शुक्रवार, 15 मई 2020

लॉक डाऊन-एक स्वर्णिम अवसर



    कोरोना का कहर क्या बरपा, संपूर्ण इतिहास की ही काया पलट हो गयी। कभी सोचा था कि माताजी, भैरूजी, बालाजी या बड़े-बड़े तीर्थस्थल में भक्तजनों के लिए सब के पट बंद हो जायेंगे? हजारों-लाखों की भीड़ एकदम अपने आप में सिमट जायेगी? महानगरों का भीड़ तंत्र अपने गाँव की माटी से मिलने के लिए एकदम इतनी बेताब हो जायेगी कि हजारों किलोमीटर की यात्रा नंगे पाँव चलने के लिए तैयार हो जाये? बिना पैसा गंगा-यमुना एवं अन्य नदियों का प्रदूषित जल स्वत: निर्मल हो जायेगा। यातायात का पहियों का चक्का जाम हो जाने से नगरों एवं महानगरों में बेधड़क मयूर नाचने लग जायेंगे? जंगलों के जीव राजमार्गों पर स्वच्छंद विचरण करने लग जायेंगे? वायुमंडल में हवा इतनी निर्मल हो जायेगी कि अन्य व्याधियों का दम घुट जायेगा एवं रोज रोज के एक्सीडेन्टों से मुक्ति मिल जायेगी। हमें यह भी अच्छा लगा कि देश में भामाशाहों की कतार  लग गयी। एक बार सबका हृदय परिवर्तन हो गया। यह कोराना की महामारी नहीं, इसे प्रकृति की महामाया की संज्ञा दे दे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
प्राकृतिक आपदा- विश्व में लगभग तीन लाख व्यक्तियों के अचानक काल के ग्रास में समाना, यह एक बड़ा दुख:द अजूबा है, वह भी ऐसे-ऐसे राष्ट्रों के लिए जो अपने आप को पंच माना करते थे। प्रकृति की चोट भारी होती है, इसमें किसी का कोई वश नहीं होता है। केवल मात्र बचाव ही इसका एक विकल्प है। औषधियों का भले ही कितना भी अनुसंधान करले, यह ब्लांइड ट्रीटमेन्ट ही सिद्ध होगा। इसमें लाभ कम और दुष्प्रभाव अधिक फैलने की संभावना है। वैसे भी पाश्चात्य एलोपैथी ने इलाज के नाम पर केवल अंग-भंग करना ही सीखा है, जबकि आयुर्वैदिक, प्राकृतिक एवं योग चिकित्सा पद्धति प्रकृति के नजदीक होने से दुष्प्रभाव कम और लाभ अधिक देती है।
अब इस समय को स्वर्णिम अवसर में बदलने का समय है। यंत्रीकरण को बाय-बाय एवं मानव तथा पशु संसाधन का उपयोग करने का समय है। स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने का समय है। कृषि, पशु पालन एवं बागवानी को आत्मसात करने का समय है। घरेलू एवं कुटिर उद्योगों के बढ़ावा का समय है। यह सब ग्राम पंचायत अपने स्तर पर अपने आप कर सकती है, सरकार का केवल दिशा निर्देश चाहिए। पर बड़े दु:ख का विषय है कि भ्रष्टाचार इतना अधिक हावी है कि वे हर दृष्टि में पैसा वसूल करना चाहते हैं। यदि जाँच की जाये तो उदाहरण के लिए नरेगा को ही ले लीजिए, सरकार चाहती है कि पैसा सीधे मजदूरों के खाते में ही जाये, पर यहाँ भी प्रशासनिक अधिकारी एक मजदूर से 100-100 या 200-200 रु. लेकर उक्त कार्य जे.सीबी के द्वारा करवाकर मजदूरों को मौखिक रूप में आराम करने की ही सलाह दे रहे हैं, जिससे उनके भी कुछ पल्ले पड़ जाये। और तो और 70 -70 साल के मजदूरों के नाम उस सूची में दिख जायेंगे। प्रश्र यह उठता है कि यदि मजदूरों को बिना मजदूरी किये ही पैसा देना है तो उन्हें कार्य स्थल पर बुलाने की क्या जरूरत?         
समाज का कार्य समाज से होता है, यही वह समय है जब अपने पुश्तेनी कार्य को प्रारंभ किया जा सकता है। जैसे-कुम्हार द्वारा मिट्टी के बरतन बनाना, खाती-लुहार द्वारा फर्नीचर एवं कृषि यंत्र बनाना। दर्जी द्वारा सिलाई करना, नाई द्वारा अपने जजमानों घर-घर जाकर कटिंग एव शादी-उत्सवों में शरीक होना। ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों से यज्ञ हवन करवाना, पर बड़े दु:ख का विषय है कि स्वयं अपना समाज ही उसको अंगीकार नहीं करता, इसमें कहीं न कहीं उनके अहंकार को चोट लगती दिखाई देती है। मैं यह नहीं कहता कि टेक्रोलोजी नहीं अपनानी चाहिए, पर ऐसी टेक्रालोजी किस काम की, जिसमें हमारा मानव एवं पशु संसाधन ही निरर्थक हो जाये। 
मानव एवं पशु संसाधन एक दूसरे का पूरक है। यदि दोनों संसाधनों का उपयोग पूर्णरूपेण कृषि एवं बागवानी में किया जाये तो कोई कारण नहीं कि हमें पौष्टिक आहार, फल, सब्जी, दूध, घी आदि प्रचुर मात्रा में नहीं मिले। एक बार पुन: भारतवर्ष में घी-दूध की नदियाँ बह निकले। पर इन कारखानों ने मजदूरों का ये देशी लाजवाब स्वाद ही छीन लिया, बल्कि  बदले में चारों ओर कार्बनडाईक्साइड का ऐसा गुब्बार छोड़ दिया कि मनुष्य न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी अपंग हो गया। जो सरकारें देश को अपंग करने पर तुली है। शराब एवं अन्य मादक पदार्थों के द्वारा अपनी मोटी चमड़ी वालों का पेट भरने पर तुली हुई है, उससे अपेक्षा करना बेमानी ही होगी। उनके आँखों पर चश्मे की ऐसी काली पट्टी लगी हुई है कि उन्हें चारों ओर प्रजा की भलाई कम और काले कारनामे अधिक नजर आयेंगे।
अन्नदाता बने आत्मनिर्भर- हमें किसानों को कुछ देना ही है तो हर गोपालक परिवार को 500 रु. मासिक एवं प्रत्येक बैलों से कृषि करने वाले परिवार को 1000 रु. मासिक खाते में सीधा पैसा ट्रांसफर किया जाये। लोग कहते हैं कि कारखानों से रोजगार बढ़ता है, मैं तो कहूँगा कि कारखानों से बेरोजगारी अधिक बढ़ती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मान लिया जाये कि दस किसान पूरे दिन में खेत में अपने बैलों द्वारा जितनी जुताई करते हैं, उसके आधे समय में ही एक टे्रक्टर खेत की उतनी ही जुताई कर लेता है तो नौ आदमी एवं अठारह पशु बेरोजगार हुए कि नहीं, यह आपके सोचने का विषय है। मैं मानता हूँ कि मशीनीकरण से समय, पैसा की अधिक बचत अधिक होता है, पर हमारी अधिकाँश जनता व पशुओं को बेरोजगारी की लाईन में जा खड़ा करती है और वातावरण को ऐसा जहरमय बना देता है कि मनुष्य का ही नहीं अपितु समस्त जीव-जंतुओं की जीना हराम कर देता है और साथ ही ऐसी व्याधियाँ सौगात में मिल जाती है, जिसका हमें कभी अन्दाजा नहीं था। फिर ये कल कारखाने क्यों? मंथन करने की आवश्यकता है। आज तो मनुष्य इतना अपंग हो गया कि वह कोई काम करना ही नहीं चाहता। कहावत सिद्ध हो रही हे कि गाड़ी को देखकर लाड़ी के पग भी फूल गये। 
गृहस्थ धर्म-मनुष्य धर्म-कर्म को भूल गया, उसे केवल पैसा और अपना भोग विलास याद रह गया। यदि वह अपने बैलों से खेती करता है तो पशुपालन का धर्म स्वत: सिद्ध हो जाता है और साथ ही मृदा उपजाऊ एवं विषहीन हो जाती है। यही तो गृहस्थ धर्म है जब हम अपने अर्थार्जन को अपने बच्चे-बच्चियों एवं परिवार के पालन पोषण में लगाते हैं। यदि केवल पैसा ही अर्थार्जन करने का उद्देश्य हो तो चोरी-डकेती भी की जा सकती है। और यदि सरकारें ही पैसा-पैसा करने लग जाये तो इससे बड़ी भूखमरी क्या हो सकती है? यही वह समय है, जब हम रिटायर्डमेन्ट की अवधि घटाकर एवं प्रत्येक दंपत्ति में से एक परिवार को न्यूनतम 10 हजार रु. मासिक तक की पगार देकर कृषि, पशुपालन, बागवानी एवं लघु उद्योगों में प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर ही खपा सकते हैं। आज निरीह पशु कत्लेआम हो हैं, क्यों? क्योंकि वे बेचारे बेरोजगार हो चुके हैं और आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि उनके बिना मतलब की चीज का वे परवरिश क्यों करें? हमें एक बार पुन: उन्हें काम पर लगाने की आवश्यकता है, इसमें उनका अत्याचार नहीं, बल्कि उनकी पालना छिपी है। पहले मनुष्य इन गौमाता, बैल, बंदरों, रीछ, साँप आदि के द्वारा भी अपना जीवन यापन कर लेता था। 
  प्लास्टिक को बाय-बाय-यह वह समय भी है जब हमें प्लास्टिक से बनी थैलियों, पत्तलों को बाय-बाय करना ही है, ये केवल हमारे स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं करते बल्कि हमारे पशु धन एवं हमारी मृदा को भी भारी नुकसान पहुँचाते हैं। आज संसार में अधिकांश अमिट कचरा इस प्लास्टिक से ही है। हमें पुन: पर्यावरण की और लौटना ही होगा।   पर्यावरण को निर्मल रखने के लिए सौर ऊर्जा एवं इलेक्ट्रिक वाहन एक अच्छा विकल्प है।  
मत चुके चौहान- ऐसा नहीं कि समय निकल जाये और हम चूक जाये। जल्द से जल्द हमें हमारी इस नवपीढी को कृषि, पशु पालन, घरेलू एवं कुटिर उद्योगों में खपाना है, जिससे महानगर भीड़ तंत्र में नहीं बदले। और इस श्रम शक्ति का दोहन हो और इन्हें संतुलित आहार भी मिले। हमें यह भी सोचना है कि आखिर ऐसे कौन से कारक हैं जिससे इन ग्रामीणों का महानगरों की ओर पलायन हो रहा है, एक बार पुन: प्रत्येक ग्राम पंचायतों में वे छोटे उद्योग प्रतिष्ठापित करने हैं, जिससे महानगरों में भीड़ तंत्र नहीं बढ़े। हमें कोरोना काल से यह भी सीखना है कि मेडीकल टीम एवं पुलिस का पहरा चारों तरफ ऐसा हो कि कोई मनुष्य स्वास्थय और धन के लूट का शिकार न हो। तब ही हम सही मायने में नीरोग, आत्मनिर्भर एवं देश को विश्व का सिरमौर बनाने के साथ लॉक डाऊन को एक स्वर्णिम अवसर बनाने में कामयाब हो सकेंगे।  
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