रविवार, 19 अप्रैल 2020

कोरोना की मार - परिवर्तन की लहर



यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्यूत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्।।
परित्रााणाय साधुनां विनाशाया च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थानपनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
श्रीमद्भगवत गीता में स्पष्ट लिखा है कि जब जब धर्म की हानि होती है अर्थात् पापाचार बढ़ता है, उस पाप के संहार एवं धर्म की पुर्नस्थापना हेतु इस सृष्टि की पुन: रचना होती है। सज्जन व्यक्तियों की रक्षा, दुष्टों के विनाश एवं धर्म की स्थापना के लिए युग-युगान्तर से ऐसा संभव होता आया है।
हम बचपन से देखते आ रहे हैं, हमारे गाँवों में प्रत्येक घरों में से किसी के गायें,  किसी के भैंसे, किसी के भेड़-बकरियों के खोज के खोज भरे रहते थे। रेबारियों के पास ऊँटों के झुंड के झुंड रहते थे। हर मुहल्लें  में सुरक्षा हेतु कुत्तें, हरिजनों के सफाई हेतु सुअरों का बोलबाला था। हमारा देश कृषि प्रधान होने के कारण उनके ये सब जंतु किसी न किसी प्रकार कृषि एवं जन उपयोग  में सहयोग करते थे। और तो और यहाँ तक कहा जाता है कि किसानों के साँप तक मित्र हुआ करते थे, जो चुहों से उनकी फसलों की रक्षा करते थे। किसानों के परम हितेषी बैल कृषि में मुख्यत: काम आते थे। यही कारण था कि गौवत्स के कारण गौमाता का समस्त वसुधा में बड़ा सम्मान था। सारा कृषि कार्य हकाई-जुताई, सिंचाई, रोपाई, कटाई एवं माल लदाई तक का कार्य किसान अपने दम पर एवं बैलों से बड़े आराम से कर लेता था। बदले में इन सब जंतुओं से धरती माता को पौष्टिक खाद तो मिलता ही था, बल्कि उन जंतुओं के मूत्र से जमीन को औषधि तत्व भी अनायास मिल जाता था। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि बिना पशुओं के भी कृषि संभव  हो सकती है? हम बचपन में यह भी सुनते थे कि जिस दिन बैलों के कंधों से जूड़ा(हल चलाने का पट्टा) उतर जायेगा, उसी समय से कलजुग का प्रारंभ हो जायेगा। उस समय के तत्काल प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने जय जवान-जय किसान का नारा देकर हमारे देश के सिपाही एवं हमारे अन्नदाता किसान का सम्मान बढ़ाया था। 
मुझे याद है जब 1984-85 में मेरी पोस्टिंग गाँव में बतौर अध्यापक थी तो तब गाँव का अस्सी प्रतिशत व्यक्ति जंगल में मंगल करते हुए अपने कृषि कार्य करते थे। वहीं उनके जानवर, वहीं उनका नहाना-धोना, वहीं उनका भोजन एवं वहीं उनका रसीले कंद मूलों  का नाश्ता होता था। यहाँ तक कि फसलों की कच्ची रसालों से ही उनका पेट भर जाता था। गाँवों में तो केवल खाती, लुहार, दर्जी की दुकाने खुली रहती थी और तो और परचुनी दुकानें भी सुबह-शाम ही खुली दिखती थी। गाँवों से चला नहीं जाने के कारण बड़े बुजुर्ग घरों की सुरक्षा करते देखे जाते थे।      देखते-देखते कृषि जगत से किसान का अस्तित्व गायब हो गया। अब वह स्वतंत्र नहीं रहा, अब वह लाचार हो गया। उसका पशुधन बड़े-बड़े उद्योगों की भेंट चढ़ गया। अब वह कृषि के छोटे से छोटे कार्य के लिए भी यंत्रों की बाट जोहने लग गया। दूसरे शब्दों में वह यंत्रों का गुलाम हो गया। उसका खान-पान बदल गया। घी-दूध को वह स्वयं तरस गया। अब उसका दूध बड़े-बड़े डेयरी फार्मों में बिकने लगा। उसके पास पैसा भले ही दिखने लगा, लेकिन यंत्रीकरण के गुलाम होने के कारण वह पैसा भी उसके पास नहीं ठहर सका। अब वह मोटा-झोटा नहीं खा सकता था। उसके कोठे अनाज से सारे खाली हो गये। जानवर नहीं होने के कारण अब वह पशुओं से उत्पन्न खाद एवं मलमूत्र के लिए भी तरस गया। 
जमाना इतना बदला कि गाँवों में बैलों की जोडिय़ाँ मिलना दुभर हो गया। सरे आम बैलों कत्लेआम होना प्रारंभ हो गया। गोमाता की दशा बड़ी व्याकुल हो गई। कस्बों एवं महानगरों में माँसादि खुले में विक्रय होने लगा। कसाइयों का व्यापार चमकने लगा। गाँव के गाँव बेरोजगार होकर रोजगार के लिए महानगरों की ओर पलायन करने लगे। कारखानों में श्रमिक पिसने लगे। अब उनको घी-दूध के दर्शन दुर्लभ हो गये। महानगरों की चकाचौंध में वे खो से गये। वहाँ की निशाचर(रात्रि को चलना एवं खाना) जैसी प्रवृत्ति भी सहजता में ढलने लगी।  सरकार की लोभ-लिप्सा एवं दुराचार के कारण हर गाँवों में शराब की दुकानें शुमार होने लगी। बीड़ी, सिगरेट, जरदा-गुटका हर दुकानदार के सज्जा के सामान बन गये।      
कोरोना की मार-और जब दुनियाँ में एक छोटे से वायरस कारोना की मार पड़ी तो बड़े-बड़े राष्ट्र सब चित्त हो गये। जिसका पारंपरिक जीवन था, जो गाँव की स्वच्छ वायु में विचरण करते थे। उनका वायरस कुछ नहीं बिगाड़ सका। यह आग अधिकाँशत: महानगरों में दु्रत गति से फैली, जहाँ प्रदूषण अधिकधिक था। औद्योगिक कल-कारखानों की भरमार थी, चारो ओर रेंगते हुए वाहनों से धुँआ ही धुँआ था। जब महामारी का खौफ बढ़ा तो मजदूर तबके से देखते-देखते महानगर खाली होते चले गये। प्रश्र उठता है क्या हम गाँवों में रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकते थे? जबकि सारा अन्न, दूध, फल, सब्जी गाँवों से ही महानगरों को जाता है। यह भी हो सकता है कि महानगरों की चकाचौंध उन्हें वहाँ खींच ले गई या गृहणियों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए परिवार का मोह छोड़ दिया। 
खैर जो कुछ भी हुआ, अच्छा हुआ। सारा परिवार एक जगह इकट्ठा हो गया। दादा-दादियों को पोते-पोती मिल गये। सास को बहुएँ मिल गई। पिता को पुत्र मिल गया। सबका दु:ख दर्द एक-दूसरे में बँट गया। महानगरों में तो कोई पूछने वाला भी नहीं था। हाँ कुछ ज्यादा शिक्षित महिलाओं ने अवश्य घरेलू अत्याचार की माँग अनावश्यक रूप से उठाई। जिस व्यक्ति को परिवार में सकून नहीं, उसे अन्य कहाँ मिल सकता है?
अब सरकार को चाहिए कि इन जन संसाधन को रोजगार में खपाने के लिए गाँवों में कृषि, पशुपालन, बागवानी एवं छोटे-छोटे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा देकर करना चाहिए। हमें समझ नहीं आता कि क्यों एक मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार से मदद माँगे। और क्यों केन्द्र सरकार वल्र्ड बैंक से सहायता माँगे? आखिर कर्ज तो जनता पर ही चढ़ेगा जो विभिन्न माध्यम से पुन: सरकार के खातों में जायेगा। अन्तोगत्वा पिसेगी तो वही जनता, जिसका स्वयं की सरकार मानी जाती है।  फिर कैसा लोकतंत्र?
सरकार को चाहिए कि महानगरों में अनावश्यक भीड़ इकट्ठी नहीं करें। गाँवों में कुटिर उद्योगों को प्राथमिकता दे। ग्राम पंचायतों को अपने स्तर पर रोजगार देने के लिए बाध्य करें। हम जानते हैं कि इस यंत्रीकरण के कारण ही जन एवं पशु संसाधन को दोहन नहीं हो सका है। सरकारी कर्मचारियों के रिटायर्डमेन्ट की अवधि घटाई जा सकती है। जब हम सादगी, सहजता एवं परिश्रम को जीवन में अपनायेंगे तो कोई  महा व्याधि हमको छू तक नहीं सकेगी।
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