गुरुवार, 7 मई 2020

बड़ी बहू (कहानी)



गाँव में एक सेठ थे। बहुत दरिया दिल। सेठानी हर रोज कुछ न कुछ व्रत-अनुष्ठान किया करती, सेठजी भी उस परोपकार के निमित्त हमेशा कुछ न कुछ दान-धर्म किया करते। धर्म की जड़ सदा हरी रहती। सेठजी के कोई कमी नहीं थी। सेठजी पक्के ईमानदार थे। गाँव में किसी के भी कोई काम पड़ जाता तो सेठजी के निमंत्रण अवश्य आता, सेठजी भी दिल खोलकर उसकी सहायता करते। सेठजी बहुत कम ब्याज पर रुपये भी उधार देते थे, सेठजी की ईमानदारी ही इतनी थी कि कभी उनका पैसा डूबता नहीं। पैसा उधार देते वक्त ही खाते में लिखवा देते कि मैं मागूँगा नहीं, तुम खुद ही समय पर चुका देना, फिर चाहे तब और ले सकते हो, परिणामस्वरूप कर्जदार आगे होकर ही उनकी उधार चुका देता। क्योंकि उसे आगे भी काम पड़ सकता था। उनके घर में गाय भैंस, बैल सब थे। घर में दूध, दही, घी हमेशा बना रहता। उनके खेतों के लिए एक हाली भी था जो सुबह-शाम वहीं घर पर भोजन करता, सेठजी उसको भी कुछ न कुछ देते रहते। परिवार में किसी न किसी के धर्म का पुण्य प्रताप था कि सेठजी की दुकान में आमदनी भी हमेशा बनी रहती। यद्यपि गाँव में उनकी दुकान सुबह-शाम ही खुलती, पर गाँव के सभी ग्रामीण अधिकाँशत: उनकी दुकान पर ही सामान लेने आते। उनका परिवार बड़े आनंद से अपना जीवन यापन कर रहा था।
एक दिन सेठानी के सौ बरस पूरे हो गये। अब सेठजी विरक्त हो चले थे। कभी-कभी ही दुकान पर बैठते। उनके दो लड़कें थे। दोनों शादीशुदा थे। दोनों के बीच उम्र का अंतराल भी कुछ ही ज्यादा था। सेठजी के कहने पर बड़ा लड़का दुकान पर बैठा करता, पर उसका मन दुकान में नहीं लगता था। पत्नी भी समझाती, पर लड़का निठल्ला ही था। सेठजी की बड़ी पुत्रवधू दिखने में बड़ी शरीफ, लेकिन मन से बड़ी शातिर थी। कभी दिल की बात उसकी जुबान पर न लेती। वहीं छोटी बहू दिल से साफ व निहायत शरीफ थी। उम्र का अंतराल अधिक होने पर छोटी बहू अपनी जेठानी के समक्ष कभी मुँह न खोलती। बड़ी बहू भी कुछ न कुछ चूड़ा-मूंदरी देकर उसको अपना बनाये रखती, लेकिन घर की चाबी उसके अपने पास ही रखती। सेठजी का भी उसने विश्वास जीत रखा था। अक्सर वह सिलाई करती रहती, पर उसको उसमें आमद कम और मेहनत ज्यादा लगती। सिलाई करते वक्त छोटी बहू से सुबह शाम रसोई एवं साफ-सफाई का काम करवा लेती। उसको कुछ न कुछ अपनी जेठानी से मिलता रहता, इसलिए वह ना नुकर नहीं करती। सेठानी के मरने पर ढोर-ढंगर को बड़ी बहू ने पहले ही बिकवा दिये थे। अब घर में छाछ के भी लाले पड़ गये थे। कभी उनके घर पर पड़ौसी छाछ लेने आते, अब वे भी दूसरों के घर पर माँगने जाते। 
जब सेठजी बाहर रहते तो बड़ी बहू भी कभी-कभी ग्राहकों को सामान देने दुकान चली जाती। यद्यपि दुकान भी घर का हिस्सा ही था, लेकिन घर बहुत बड़ा होने के कारण वह दूसरे सिरे पर था। घर के लिए वह से आवश्यकता से अधिक सामान ले आती। जिसे वह अपने घर पर ही सस्ते दामों में अपने मिलने वालों को चुपचाप दे देती तथा वह पैसा अपने पास रख लेती। धीरे-धीरे वह उस पैसों को ब्याज पर देने लगी। सेठजी जब बाहर से आते और दुकान पर बैठते तो उनको सामान कम नजर आता, कभी घी खत्म, कभी शक्कर खत्म, कभी दाख, बादाम छुआरे खत्म, लेकिन वे अपनी बड़ी बहू को कैसे कहे? क्योंकि जब सेठजी को दुकान में सामान के लिए पैसों की जरूरत पड़ती तो बड़ी बहू ही उनको ब्याज से रकम उधार दे देती थी। सेठजी का काम चल जाता। सेठजी की रकम सेठजी को ही उधार। सेठजी सब जानते थे, पर मन मसोस कर रह जाते। किसी को कहने सुनने का मतलब घर का बिखराव निश्चित था। बड़ा लड़का काम के प्रति उदासीन तो था ही, सेठजी की बातों को भी गंभीरता से नहीं सुनता। धीरे-धीरे दुकान का धंधा ठप्प पडऩे लग गया। अब सेठजी के पास अधिकाँशत: पैसों की कमी पड़ती, अब उनकी दरियादिली भी जवाब देने लग गई। 
सेठजी ने अपने छोटे लड़के को दुकान में बैठाना चाहा, पर छोटी बहू भी बड़ी बहू की आदत जानती थी, पर उसकी हिम्मत अपनी जेठानी को कुछ कहने की नहीं होती, अत: उसने अपने पति को पास ही स्थित किसी कस्बे में नौकरी करने को कहा। अब सेठ जी का लड़का भी नौकरी करने लगा। सेठजी का मन बड़ा विचलित होने लगा, पर होनी के आगे वे मजबूर थे। उन्होंने अपने छोटे लड़के को पास ही कस्बे में एक मकान दिला दिया। अब कभी गाँव में तो कभी कस्बे में अपने छाटे लड़के के पास जाकर रहने लगते। 
एक दिन सेठजी के प्राण पखेरू उड़ गये। अब दुकान पर सामान भी नहीं रहा। बड़ी बहू का पैसा भी डूबने लगा क्योंकि वह बिना किसी लिखा-पढ़ी के चुपके से दिया हुआ था। अब जिससे माँगे, वह ही आँख दिखाने लग गया था। एक दिन सेठ जी की रही सही विरासत भी बिक गई। अब बड़ा लड़का व बडी बहू भी अंजान कस्बे में जाकर किराये से रहने लग गये। बड़ी बहू के कारनामें से घर मटियामेट हो गया था। 
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