मैं उसके कमरे के दरवाजे पर जाकर बैठ गया। वह अधीर था, उसका ध्यान छोटी मूसल से जल्दी-जल्दी दर्द निवारक गोली को बांटने में लग रहा था। उसने पिसी हुई दवाई को कप में उड़ेला, और लोठे से कप में कुछ पानी डाला और एक ही घूँट में गटागट गले से नीचे उतार दिया। ढाढी बढ़ी हुई थी, शरीर पर एक बनियान व नीचे चड्डी पहने हुए था। कमरे में एक विशेष प्रकार की गंध आ रही थी। उसने मेरी तरफ देखा, देखते ही उसको कुछ सांत्वना मिली। उसने इशारा से अपनी स्थिति के बारे में बताया, मैं बेबस था। पहली बार मैं अपने छोटे भाई को तिल तिल कर मरते हुए देख रहा था। उसके गले में कैंसर था, वह उस बीमारी से जूझ रहा था।
दिन में कई मर्तबा दर्द चलता, वह रोता-चिल्लाता, दीवारों से अपना सिर टकराता, मूसल से दवाई घोटता और कप में पानी डालकर गटक लेता। यही उसका नित्यक्रम था। कभी-कभी वह मुझसे जहर लाने की अनुनय प्रार्थना करता, गिड़गिड़ाता। मुझसे उसका दर्द देखा नहीं जाता। मैं उठकर अपने मकान में आ जाता। वह मुझे कहता-दादा तू बैठ, मेरे दर्द को देख, मैं कितनी वेदना सहता हूं, क्या करूं? वह अपनी पत्नी को बुलाने के लिए बार-बार लकड़ी से पीटता रहता। क्योंकि धीरे-धीरे उसकी आवाज बैठ रही थी। कभी-कभी भगवान की तस्वीर को भी लकड़ी से पीटता। भगवान की तस्वीर फट चुकी थी। वह भगवान से चिरौरी विनती करता हे भगवान! अब तू उठा ले, अब दुःख सहा नहीं जाता पर मौत अभी उससे कोसों दूर थी। एक-एक पल उसके लिए। असह्य था।
मैं सोचता, अभी कुछ महीनों पहले वह कितना हट्टा-कट्टा व नौजवान था। चाय और बीड़ी उसकी लत थी, कभी-कभी जर्दा भी खा लेता था। चाय का तो वह इतना आदि था कि बिना दूध व शक्कर के स्वयं चाय बनाकर पी लेता। बीड़ी उसकी कमजोरी थी। एक बुझते ही दूसरी बीड़ी सुलगा लेता। मैं उसको डाटता, उसकी पत्नी उसको समझाती, भाभी उपालंभ देती पर वह किसी की नहीं सुनता था। वाचालता, गाली-गलौज करना, झूठ बोलना, सौंगंध खाना, कडुवा बोलना, गप्पें लड़ाना, यह सब उसकी वाणी के दोष थे। फिर भी न जाने क्यों वह मुझे अधिक प्रिय था। भाभी से भी उसकी पटरी नहीं बैठती, अपनी धर्मपत्नी को वह हर कुछ कह देता। मेरी तो भरी जमात में कई बार उसने इज्जत उतार दी, लेकिन सबसे बड़ी उसमें खूबी थी कि वह लड़कर भी माफी मांग लेता। उसका गुस्सा क्षण भर का होता, मेरी गांठ क्षण भर में फूट जाती, वह था ही ऐसा। उसकी भाभी कभी-कभी मुझे उलाहना देती आप मेरी बात को कैसे पकड़ते हैं और अपने भाई की कड़वी-कड़वी बातों को भी ऐसे गटागट पी जाते हैं मानों शक्कर घुली हुई हो। मैं उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं देता। उसकी भाभी भी दिल की साफ थी, अपने देवर की कुछ बातों को पी जाती तो कभी-कभी झाड़ देती। दोनों का एक ही स्वभाव, एक ही उम्र। मैं कभी पत्नी को समझाता तो कभी छोटे भाई को। इतना सब कुछ होते हुए भी वह मुझे अच्छा लगता, उसकी फुहड़ हँसी भरी बातें मुझे गुदगुदाती रहती। कभी-कभी तो वह हंसते-हंसाते हमे दोहरा कर देता पेट में बल पड़ने लगते।
अब उसके कब्ज होने लग गई थी। एसीडिटी की शिकायत थी। भोजन पचता नहीं था। कभी कायम चूर्ण लेता तो कभी एलोपैथी सिरप] वह हमेशा अपने साथ रखता। डाक्टर चाय-पीने के छोड़ने के लिए कहते। पर उससे छूटती नहीं थी। चाय-बीड़ी की तलब हमेशा बनी रहती। एक दिन उसके गले में छाले हो गये। वह छाला मिटने का नाम नहीं ले रहा था। मैंने उसको हास्पिटल में दिखाया। उसने डॉक्टर से पूछा- कैंसर-वैसर तो नहीं है, शायद उसको आभास होने लग गया था। डॉक्टर हल्के में ले रहा था, उसने कुछ नहीं कहा, पांच दिन की दवाई लिख दी। कभी उसके छाले ठीक होते, कभी पुनः उभर जाते। एक के बाद एक दवाई बदलता, कभी हकीम को दिखाता, कभी वैद्य को तो कभी डॉक्टर को। वैसे आयुर्वेद में उसका विश्वास ही कम था।
डॉक्टर मित्तल आया हुआ था, उसने जांच कराई। दूरबीन में गांठ दिखाई दी। डॉक्टर ने कहा नाइन्टी नाइन परसेन्ट कैंसर की संभावना है, इसकी बायोप्सी होगी। उसने तारीख दे दी। उसको जयपुर ले जाया गया। बायोप्सी के नाम पर जीभ से कुछ टुकड़ा काटा गया, उस समय उसके ऐसी पीड़ा हुई कि उसको बयां नहीं किया जा सकता। वह कभी किसी से नहीं डरता, बड़ी से बड़ी मुश्किल को वह चुटकियों में हल कर देता। हंसना और हंसाना उसका काम था, आज पहली बार मैने उसको निढाल, निराशामय देखा अब तो इस असाध्य बीमारी के जाल में वह दिनों-दिन फंसता जा रहा था। अंग्रेजी के साथ-साथ देशी दवाईयां भी देते, तुलसी-गौमूत्र भी देते। बाबा रामदेव के भी दिखाया पर सभी जगह से निराशा ही हाथ लगी। यह जानलेवा बीमारी उसके हाथ धोकर पीछे पड़ गई थी। अब वही प्रक्रिया प्रारंभ हो गई जो अक्सर कैंसर रोगी के होती है। कीमोथेरेपी, इलेक्ट्रोथेरेपी होने के बाद वह काफी कमजोर हो गया था। उसकी हड्डी-हड़ी दिखाई देने लग गई थी। उसकी भाभी उस पर पूरी संवेदना लुटाती जा रही थी। वह कहने लगती, भगवान यह मौत मुझे दे दे। मैं चुपचाप उसकी असह्य सात्वंना सुनता। वह मुझको हमेशा आगे करती, वह उस पर मर-मिटने के लिए तैयार थी, हां अपने पोते-पोतियों को उससे दूर ही रखती। कैसी ममता और कैसा त्याग।। मैं उसको देखता और सोचता। मैं भी कैंसर से डरने लग गया था। उसके घर वाले भी उससे परहेज करने लग गये थे। माँ भी डरने लग गई थी कि मेरे यह | बीमारी लग गई तो मेरी सेवा कौन करेगा?
अब डॉक्टर ने उत्तर दे दिया था। घर ले जाओ, सेवा करो, यह रोगी महीने दो महीने का ! मेहमान है। मैं उसके पास जाता, उसे अजीब शांति मिलती, माँ को वह अपने से दूर रखना नहीं चाहता था। पत्नी को लकड़ी-पीट-पीट कर बुलाता रहता। पहले वह चिड़चिड़ाता रहता, गाली निकालता रहता था, अब उसकी जबान भी सूख गई थी, वह सबके हाथ जोड़ता। उसके व मेरे बच्चे सहित पूरा परिवार घंटों बैठी रहते। माँ तो अपना गांव छोड़, बेटे के सिरहाने बैठ गई थी। सब बेबस थे, भगवान से उसकी मोक्ष मांग रहे थे, पर अभी मौत कोसों दूर थी।
आज लड़का शिविर में गया हुआ था, उसे कमरा नहीं मिल रहा था। श्रीमती जी का दिल कसमसा रहा था, उसकी ममता मुझे शिविर में भेजने को आतुर थी ताकि उसको राहत मिल सके। मैं रात्रि गाड़ी से बैठ गया। माँ को मालूम हुआ तो वह श्रीमती जी पर बरस पड़ी। मां ने कहा इसे हास्पीटल ले जाया जा रहा है और तू उसको भेज रही है। उसने मुझे फोन किया, मैं पुन: लौट आया। वह घर पर ही था। मैं धर्म संकट में था। सुबह बिना पूछे मुझे शिविर के लिए बस में बैठना पड़ा। भगवान से कहा, हे भगवान! तू ही रक्षा करना। पांच दिन बाद श्रीमती जी का फोन आया, उनकी तबियत सही नहीं है, कुछ भी हो सकता है, आप देख लो। मैंने कहा दो दिन और रूकना पड़ेगा, डोर जगदम्बा के हाथ में है। शिविर में भी घोर संकट ही चल रहा था, मैं धर्म संकट में फंसा था। वहां से कई बार फोन नहीं मिलते थे, मैं घर पर फोन लगा कर नजर रखे हुए था।
आठवें दिन मातेश्वरी को प्रणाम कर मैं वहां से भागा, मैनें माँ जगदम्बा से विनती की, कि डोर पकड़े रहना, मेरे पहुँचने से पहले डोर मत खींचना। दो सो किमी. का सफर बहुत लम्बा था। मैंने सब बच्चों को तुरंत फोन करके घर बुला लिया था। रात्रि को कस्बे में पहुंचते ही उसके बारे में पूछा, अभी उसके जीवित रहने का समाचार मिला, मन को तसल्ली हुई।
प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व ही उसके मकान पर चला गया। मकान पास ही था। अब मैंने सोच लिया था कि एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं होना है। माँ वहां पहले से मौजूद थी। मुझे देखकर वह फूला नहीं समाया, मुरझाये चेहरे पर एक क्षण के लिए चमक की लकीर दिखाई दी। पर वह बोल नहीं सकता था। यमदूत ने उसको अपने जाल में फंसा लिया था। शरीर केवल हड्डियों का ढांचा था, सात दिन से पेट में कुछ नहीं था। पेट चिपक गया था। रात को ही बाहर रहने वाले लड़के भी आ गये थे। पूरे परिवार को देखकर उसके प्राणों में जान आ गई। वह कुछ कहना चाहता था, उसने पास रखी कॉपी-पेन की और इशारा किया। मैंने ज्योंही उसको कॉपी थमाई उसने जल्दी-जल्दी अंगुलियों को सम्हालते हुए 'स्नान' लिखा। अब तक उसके इस इशारे को हम नहीं समझ पा रहे थे। उसकी धर्मपत्नी भी भौच्चकी रह गई, जो व्यक्ति रूग्णावस्था में अक्सर नहाने से कतराता था, सहसा स्नान कैसे करना चाहता है? शीघ्र ही कुछ गर्म पानी किया गया। उसने पानी पीने की इच्छा भी जताई। उसे एक गिलास पानी पकड़ाया गया। यह क्या? जिस व्यक्ति से एक बूंद पानी गले से नहीं उतरता था, आज पूरा गिलास गटक गया। उसने प्रसन्न मुद्रा में | इशारे से कहा, अब वह ठीक है, पूरा पानी पेट में चला. गया। अभी उसको स्नान करवाकर कपड़े| पहनाये ही जा रहे थे कि उसके हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे, आंखें ऊपर की ओर चढ़ने लगी। उसके कपड़े बदलने के कारण, मैं अभी कमरे से नीचे उतरा ही था कि मुझे बबलू ने आवाज दी, पापा तुरंत आओ। बच्चे चाचा को घेर कर बैठे थे। उसकी धर्मपत्नी ने पैर के एक तलवे को तथा उसकी भाभी ने दूसरे पैर के तलवे को पकड़कर मालिश प्रारम्भ कर दी। देखते ही देखते पुनः उसकी स्थिति कुछ सामान्य हो गई। उसके ससुराल भी फोन कर दिया गया था। उसने धर्मपत्नी के हाथ को कसकर पकड़ लिया मानो उसे बहुत बड़ा संबल मिल रहा हो। उसे आभास हो गया था कि अब वह मृत्यु के चंगुल से नहीं बच सकेगा। इस बीच उसे तुलसी दल और गंगाजल का पान कराया गया। गीता तो उसे सप्ताह में कई बार सुना चुके थे। बारह बजे तक उसके ससुराल वाले भी आ गये थे। ज्योंही उसने अपने व ससुराल के पूरे परिवार को देखा, उसका वही दौरा फिर आया। आंखे ऊपर चढ़ने लगी, शरीर पूरी तरह अकड़ गया। उसकी श्वास लम्बी-लम्बी चलने लगी। देखते ही देखते उसने एक लम्बी श्वास ली। उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
read nice story
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