जन्तुओं को भी यही दुःखद स्थिति है। आज मनुष्य शतायु तक तो पहुँच ही नहीं पाता। भगवान को भजते-भजते स्वाभाविक मौत तो बहुत दुर्लभ हो गई है।
हमें मकड़जाल से छूटना है, आवागमन के बंधन तोड़ने हैं, परमधाम/परमाश्रय(मोक्ष) को प्राप्त करना है तो अभी से परोपकारी चिंतन प्रारंभ कर दे, आत्मकल्याण का रास्ता चुन लें, यमराज की फाँसी का फंदा खुद ब खुद टूट जायेगा। ऐसा नहीं हो कि ‘अब पछताये होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत’ वाली कहावत हमारे ऊपर ही चरितार्थ हो जायें और हम हाथ मलते-मलते ही इस संसार से विदा हो जाये। हमारे कर्म बंधन हमें पुनः इस मृत्युलोक की त्रासदी में संताप सहने के लिए पलायन कर दे। हमें हमारा जीवन इस तन को नीरोग रखते हुए समाज, देश, प्रकुति-जीवजन्तु आदि के परोपकार में लगाना है। यही आत्मकल्याण का मार्ग है तभी हम मकड़जाल से छूट सकते हैं।
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