मेरी हमसफर धर्मपत्नी स्व. श्रीमती सुनीता देवी शर्मा (दाधीच) लक्ष्मी सदृश कहानी की पात्र गोपी (महाप्रयाण 3 मार्च, 2011) श्रद्धांजलि के रूप में समर्पित यह भेंट-
गौमाता हमारे देश में प्राचीनकाल से ही वंदनीय रही है आज गौमाता को दुर्दशा हमारे सामने हो रही है हम आज इतने भौतिकवादी हो गए है की हमारी करुणा मिथ्या धन लिप्सा में सूख गयी है असली गौधन हमारे हाथ से फिसलता जा रहा है प्रस्तुत कहानी खंडो में गौमाताओं का जीवंत वर्णन है जिसको पढ़कर मनुष्य में इन निरीह प्राणियों के प्रति करुणा, समर्पण, सेवा का भाव उत्पन्न होगा इसी आशा के साथ-
मोगर
"कैसा हृष्ट पुष्ट बदन! दमकती हुई श्वेत-श्याम त्वचा, जिस पर मक्खियां फिसल जाये, गहरे समुद्र की भांति हिरणी-सी आँखें, मदमदाती चाल चाहे पर्वत पर चढ़ जाये, सुडौल पुठे, चौड़े व तीक्ष्ण सींग जिसको देखकर हर कोई भय खा जाये, पैरों के टखने को छूती हुई चामरदार पूंछ जो पल दो पल में शरीर पर चँवर की भांति डुलायमान होती हुई, जो भी देखे नजर ठहर सी जाये। साक्षात कामधेनू है कामधेनू। सुबह-शाम चार-चार किलो दूध देती है।" साहब की बातों ने गोपाल को मंत्र-मुग्ध सा कर दिया। साहब ने गोपाल के मन के डूबते-उतरते रंग को बारीकी से परखते हए उस गाय की कीमत दो हजार पाँच सौ रु. बता दी और अंत में उसके लिए कम करते हुए दो हजार दो सो रुपये विशेष कीमत रख दी और यह भी बता दिया कि बछड़ा इतना होनहार है कि गाय की कीमत तो वह बछड़ा ही चुका देगा।
घर पर गोपाल ने अपनी धर्मपत्नी को उस गाय का हुबहू वर्णन कर दिया। उसे गाय लाने की पहले ही बहुत चाहत थी सो वह अधैर्य सी हो उठी। उस रात उन्होंने गाय की कीमत और दूध के हिसाब का माप-तोल किया। उन्होंने हिसाब लगाया कि चार-चार किलो मिलाकर आठ किलो दूध हुआ, उसमें से दो किलो दूध बच्चों के लिए, शेष छः किलो दूध बेचकर उसका चारा-पानी, खल-कांकड़ा आदि का इंतजाम बड़ी आसानी से हो जायेगा। कंडे थापेंगे सो अलग। अब तो पांचों अंगुलियां घी में होगी। हम भी गौ-माता के गौ-रस से हृष्ट-पुष्ट हो जायेंगे। ऐसा न हो कि सौदा फिस्स हो जाये। हमें आनन फानन में गौ माता को घर लाना चाहिए। उसके लिए दूसरे दिन जगह का प्रबंध भी कर लिया गया।
दूसरे दिन दोपहर को गोपाल गाय लेने चला। साहब का गांव बीस किलोमीटर दूर था। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने गोपाल को शाम का भोजन कराया। गोपाल रात भर वही ठहरा। रात को स्वप्न में भी गौ माता के दर्शन हुए। अभी तक उस गौ के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए थे। मन मचल रहा था कि गाय कैसी होगी? मन तरह-तरह के गायों के से सज रहा था। पौ फटते ही साहब उठे, उन्होंने दूध दुहने के लि बर्तन लिया, गाय बाड़े में बंधी हुई थी। बाड़ा वहाँ से दो सो मीटर पर ही था। गोपाल गौमाता के दर्शन के लिए बेताब था। जब बाड़े में गौ माता के दर्शन किये तो उसका अनुमान सही ही था। गाय, गाय न होकर बैल की भांति महसूस हो रही थी। साहब ने उस गाय का नाम मोगर रख रखा था। बछड़े का नाम गणेश था वह मोगर के साथ अठखेलिया कर रहा था, उसका सफेद झक रंग बगुला का सा आभास दे रहा था। साहब ने सेर भर दूध निकाला और बाल्टी को ढक दिया। गोपाल ने बाल्टी को देखा, सेर भर दूध रहा होगा। उसका संशय ठीक निकला उसने साहब से पूछा कि क्या यह इतना ही दूध देती है? उन्होंने गोपाल के मन की थाह को नापते हुए कहा कि अभी इन मूंगों का कुछ भी नहीं बिगड़ा है, आपको पसन्द नहीं है तो कोई बात नहीं, अभी यह मेरे पास ही है परंतु मैं आपको यह, बताना चाहूंगा कि मैंने इसका दूध कम इसलिए निकाला है ताकि रास्ते में बछड़ा भूखा नहीं रहे। और गोपाल निरुत्तर होकर संतुष्ट हो गया।
गांव के दूसरे छोर तक साहब गाय की रस्सी पकड़े हुए गोपाल के साथ-साथ आये और अंत में उसी रस्सी को गोपाल को थमा दिया। अब गोपाल के लिए नई समस्या थी। गाय खींचे नहीं खिंच रही थी। कभी वह बछड़े को पकड़ता तो कभी गाय को। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गाय को कैसे लेकर चला जाये। गाय टस से मस नहीं हो रही थी। उसने गाय की रस्सी पकड़कर गाय को आगे किया] मानो बैलगाड़ी के बैलों को हाँक रहा हो। अब गाय मारे डर के आगे-आगे और गोपाल पीछे-पीछे। बछड़ा कभी-कभी रुक जाता तो कभी-कभी बड़ी-बड़ी छंलागे लगाता हुआ उससे आगे निकल जाता ऐसा लगता मानो चोर सिपाही का खेल खेल रहे हो, अभी पाँच-छ: किमी. ही चल पाये थे कि राजमार्ग आ गया।
गाड़ियों की आवाजाही हो रही थी, कभी बस तो कभी ट्रक, कभी कार तो कभी मोटरसाईकिलें, एक न एक बराबर निकल रहे थे। गौ माता ने शायद राजमार्ग के दर्शन नहीं किये थे। उसकी आँखे आश्चर्य से बैचेन हो रही थी और वह रस्सी लेकर ही पुनः भागने की योजना बना रही थी। गोपाल को अपनी मेहनत माटी में पलीत हुए जान पड़ रही थी। आगे का रास्ता उसी हाइवे पर होकर जाना था। एकाएक गोपाल ने वहाँ के वाशिंदों से पूछकर दूसरी राह बदलना स्वीकार किया। अब हाइवे को केवल काटना ही शेष था। किसी प्रकार उस गौमाता को राजमार्ग से पार कर कच्चे रास्ते द्वारा मार्ग पर लाया, गया। उस दौरान वह गौमाता कई बार बिदकी, कई बार पैर फटकारे, पर कुछ भी हो, कुछ लोगों के सहयोग से वह अगली राह पर चल पड़ी, तब गोपाल की जान में जान आई।
आगे का रास्ता कीचड़ भरा था, कभी गोपाल के पैर कीचड़ में धंस जाते तो कभी गाय डट जाती, कभी बछड़ा कुलांचे मारता हुआ। उससे दूर बगल में चला जाता और गौ माता की ममता उसकी राह देखने लग जाती पर गोपाल का दृढ निश्चय गौमाता के गौ रस को सामने देखकर और दृढ़ हो जाता। कभी गाय हरी-हरी घास खाने को मुँह मारती तो कभी बछड़ा थनों को मुँह में डालकर अपनी क्षुधा शांत करता। इस समय गोपाल को गोपालक कृष्ण की बड़ी याद आ रही थी और वह गाय को चराता हुआ बड़ा प्रसन्न हो रहा था।
आखिर तीसरे पहर वह अपने गांव गोरेली के किनारे आ गया था। गोरेली के किनारे बरगद के पेड़ थे। सघन छाया पसरी हुई थी। गाय और वह निढाल हो चुके थे। घर पर गोपाल की पत्नी गोपी उनकी राह ताक रही थी। एकाएक जब समाचार मालूम हुए तो उन्होंने गांव के उस छोर पर ही गऊ माता के लिए चारे-पानी का इन्तजाम कर दिया। गोपी ने गाय को सहलाया मानो सारा वात्सल्य गाय पर उड़ेल रही हो। गाय के लिए दूसरे घर का इंतजाम पहले ही कर दिया गया था। उस घर पर गोपी ने गाय के गोबर से अंगना किया, पाण्डु व झींकरे से मांडने मांडे, ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् लक्ष्मी स्वर्ग से उतर रही हो।
अगले दिन गोपाल को उसके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए साईकिल व दांतली लेकर खेतों की ओर जाना पड़ा। गांव वाले उस पर ताना कसने लगे-"घर में घाल्यो घोड़ो, दोब खोदबा दोड़ो" अब वह खेतों में पहुंच चुका था। खेत ओस की बूंदों से भीगा हुआ था। उसके पैर पानी में भीग चुके थे। वह भी अभी नौसीखिया ही था। दांतली चलाये नहीं चल रही थी, उसने हाथों से चारा तोड़ना शुरु किया। करीब घंटे भर में थोड़ा-सा चारा तोड़ पाया और वह उल्टे पैर घर लौट आया। गाय के लिए वह चारा मात्र कलेवा था, आखिर पास-पडौस से कुछ कड़बी का इंतजाम किया। अब सबसे बड़ी समस्या मोगर को बाहर घुमाने की थी। कुछ ग्वालों से बात की गई, पर एकएक कर सभी ग्वाले उस गाय से हताश हो गये। मोगर उनकी गायों के साथ चल नहीं पाती। किसी ने मोगर के डींगरा बांधने की सलाह दी तो किसी ने गाय को घर पर ही बांधे रखने की सलाह दी, परंतु उस मोगर को कोई चराने के लिए तैयार नहीं हुआ।
आखिर गोकुल गूजर तैयार हो गया। उसके पास बहुत बड़ी घेर थी। सौ सवा सौ गाये उसके घर में थी, उद्दण्ड से उद्दण्ड गाय भी उसका लोहा मानती थी। वह घर पर आया, मोगर को जांचा-परखा और कहा कि आप इस गाय को कल से मेरे घर में भेज दो। इस गाय की कोई शिकायत नहीं आयेगी। उसके बाद मोगर गोकुल की घेर में चरने लग गई। घर पर कड़बी की व्यवस्था हो चुकी थी। फसल कटने के दिन थे, भैरवाल हो रही थी। अब मोगर मस्त होकर आती। अपने पयोधर के भार से लदपद होते हुए भी सब गायों से आगे निकलकर अपने बछड़े की याद के मारे हुंकार भरती हुए घर की चौखट पर आ धमकती। उधर गणेश को मुहल्ले के दूसरे छोर पर ही अपनी माता के आगमन का आभास हो जाता। वह घर पर रंभाने लग जाता। जब तक घर का दरवाजा नहीं खुल जाता, मोगर व गणेश अपनी टेर से सारे मुहल्ले को सिर पर चढ़ा लेते। गली की स्थिति यह हो जाती कि इधर की पणिहारिण इधर, उधर की पणिहारिण उधर। किसी की हिम्मत नहीं कि मोगर के इस पार से उस पार हो जाये।
मोगर के नाज-नखरे कम नहीं थे। शुरु-शुरु में मोगर को दुहने के लिए उसके गांव से बुआजी को बुलाया गया। उसके पश्चात् गोपी ने दुहना प्रारंभ किया। गोपाल तो अभी निरा पोंगा था, उसके थन को दबाने पर भी दूध की धार नहीं निकलती, जिसके पहले मोगर अपनी टांग फटकार देती। गोपी को शायद दूध दुहने का अनुभव रहा होगा सो उन्होंने स्वयं दूध निकालने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, परंतु उस मोगर को दुहना इतना आसान नहीं था। उसको दुहने के लिए गोपाल और गोपी दोनों ही तैयार होते। गोपाल मोगर को अपना एक हाथ चटाता, उधर गोपी उसके थनों से दूध निकालती। मोगर के डर से गोपी अपने एक हाथ में दूध दुहने का पात्र रखती, दूसरे हाथ से दूध निकाला जाता। मोगर कभी गोपाल के हाथ को चाटती तो कभी उसके कंधों को चाटती। उसकी रोएंदार जीभ खुरदरी प्रतीत होती, लेकिन इसके अलावा गोपाल के पास कोई चारा भी नहीं था। मोगर अब तक सवा किलो दूध से बेशी नहीं दे रही थी। पैसे की दृष्टि से उस गाय के संदर्भ में गोपाल और गोपी अपने को ठगा सा महसूस कर रहे थे। सारे गांव में उस गाय की चर्चा जोरों पर थी, लेकिन सब जानते थे कि यह गाय दिखने में हट्टी-कट्टी है, पर इसके दूध ज्यादा नहीं है। गोपाल को ठग लिया गया है। गांव वाले जब उससे दूध के बारे में पूछते तो वह हाँ-हुँकारा ही भरता, पर वस्तुस्थिति किसी को नहीं बताता। एक दिन साहब ने पूछा कि मोगर तुम्हें परेशान तो नहीं करती? उसने 'ना' में उत्तर दे दिया। उन्होंने पूछा, दूध तो पूरा दे देती है? शुरुशुरु में गोपाल ने हाँ-हुँ ही की, परंतु अधिक कुरेदने पर उनको बताया कि वह किलो सवा-किलो से अधिक दूध नहीं देती है। उन्होंने गोपाल को दिलासा दी कि अभी इसकी जगह बदली है, पुराने घर की याद आती होगी, कुछ दिनों में यह पूरा दूध देने लग जायेगी। गोपाल के भाव को परखते हुए उन्होंने कहा कि अभी भी आपको नहीं जंच रही है तो मेरी गाय मुझे वापस कर सकते हो।
घर पर आकर गोपाल ने गोपी से विचार विमर्श किया, गोपी ने साफ-साफ शब्दों में कहा कि अब सवाल नाक का है, लोग क्या कहेंगे? इस गाय की चर्चा गांव में पूरे जोरों पर है यदि हम मोगर को वापस भिजवाते हैं तो हमारी नाक कट गई। लोग कहेंगे, इनसे गाय की परवरिश नहीं हो सकी। मोगर के लिए मकान किराया लिया सो अलग, कड़बी भी ओने पोने दाम वापस करनी पड़ेगी। हमारी तो माटी पलीत हो जायेगी। गोपी ने मोगर को नहीं देने का निश्चय कर लिया।
यद्यपि मोगर सुबह-शाम सवा किलो दूध ही देती थी, पर उसका दूध खूब फलता-फूलता था। उसके दूध में घी भी अच्छा बैठता, दही भी खाने को मिलता, छाछ की तो जावणी भरी रहती। पड़ौस के व्यक्ति भी तृप्त हो जाते। गोपाल, गोपी और उसके तीनों बच्चे सुबह शाम दूध पीते, एक थन पूरा छोड़ दिया जाता जिससे गणेश भी तृप्त हो जाता। ऐसा लगता मानो उनका परिवार बड़ा हो गया हो। गांव वाले कहते-यह गांव तो दूसरों को ही धारता है, हमारे को नहीं।
अब गणेश तीन-चार महीने का हो गया था। वह गोपाल के साथ ऐसे हिलमिल गया था कि वह बाहर निकलता तो गणेश भी उसके पीछे-पीछे। वह दिन में उसको खेत-खलिहानों की तरफ घुमाने निकल जाता। गणेश उसके आगे-पीछे चला करता। कभी-कभी गणेश रुक जाता तथा गोपाल के कुछ आगे निकल जाने पर कुँलाचे मारता हुआ उससे आगे निकल जाता। गोपाल को गणेश के साथ-साथ रहना बड़ा अच्छा लगता। यहाँ तक कि उसके काम पर जाते वक्त भी उसको उससे आँख चुराकर जाना पड़ता, क्योंकि दिन में उसकी माँ की गैर मौजूदगी में गणेश खुला ही रहता था। गणेश भी ऐसा मस्तमौला था कि किसी खेत में घुस जाये तो किसी व्यक्ति की हिम्मत नहीं होती कि उसको खेत से बाहर निकाल सके। वह खेत के एक कोने से तक घूमता रहता, उछलता रहता और गोपाल की आवाज से उसके पास आ जाता। एक दिन गोपाल सन्न रह गया, क्या देखता है, गणेश कुएं के पास पारे के ऊपर चढ़ गया। गोपाल घबरा गया, यदि वह उसके पीछे भागता है तो हो सकता है, वह कुएं में छलांग लगा दे, गोपाल ने भगवान को याद किया, गणेश उसके पास आ गया।
एक दिन गोपाल हमेशा की तरह मोगर के सवेरे-सवेरे दर्शन कर रहा था कि अचानक उसे उसकी आँखों में एक विशेष चमक नजर आई, मानों आँखें मदहोश हो, गोपाल अभी-अभी उसको स्पर्श ही कर रहा था कि मोगर अपने पिछले दोनों पैरों के बल खड़ी होकर उस पर चढ़ने लगी। उसने गोपी को बुलाया वह देखकर समझ गई, पर उसका कोई अर्थ नहीं बताया। दूसरे दिन गोकुल गूजर खुशी-खुशी घर पर आया और उसने गोपाल को बताया कि आप मिठाई खिलाईये। गोपाल ने कहा कि कोई विशेष बात हो तो बताओ। गोकुल ने बताया कि आपकी गाय सामी (गर्भवती) हो गई है साथ ही सांड (वृषराज) के लिए पाँच किलो गुड़ की भेली व एक किलो तेल जो सभी से लेता हूँ, आपको भी देना पड़ेगा। गोपाल की खुशी का पारावार नहीं था। उसने शीघ्र गुड़ की भेली व तेल देने के साथ-साथ गोकुल का मुँह भी मीठा करवाया और उसके बच्चों के लिए एक मिठाई की थैली भी बांध दी।
समय का अन्तराल यों ही निकल गया। अब गणेश काफी बड़ा हो गया था। उसकी कद काठी काफी लुभावनी थी। अच्छे-अच्छे किसान उसको देखने के लिए तरस जाते थे। उसके कंधे काफी उभरे हुए थे। एक दिन एक किसान गोपाल का घर ढूंढते-ढूंढते उधर आ निकला। उसने गणेश को जाँचा परखा और मन ही मन उसको खरीदने की ठान ली। उस किसान ने गोपाल से गणेश की कीमत पूछी। गणेश को लेकर गोपाल के भाव बहुत ऊंचे थे। किसान ने गणेश की बोली एक हजार से बोलते हुए अठारह सो तक कर दी, पर गोपाल टस से मस नहीं हुआ। गोपाल ने बहाना बनाते हुए कहा कि अभी गणेश दुग्धपान करता है जब यह छोड़ देगा तब ही मैं बात करूंगा। वह किसान अठारह सौ रु. तक पेशगी देने के लिए तैयार हो गया और उसने कहा कि जब बछड़ा दुग्धपान करना छोड़ देगा, तब ही मैं इसे लेने आऊंगा, पर गोपाल के कानों में जूं तक नहीं रेंगी, आखिर वह सौदा फिस्स हो गया। जिसके भाग्य में इतनी मोटी रकम नहीं लिखी हो तो उसे कैसे मिल सकती थी?
समय निकलता गया। मोगर के प्रसव की तैयारी चल रही थी। उसको चार पंसेरी जौ खिलाया जा चुका था। गर्मी के दिन थे, विद्यार्थियों की तरह उनके घेर का भी ग्रीष्मावकाश चल रहा था। गर्मियों में अक्सर ग्वाले छुट्टियां कर देते थे, क्योंकि चारागाह में चारा नहीं रहता था, सो मोगर के प्रसव के लिए एक पड़ौसी किसान को तैनात कर रखा था।
समय निकलता गया। मोगर के प्रसव की तैयारी चल रही थी। उसको चार पंसेरी जौ खिलाया जा चुका था। गर्मी के दिन थे, विद्यार्थियों की तरह उनके घेर का भी ग्रीष्मावकाश चल रहा था। गर्मियों में अक्सर ग्वाले छुट्टियां कर देते थे, क्योंकि चारागाह में चारा नहीं रहता था, सो मोगर के प्रसव के लिए एक पड़ौसी किसान को तैनात कर रखा था।
एक दिन वह भी आया, जब मोगर कष्ट से बिलबिला रही थी। कभी बैठती तो कभी खड़ी हो जाती, यह क्रम सवेरे से कई बार चला। चारे-पानी की ओर तो उसने देखा तक नहीं। गोपी से यह दशा देखी नहीं गई। उसने गोपाल को शीघ्र उस किसान को बुलाने भेजा। उस किसान की मौजूदगी में मोगर ने नये बछड़े को जन्म दे दिया था। अब वह उसको चाट-चाट कर स्वच्छ किये जा रही थी, पर उसकी नाल अभी तक नववत्स से दूर नहीं हुई थी। गोपाल और गोपी समझते नहीं थे, उस किसान ने वहाँ पड़ी हुई पुरानी कैंची को उठाया और नाल को काट दिया। कुछ ही समय में मोगर अपने नववत्स को चाट-चाटकर मानो उसमें शक्ति का संचार किये जा रही थी। धीरे-धीरे नववत्स उठने को उद्यत हुआ। वह कभी उठता फिर गिर जाता यह क्रम लगातार चल रहा था। कुछ समय में ही वह मोगर के थन तक जा पहुंचा, मोगर भी उसमें सहयोग किये जा रही थी। कुछ ही पलों में वह दुग्ध पान करने लग चुका था।
अब गोपाल और गोपी का मन बड़ा प्रसन्न रहता। गोपाल और गोपी उस बछड़े को घंटे निहारते रहते, उसके लाड़-प्यार करते। गणेश का लाड़-प्यार घट चुका था। गणेश भी अपने छोटे भाई को देखता और उसको अपनी जीभ से बार-बार सहलाता। आज गोपी अपने पीहर जाने की तैयारी कर रही थी, क्योंकि उसके भाई की शादी जो होने जा रही थी, पर आज नववत्स अनमना था। वह अपने चारों पैर फैलाकर लेटा हुआ था। इससे पूर्व भी वह कई बार इसी तरह लेटा हुआ दिखाई दिया था सो आज भी उसका इस तरह लेटना ज्यादा दुःखदायी नहीं लगा। गोपाल, गोपी को रोकना चाहता था पर गोपी नहीं मानी। गोपाल अपना मन मसोस रह गया।
गोपाल दिन में अपने काम पर चला जाता, गोपी अपने मैके गई हुई थी। ममतामयी माँ मोगर भी अपने घेर में चली जाती, पीछे नववत्स की हालत मारे बिछोह के और अधिक खराब रहने लगी। गोपाल जब शाम को घर लौटता तो नववत्स को देखकर और अधिक दुःखी हो जाता। आज वह पास ही स्थित पशु चिकित्सालय के डॉक्टर के पास गया और उनसे विनती की कि मेरे नववत्स को किसी भी प्रकार से बचा लें। तथा डॉक्टर साहब को उस बछड़े की स्थिति से पूरी तरह अवगत करा कर डॉक्टर साहब को अपने साथ ही लिवा लाया।
डॉक्टर साहब ने बछड़े को अच्छी तरह परखा, ग्लूकोज चढ़ाया तथा कुछ बड़ी-बड़ी गोलियां गुड़ में मिलाकर देने के लिए कहा। नौ दिन के नववत्स की यह छटपटाहट गोपाल से देखे नहीं जा रही थी। वह बार-बार डॉक्टर साहब से विनती करता कि डॉक्टर साहब यह बछड़ा किसी भी प्रकार बच जाना चाहिए चाहे कितने ही रुपये खर्च हो जाये। डॉक्टर साहब ने आश्वासन देते हुए कहा कि आप समझदार है, आप को एक बछड़े के लिए इस प्रकार रोना-गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए। मैं इसको बचाने की पूरी-पूरी कोशिश करुंगा। यदि यह चौबीस घंटे जीवित रह गया तो समझ लो बच गया, अन्यथा मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा क्योंकि इसके टिटनेस की बीमारी है। साथ ही सुरक्षा के तौर पर इसकी माँ के भी यह टीका लगवा लेना चाहिए।
दूसरे दिन गोपाल ने अपने काम से छुट्टी ले ली थी। नववत्स की हालत बहुत गंभीर थी, गोपाल पास ही बैठा हुआ था। दोपहर को नववत्स के लम्बे-लम्बे श्वास चलने लगे। धड़कने शिथिल हए जा रही थी। गोपी के बिना गोपाल काफी घबराया हुआ था। उसको ढांढस देने वाला कोई नहीं था। देखते ही देखते आँखों के नील बिन्दु एक ओर तैरते नजर आये। उसकी धड़कन समाप्त हो चुकी थी। बेजान नववत्स को अब मोची घसीटता हुआ लेकर जा रहा था। गोपाल की अश्रुधारा अविरल बह रही थी। आज उसे गोपी पर काफी खीज हो रही थी।
शाम को घेर से मोगर लौटकर आई, आज उसे निश्चेष्ट नववत्स दिखाई नहीं दिया। अब तक प्रायः उसे चाटती रहती थी। आज वह समझ चुकी थी कि वह उसे छोड़कर चला गया। वह बार-बार बाँ-बाँ करती हुई हुई पूरे आंगन में चक्कर काट रही थी। हर बार उसके खूँटे को सूंघ रही थी। जोर-जोर से बाँ-बाँ करने के कारण उसके कंठ अवरुद्ध हुए जा रहे थे। अब वह निढाल हो चुकी थी, आँखों में अश्रुधारा उमड़ रही थी। गोपाल से मोगर का विरह-रुदन देखा नहीं जा रहा था। गणेश भी अपने अनुज के बिछोह के कारण खोया-खोया लग रहा था, पर होनी को कौन रोक सकता था?
नववत्स को मरे दो माह बीत चुके थे, डॉक्टर के कहे अनुसार मोगर के भी टिटनेस का टीका लगवाया जा चुका था। आज गोपाल को ट्रांसफर ऑर्डर मिला उसकी बदली कस्बे में हो गई थी। अब उसके पास नई समस्या मोगर और गणेश को किस प्रकार कस्बे में ले जाया जाये उसले का कैसे प्रबंध किया जाये, खाने के चारा-पानी का किस प्रकार इंतजाम होगा आदि प्रश्न मुँह बायें खड़े थे।
एक दिन गोपाल ने कस्बे में आकर किराये का मकान तय कर लिया था। इतने बड़े परिवार के लिए उसको मकान केवल तीन महीने के लिए बड़ी मुश्किल से मिल पाया था। उसने अपना सामान, गणेश एवं बाल-बच्चों को गोपी के साथ ट्रेक्टर के द्वारा पहले ही रवाना कर दिया था। अब वह मोगर को रस्सी से बांधे-बांधे आगे-आगे घसीट रहा था। मोगर को समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है। अपने नववत्स को खोने के कारण उसका धैर्य पहले ही जवाब द चुका था। आज उसे गोपाल पर बेहद क्रोध आ रहा था। वह गोपाल पर झपटी, पर गोपाल सावचेत था। मोगर चाहती तो गोपाल का कचमूर निकाल सकती थी, पर उसका गोपाल के सिवा दूसरा कौन था, जिस पर वह विश्वास कर पाती, उसे गोपाल पर रहम भी आ रहा था। जैसेतैसे वह गोपाल के संग कस्बे में आ गई, वहाँ उसने गणेश व गोपी को पाकर राहत की सांस ली। आज वह काफी थक चुकी थी। उसके उदर पूर्ति के लिए कुछ चारे की कुट्टी बोरियों में पहले ही से गांव से कस्बे में मंगा ली गई थी, जिसे खाकर मोगर अपना काम चला रही थी।
कस्बे का जीवन मोगर को रास नहीं आ रहा था। उसकी संगिनियां रम्भा, काली, ग्यारसी, बारसी, कैण्डी, मैण्डी आदि बिछुड़ गई थी। गांव के लहलहाते हरे-भरे खेत, उनकी सौंधी सौंधी महक मानो उससे कोसों दूर हो गई थी। अब वह रात-दिन खूटों के बंधी रहती। दिन-रात गाड़ियों की पों-पों व घरघराहट उसके कानों के परदे को चीरते रहते। चारों ओर उसे काला धुंआ ही धुंआ नजर आता। उसका वहां दम घुटता रहता परंतु गणेश को देख-देख कर वह इन जहर की घूँटियों को भी पी लेती। गणेश भी दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा था। गोपाल व गोपी के बस में कुछ नहीं था। वे भी मोगर व गणेश को देखकर बेहाल हो जाते।
आज मोगर पर मादकता का फिर नशा था। कस्बे में वृषराज के कहाँ दर्शन? दूसरे दिन गोपाल उसे पशु चिकित्सालय ले गया। तब तक उसके मादकता की सीमा समाप्त हो चुकी थी, डॉक्टरों ने इक्कीस दिन बाद फिर लाने को कहा। अबकी बार मोगर ने निश्चय का लिया था कि मुझे गोपाल और गोपी के भरोसे नहीं रुकना। उसका गणेश के प्रति मोह भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। और अठारह दिन बाद एक दिन मोगर खूँटे को लेकर रात को ही लापता हो गई।
अब गणेश एक बार फिर अकेला पड़ गया था। तीन-चार दिन बीत गये थे, गोपाल और गोपी मोगर को तलाश रहे थे उधर मुहल्ले के लोग गोपाल और गोपी को उलाहने दे रहे थे कि मोगर कहाँ है? तुम उसकी सुध क्यों नहीं ले रहे? एक दिन गोपाल को मालूम हुआ कि मोगर पास के गाँव में दिखाई दी है। दूसरे दिन गोपाल सवेरे-सवेरे ही साईकिल लेकर उस गाँव में गया, गाँव के बीचों बीच चौक में नीम की छाँह तले मोगर बड़े आराम से लेटी हुई थी। गोपाल ने मोगर को देखा और मोगर ने भी गोपाल को देखा। आज मोगर की आँखों में किसी प्रकार का भाव नहीं था, न डर, न ममता, न कोई उलाहना। गोपाल ने मोगर की गर्दन को अपने हाथ से सहलाया। उसने मोगर के सींगों पर रस्सी डाल दी। मोगर ने किसी प्रकार का कोई प्रतिकार नहीं किया बल्कि आज्ञापालक सेवक की भाँति अपने मालिक के साथ चल पड़ी।
मोगर आगे-आगे और गोपाल पीछे-पीछे रस्सी पकड़े हुए बड़ी तसल्ली से चल रहा था। मोगर की शिष्टता, संतुष्टि एवं सहजता को देखकर गोपाल ने उसको रस्सी से मुक्त कर दिया। मोगर अब बेधड़क बड़ी इत्मिनान से चल रही थी। मोगर ने देखा, उसके सामने लहराते हरे-भरे खेत हैं जो वायु के वेग से लहराते हुए उसे अपनी ओर बुला रहे हैं। मोगर के मुँह में पानी आ गया, उसने पीछे चल रहे गोपाल की ओर नजर घुमाई, गोपाल ने मोगर के मन का चोर भांप लिया। गोपाल, मोगर से कुछ कदम दूरी पर ही था, उसने अपने डग मोगर की तरफ बढ़ाये। ज्यूँ-ज्यूँ गोपाल के डग मोगर की तरफ बढ़ते, मोगर उतने ही लम्बे डग भरती हुई गोपाल से दूर जा रही थी। देखते ही देखते मोगर कुलाँचे भरती हुई सरपट दौड़ने लगी। दौड़ लगाते हुए गोपाल और मोगर चोर-सिपाही का खेल खेलने लगे। गोपाल सोच लिया था कि मोगर कहीं भी जाये मगर वह उसका पीछा नहीं छोड़ेगा। घोड़े की भांति बड़ी-बड़ी टांगे फटकारती हुई मोगर पर्वत की तलहटी तक जा पहुँची। वह कभी रुककर लहराती हुई फसलों में मुँह मारती कि पीछा करते हुए गोपाल आ धमकता। कुछ ही देर में मोगर हताश हो गई, गोपाल ने मोगर की पूंछ पकड़ ली। मोगर अपने पिछले पैरों को फटकारने लगी। गोपाल अब तक मोगर के सारे पैंतरे समझ चुका था। उसने आगे बढ़कर मोगर का कान पकड़ लिया। बड़े से बड़े जानवरों की जान उसके कानों में ही बसती है, शायद इसी कारण मोगर शिथिल हो चुकी थी। गोपाल ने पुनः उसके सींगों पर रस्सी डाल दी। अब वह बिना किसी प्रकार की छूट दिये अपराधिनी की भांति मोगर को लाकर उसके खूंटे पर मजबूती से बांध दिया था।
उसी मुहल्ले में बंसल साहब रहते थे, जो आयुर्वेदिक सरकारी कम्पाउण्डर थे। उनकी घर पर अच्छी प्रेक्टिस थी। उनका दावा था कि अब तक कहीं व्यक्तियों को वे रोग मुक्त कर चुके थे। पड़ौस के गाँव से एक औरत असाध्य रोग से ग्रस्त होकर आई थी, उसको भी उन्होंने रोग मुक्त कर दिया था। वह महिला बंसल साहब को सगा भाई की तरह मानना लगी थी, अत: उस महिला के पति मंशाराम पडियार का बंसल साहब के घर आना जाना था। बंसल साहब का रास्ता गोपाल के मकान के रास्ते से ही होकर जाता था। मंशाराम हर बार गणेश को देखता, कैसा हृष्ट-पुष्ट शरीर, कद-काठी और मजबूत कंधा। एक दिन मंशाराम, बंसल साहब को साथ लेकर गोपाल के पास आया। बातों ही बातों में गणेश का जिक्र किया। किराये के मकान में गोपाल को भी मोगर एवं गणेश भार स्वरूप ही लगते। गांव जैसी परवरिश उनकी हो नहीं पा रही थी। हरा चारा तो उनके लिए मिलना कस्बे में बड़ा दूभर था। उनकी दयनीय स्थिति देखी नहीं जा रही थी। मोगर एवं गणेश गांव के मुकाबले बहुत कमजोर हो गये थे। गणेश अब बड़ा हो गया था, अब उसका किसान के पास रहना ही ज्यादा ठीक था। मोल-भाव हुआ, गणेश का मोल छःसौ रुपया पर आकर टिक गया। एक समय था जब गणेश का मोल अठारह सौ रुपये लगाये जाने पर भी गोपाल उसको देने से भी मना कर चुका था, आज उसको छ: सौ रुपये में ही संतोष करना पड़ा।
घूम फिर कर सांयकाल मोगर जब घर लौटी तो गणेश को न पाकर वह हैरान हो गई। उसकी बाँ-बाँ कर रंभाने की ध्वनि से मुहल्ला परेशान हो गया था। कुछ देर बाद उसे अपने हालात से समझौता करना पड़ा। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी, गोपाल पर भी उसको खीज हो रही थी। गोपाल और गोपी से भी उसकी वेदना देखी नहीं जा रही थी। दूसरे दिन उसने मंशाराम को बुलाया, मोगर की दयनीय दशा के बारे में बताया और उसको कहा कि कुछ दिनों तक वह मोगर को भी गणेश के पास ले जाये, जिससे दोनों माँ-बेटे प्रसन्न रह सकें। मंशाराम ने हामी भर दी, पर एक शर्त रख दी कि तीन महीने बाद गाय को वापस लानी पड़ेगी। गोपाल ने मोगर को उसके साथ कर दिया।
मोगर को गये पन्द्रह-बीस दिन बीत चुके थे। मोगर गोपाल और गोपी दोनों खिन्न थे। आज उन्होंने मोगर से मिलने की ठानी। मंशाराम गाँव के किनारे खेतों में मकान बनाकर रहता था। सावन-भादों का महीना था। धरती ने मखमली चादर ओढ राखी थी। हरी-भरी फसलें लहलहा रही थी। मंशाराम का कच्चा झौंपडा पठारी की ओट में ढलान पर था। गोपाल और गोपी ने पठार पर से देखा कि मोगर और गणेश इन पन्द्रह बीस दिनों में कितने बदल गये हैं। मोगर और गणेश का रूप रंग निखर गया है, देह कांतिमय हो गई है, दोनों बड़े इत्मिनान से जुगाली कर रहे हैं। गोपी को पुकारते ही गणेश ने उसकी आवाज पहचानी, उसने अपना गर्दन ज्योंही ऊंची की, गोपाल और गोपी को पठार पर खड़े पाया। मोगर ने भी सारा माजरा समझ लिया। अब तो दोनों पूंछ उठा कानों को हिलाते हुए इधर-उधर घूमने लगे। गोपाल और गोपी को उनकी प्रसन्नता स्पष्ट आभास हो रही थी। गोपाल और गोपी ने भी उनको बहुत समझाया, बहुत प्रेम किया तथा मंशाराम के इस आश्वासन पर कि मोगर एवं गणेश को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा, तत्पश्चात् ही घर पर आये।
तीन महीने पश्चात् मंशाराम गोपाल से तकाजा कर रहा था कि या तो वे अपनी मोगर को वापिस लिवा लाये, अन्यथा मुझे बेच दे। गोपाल का अभी तक घर का मकान नहीं बना था, सारा पैसा मकान बनाने में स्वाहा होता जा रहा था, उनको अभी तक स्वयं के ही खाने के लाले पड़ रहे थे। कस्बे का जीवन रास नहीं आ रहा था, ऐसी स्थिति में मोगर को लाकर और मुसीबत मोल लेना नहीं चाह रहा था। मंशाराम बिना मोलभाव किये पीछे नहीं हट रहा था। गोपाल मोगर को पैसों के लिए बेचना नहीं चाहता था, अत: उसने उसका मूल्य मात्र बीस रुपया बता दिया और कह दिया कि इंसान की जुबान एक होती है, इसी जुबान से वह पालपोष कर अपनी बड़ी की हुई बेटी को अपने से जुदा करता है। आज से यह मोगर तुम्हारी, भगवान करे यह दोनों सलामत रहे और उसकी आँखों में अश्रुधारा बह निकली।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
thanks for comment