ज्ञान से बुद्धि बढ़ती है, बुद्धि से विवेक जागृत होता है, विवेक से सभी जीव जंतुओं के प्रति दया भावना उदय होती है। आज तो पढ़ाई के औचित्य पर ही सवाल है। हम लड़कों को पढ़ाई इसलिए करवाते हैं कि वे पढ़-लिखकर ईमानदारी से रोजीरोटी कमा सकें। यदि सरकारी नौकरी मिल जाये तो दंद-फंद से जीवन भर का छुटकारा मिल जायें। यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, वैसे भी कमाने का दायित्व लड़कों पर ही है, पर यह समझ से बाहर है कि आखिर हम लड़कियों को क्यों पढ़ा रहे हैं? उनके ऊपर तो अर्थार्जन का ऐसा कोई दायित्व भी नहीं है। आज तो ये लड़कियाँ हर विभाग में आगे से आगे घुसने के लिए तैयार रहती है। प्राईवेट विद्यालय हो या प्राईवेट क्लिीनिक हर जगह लड़कियाँ न्यूनतम पैसे में भी तैयार हो जाती है। वैसे भी शास्त्रोक्तानुसार कमाने का दायित्व तो उन पर है ही नहीं, उन्हें तो केवल अपने सँजने-सँवरने के लिए ही पैसे चाहिए या कुछ अभिभावकों की इच्छा रहती है कि उसके विवाह का खर्चा वे स्वयं निकाल लेगी। इसलिए जब वे शादी लायक हो जाती है उस यौवनावस्था में भी उनके माता-पिता उन्हें पढ़ाई के लिए दूसरे महानगरों में भेज देते हैं। फिर वे कैसे रहती है, क्या करती है, इनसे उनको कोई सरोकार नहीं।
हम यह नहीं कहते कि उनको पढ़ाई नहीं करनी चाहिए, उनको अवश्य पढ़ाई करनी चाहिए पर वह पढ़ाई नहीं, जो उनके रोजमर्रा में काम नहीं आये, बल्कि उनको विशेषत: घर-गृहस्थी को चलाने के लिए जैसे-पाक विद्या, गृह सज्जा, अपने पति से सामंजस्य रखना, पुत्र का पालन-पोषण, सास-ससुर के प्रति सेवा भावना, ननद-देवरानी-जेठानी के प्रति व्यवहार, आगंतुक अतिथियों की सेवा, परिजनों के बीमार पडऩे पर उनकी घरेलू चिकित्सीय जानकारी आदि ऐसी कई विशिष्ट शिक्षा है, जिससे ससुराल में आये दिन पाला पड़ता है। यदि ससुराल वाले प्रसन्न होंगे तो केवल उपरोक्त कलाओं में निपुण गृहिणी से ही होंगे। उनकी यह भौतिक पढ़ाई किसी मायने में कोई वजन नहीं रखती।
पीहर वाले अपनी लड़की को इसलिए पढ़ाते हैं कि यह स्वयं आत्मनिर्भर बन जाये। यहाँ तक कि पैसे के लिए पति पर भी निर्भर नहीं रहे। उनके एक फोन पर अपनी बिटिया दौड़ी-दौड़ी ससुराल की चौखट पर आ धमके। यह केवल और केवल अंध मोह है, जो अपनी बिटिया को ससुराल में अपना अभीष्ट स्थान बनाने से रोकता है। पहले कहा जाता था, 'मैके की कभी ना याद आये, ससुराल में इतना प्यार मिले। पर आज तो पीहर से दिन में दस बार फोन आता है। यदि बिटिया न कर सकें तो माँ ही फोन की घंटी बजा देती है। इससे तो आप स्वयं ही परेशान होंगे। कल कुछ तकरार हुई नहीं कि आपकी बेटी आपके पास। इसका एक कारण यह है कि आपकी बेटी उच्चतर पढ़ी हुई है, पैसे भी कमा रही है, आपके दिमाग में भी है कि वह ससुराल की क्यों सुने? पैसे अलग कमा रही है और सुने अलग, इससे तो अच्छा वह हमारे पास ही रहेगी, पैसा तो वह खुद कमा ही रही है। फिर आप ही सोचे उसकी घर-गृहस्थी बनी कि उजड़ी? यह वही पढ़ाई है, जिसके दंभ पर आपने स्वयं अपनी बिटिया की गृहस्थी बिगाड़ दी।
पहले माता-पिता कहते थे, मेरी बिटिया हर काम में होशियार है, आपको सुख देगी। आज कहा जाता है, यह कुछ भी नहीं जानती, अभी तो हमने इसे रोटी बनाना ही नहीं सिखाया, लाड़-प्यार से पाला है। केवल इसने पढ़ाई ही की है, आप ही बताये ऐसी डिग्रियों का ससुराल वाले क्या करे? और आज तो ये डिग्रियाँ बिना पढ़े ही घर बैठे तक थोक के भाव मिल जाती है। योग्यता का इससे दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है।
एक तरफ युवकों को काम नहीं मिल रहा है, दूसरी तरफ लड़कियों को धड़ाधड़ काम पर लगा रहे हैं, क्या यह बेरोजगार युवकों के कंठों पर बैठने जैसा नहीं है? हम बार-बार लिखते हैं रिटायर्डमेन्ट कर्मचारियों एवं लड़कियों को सरकारी नौकरियों से परहेज रखना चाहिए जिससे युवक बेरोजगार नहीं रहे। इसमें सरकार भी कम दोषी नहीं है। हर रोज हर विभाग में लड़कियों को अधिकाधिक आरक्षण दिया जा रहा है। फिर चाहे उसे अपने ममत्व को दबाना पड़े या तन्हाई जिन्दगी जीना पड़े। यह कहाँ का इंसाफ है? कम से कम उन नवयुगलों को किसी एक को रोजगार बनाने का विकल्प तो दीजिए, अधिकाँशत: वे गृहिणियाँ ही रोजगार के लिए अपने पतियों को ही चुनेगी।
मैं तो यह कहता हूँ कि यदि विधवा होने की स्थिति में भी किसी स्त्री को नौकरी मिल जाती है तो उसके पुत्र के बालिग होने पर, उसे पुत्र को ही नौकरी के लिए आगे करना चाहिए जिससे जिन्दगी भर कमा-कमा कर उसको अपने पुत्र का भरण पोषण तो नहीं करना पड़े, वैसे भी बालिग बच्चों का ही माता-पिता के प्रति कर्तव्य है। अन्यथा उस महिला को जिन्दगी भर पुत्र की गुलामी करना ही समझा जायेगा और यदि पुत्र बेरोजगार है तो आज के जमाने में उसका विवाह भी होना दुश्वर हो जायेगा, इसमें सरकार को शीघ्रातिशीघ्र संशोधन कर देना चाहिए।
कुछ यह तर्क देते हैं कि कि एक की कमाई से घर नहीं चलता तो यह सरासर झूँठ है। वैसे भी यदि आपकी पत्नी गृहिणी है तो उसके घर के कार्य को किसी बाईजी के दिये हुये काम से तुलना कर लीजिए। आपके बाहर का कार्य कोई मायने नहीं रखता बल्कि आपके स्वयं के बच्चे ही अनाथ-अपाहिज हो जाते हैं, सास-ससुर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं, घर में ताला लटका होने से आगंतुक मेहमानों का आना समाप्त। फिर ऐसी कमाई धिक्कार है। ऐसा कोई विरला ही घर होगा जिसमें कोई कामकाजी महिला संयुक्त परिवार में रहती हो, वह तो अलग घर बनाकर ही रहेगी। फिर ससुराल का क्या प्रयोजन? माता-पिता को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।
कुछ यह तर्क भी देते हैं कि पुरुष वर्ग शराब का सेवन करते हैं, घर पर कमा कर कुछ नहीं लाते, फिर बेचारी महिला अपने बच्चों का पेट कैसे भरे? सोचना यह है कि आखिर ये शराबखाने का लाइसेंस दिया किसने? आप वोट देकर किसको चुनते हो? क्या कभी आपने इस बाबत आवाज उठाई, क्या सरकारों की आँखें मूंदी हुई है? कौन जगायेगा उनको इस कुंभी निद्रा से? सरकारों को भी इस ओर सोचना चाहिए, आखिर हम जनता को क्यों मदहोश करना चाह रहे हैं? इससे तो अराजकता ही छायेगी और फिर मुख्यमंत्री निशुल्क दवा का क्या औचित्य? फिर भी यदि महिलाओं को अपनी घर-गृहस्थी चलाने के लिए पैसा ही चाहिए तो पुरुष वर्ग का 80 प्रतिशत उनके खाते में ट्रांसफर कर दीजिए, लेकिन महिलाओं को इधर-उधर भगाने-दौड़ाने से क्या लाभ?
आज तो स्थिति यह है कि उच्चतर पढ़ती हुई लड़कियाँ समाज से बाहर निकल रही है। पढ़ाई एवं भौतिकवादी इस भेड़चाल में माता-पिता की डोर स्वयं उन्होंने ढीली कर दी है। आप ही सोचो! क्या लड़के और क्या लड़कियाँ ऐसी स्थिति में शारीरिक सुख कैसे प्राप्त करें, जबकि इसके लिए हमारे ऋषियों-मुनियों ने विवाह संस्कार को सबसे बड़ा मानकर समयानुसार रजस्वला के दो-तीन वर्ष उपरांत करने का सुझाव दिया था। आज तो स्थिति बड़ी विचित्र है। 30-30 वर्ष तक के लड़के-लड़कियाँ कुँवारे बैठे हैं। लड़कियाँ स्वयं रिलेशनशिप में रहती है और बिगडऩे पर जब चाहे तब लड़कों पर शादी के झाँसा देने का आरोप लगाकर पोक्सो एक्ट में फँसा देती है। वे भी किसी के भाई होंगे, वे भी किसी के पुत्र होंगे, आप पर कोई सवाल नहीं उठाता कि आप ऐसे झाँसे में क्यों आई, आप बिना माता-पिता के इजाजत के क्यों जाल में फँसी? वे ही माता-पिता जो अपनी भागी हुई लड़की को अपने लिए मरा समझ रहे थे, वे स्वयं उस समय आगे आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में युवकों के लिए तो ये घोर संकट है, गहन मंथन की आवश्यकता है।
एक बार लड़के एवं लड़कियों के पाठ्यक्रम में भी समीक्षा करने की आवश्यकता है। क्या हम केवल नौकरी के लिए ही पढ़ते हैं? या ऐसी पढ़ाई से हमारी दया एवं मानवता की मूल भावना में कुछ आंशिक परिवर्तन भी आया है? हमें यह भी सोचने की आवश्यकता है कि हमारे पूज्य बापू ने बिहार के चंपारन के महिला के पहनावे को देखकर ही हमेशा-हमेशा के लिए कोट-पेन्ट-टाई छोड़कर एक धोती ही क्यों अपनाली? और क्या हम पति-पत्नी इतने पैसे (एक लाख)कमाकर क्या समाज एवं देश के चोर नहीं हुए? जब सबका साथ-सबका विकास और सबका विश्वास तो हमें इस ओर भी सोचना पड़ेगा।
हमें खुशी है कि वर्तमान में सरकारें कुछ जनहितेषी कार्य कर रही है। जैसे-सिंगल यूज प्लास्टिक का निषेध, राजस्थान सरकार द्वारा तम्बाकू युक्त नशीले पदार्थों पर रोक। अब हमें शराब बंदी पर भी पूर्ण प्रतिबंध के लिए सोचना होगा।
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इस लेख के माध्यम से आपने देश व देश की राजनैतिक स्थिति,समाज की सोच जो समाज के लिए हितकर नहीं है,शिक्षा की वर्तमान स्थिति जो न छात्रोपयोगी है और न रोजगार के अवसर प्रदान कर पा रही है।आपने देश,समाज,शिक्षा तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त समस्याओं को मार्मिक ढंग से उभारा है।बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपहले अभिभावकों का सोच होता था कि बच्ची का उत्तम कुल में विवाह समय पर हो जाएं , बाल्यावस्था के युवावस्था तक केवल यह संस्कार दिए जाते थे कि अपने सुसराल में परिवार को कैसे कुशलता से चलाएं । सुसराल में कोई परेशानी भी आती तो यह कहा जाता था कि यह भाग्य में लिखा है, सुसराल में रह कर वे परेशानियों को हल कर लेती थे। लेकिन अब तो अभिभावकों द्वारा शुरू से ही संस्कारों के बजाय केवल तथा कथित शिक्षा देकर केवल अपने व अपने पति व बच्चो तक की परवरिश तक की बात की जाती है व धन कमाने अपने बच्चो तक को संस्कार नहीं दे पाती है। मेरा निवेदन है कि अभिभावक अपनी बच्ची को शिक्षा के साथ संस्कार भी देवें जो आप अपनी पुत्र वधू में चाहते है ताकि दोनों परिवार सुखद जीवन जी सकें। निवेदक सामाजिक चिंतक देवेन्द्र त्रिपाठी अजमेर
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