रविवार, 31 मई 2020

मातृदेवो भवः


हमें प्रसन्नता है कि आज दाधीच सुबोधिनी का परचम संपूर्ण आर्यावृत्त के कोने-कोने में महक रहा है। सभी दाधीच बंधु एवं अन्य लोग भी इसे बड़े चाव से पढ़ते हैं। सुबोधिनी उनकी पहली पसंद बनकर उभर रही है। उनको दाधीच सुबोधिनी का बेतहासा इन्तजार रहता है। यह आपका स्नेहाशीर्वाद है।
दाधीच सुबोधिनी को न किसी प्रकार की डोनेशन की आवश्यकता है और न किसी प्रकार के सम्मान का मोह । हाँ पत्रिका अविरल पहुँचाने के लिए उसको यथेष्ट विज्ञापन चाहिए, जिससे आर्थिक स्तभं मजबूत बना रहे और यह आपकी अनुकंपा से हमें निरंतर मिल रहा है। हमें प्रसन्नता होती है, जब किसी का विज्ञापन लगने पर उनका कार्य सहज ही हो जाता है चाहे वह बायोडाटा के रूप में हो या प्रतिष्ठान के रूप में। हम चाहते हैं कि आपके सकारात्मक कदम को प्रभावी बनाने के लिए हम एडी चोटी का जोर लगा दें। दाधीच सुबोधिनी पूर्ण रूप से सत्यता पर टिकी है। जो भी वस्तुस्थिति देखती है, उसका ज्यूं का त्यूँ निर्भयतापूर्वक समाज के समक्ष रखना ही उसका दायित्व है, यही पत्रकार का धर्म भी है। ताकि जनता-जनार्दन के पास वास्तविक तथ्य पहुँच सकें। हमें नाज है दाधीच सुबोधिनी उसे सहजता से निर्वहन कर रही है। सब जानते हैं दाधीच सुबोधिनी निष्पक्ष पत्रिका है। सत्यता ही उसका आधार है। हमारे लिए ना कोई दोस्त है और ना ही कोई दुश्मन। 'ना काहुँ से दोस्ती, और ना काहुँ से वैर।' परोपकार ही हमारा उद्देश्य एवं धर्म है हम तो केवल इतना ही चाहते हैं कि 'साई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा ना रहूँ साधू न भूखा जाये।' इसी कारण आज सुबोधिनी समाज की मुख्य चहेती पत्रिका बन गई है।
दाधीच सुबोधिनी का मुख्य उद्देश्य देश को एकसूत्र में बाँधकर समाज के नवयुवक/नवयुवतियों की समय पर शादी रचाकर गहस्थ धर्म का बोध कराना है। आजकल भौतिक चकाचौध एवं आर्थिक मृगतृष्णा में युवक/युवतियों की समय पर शादी न हो पाती है, जिससे वे गृहस्थ धर्म का पालन कैसे करें? पिछले कुछ वर्ष पहले अक्टूबर, 2016 में 'थूंको और चाटो' लेख में इसी तथ्य को इंगित किया गया था। हमें प्रसन्नता है कि देश के कोने-कोने से उस पर ढेर सारी प्रतिक्रियायें आई थी। कईयों ने उलाहना दिया कि आपके विचार ओछे हैं, तो कईयों ने कहा कि आपका लेख ताजा हालात का बयान कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य ही जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना है तथा वांछनीय भावनाओं को जागृत कर दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।


कौन कहता है कि हम नारी से नफरत करते हैं, शायद वे हमारी मूल भावना नहीं समझते। नारी के बिना नर का कोई अस्तित्व नहीं है। नारी ही नर की खान है। सारी सृष्टि उसकी कोख से निकली है, तो हमारी क्या बिसात जो हम दोषारोपण करें। हमारे भी वर्तमान में चार-चार बहुएं हैं जो बेटों से भी बढ़कर है। हम आभारी हैं उनके जिन्होंने अपनी पुत्रियाँ सहेजकर हमें कन्यादान के रूप में दी है। उनके बिना हमारी संतति का पालन कौन करे? समय पर भोजन व आगन्तुक अतिथियों का स्वागत कौन करें? क्या किसी परिवार का मार्गदर्शन व घर की साज-सज्जा क्या एक पुरुष के बलबूते हो सकती है? या यूँ कहे पूरा घर उनके बिना सूना-सूना है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दुर्भाग्यशाली हैं वे एकल परिवार जिनके दंपति कामकाजी होने के कारण उनके घर पर हर रोज ताला लटका हुआ मिलता है। उनको तो सुध ही तब होती है जब उनके बच्चे-बच्ची बिगड़ जाते हैं या जवानी की दहलीज पर दस्तक देकर फिसलने लगते हैं, तब कहीं जाकर उनको समाज की याद आती है। केवल किताबी पढ़ाई पढ़ने से काम नहीं चलता, मैडम बनने से बाहरी दिखावटी सत्कार भले ही मिल जाये, लेकिन सास-ससुर और परिवार जन को सबसे अधिक खुशी तो तभी मिलती है, जब बहू ससुराल में रहकर घर आंगन को महका दें।
ससुराल के परिवार जनों का भी कर्तव्य है कि हम जब नववधु को लेकर आते हैं तो उसका मान-सम्मान रखें, उसे पीहर के प्रति व्यंग्य बाणों से छलनी न करें। वह भी अपने पीहर अपने माता-पिता, भाई-भोजाई, चाचा-चाची, भतीजा-भतीजी सब को छोड़कर आती है। आप सभी समाज जनों की साक्षी में उसे ससम्मान ससुराल लाते हैं तो उसे पूर्ण सुरक्षा दें। वह भी सोचे कि मैं यहाँ सब कुछ छोड़कर आई हूँ तो दो-चार कड़वी बातें सुनने को मिले तो मैं उसे सहजता से सुन लूंगी, लेकिन मेरे मन से एक भी कड़वी बात नहीं निकलेगी, क्योंकि वाणी के घाव सहज नहीं भरते और वह भी बहु के मुँह से।
हम बार-बार समय पर शादी पर क्यों जोर देते हैं? क्योंकि शादी का संबंध ही उम्र से हैं, शिक्षा से नहीं। यदि समय पर शादी न होगी तो हमारा दाधीच वंश ही धूमिल हो जायेगा, हम दधीचि वंश कहलाने लायक नहीं रहेंगे। हमारी संतति मुख्य धारा से भटक कर पथभ्रष्ट हो जायेगी। शिक्षा तो वह माध्यम है जिससे हम सच्चरित्रता से गृहस्थ धर्म का पालन कर सकें। शिक्षा कभी पूर्ण नहीं होती। पर वास्तविकता यह है कि आज लड़कियाँ पढ़ ही इसलिए रही है कि उसे सरकारी नौकरी मिल जाये। ज्ञान ही प्राप्त करना हो तो हम धर्म ग्रंथों का ढेर लगा दें लेकिन क्या वह पढ़ सकती है? उसे तो केवल और केवल डिग्री चाहिए ताकि वह भी बेरोजगारी की लाईन में जा खड़ी हो और बेचारे बेरोजगार युवक हाथ मलते रह जाये। क्या यह आपको शोभा देती है? अन्त्वोगत्वा न डिग्रीधारी लड़की की शादी हो पाती है ओर न कमाऊ पूत की।

मैं समाज व सरकार से अपील करता हूँ कि वे समाज की नब्ज पकड़ते हुए बेरोजगार युवकों के हित में युवतियों व बुजर्गों को सरकारी नौकरियां छोडने की अपील करें। वैसे भी गृहणियों के लिए गृहकार्य एवं सेवानिवृत्त व्यक्तियों के लिए समाजसेवा जैसे पुनीत कार्य मुँह बायें खड़े हैं, यही धर्म है। धर्म से जुडकर ही हमें शांति मिल सकती है।
सभी माताएँ संकल्प लें कि हम हमारी पुत्रियों को गृहस्थी का सारा कार्य 18 वर्ष से पहले-पहले सिखाकर उन्हें गृहस्थ धर्म के लिए समय पर कन्यादान करेंगे। प्रथम व सर्वोपरि गुरू भी उनकी माँ ही है । यदि उनके पुत्र/पुत्री रास्ता भटकते हैं तो सर्वाधिक दुःख भी उन्हें ही होगा। आप समय पर कन्यादान नहीं करेंगे तो आप ही के समाज का पुत्र कैसे विवाह रचायेगा? रजस्वला के ठीक तीन वर्ष पश्चात अथात. 18 वर्ष तक आते-आते उसका विवाह कर दे, यही आपका धर्म भी है और दायित्व भी, तब ही हमारे संस्कार उज्ज्वल रह पायेंगे। मनुष्य जाति का संपर्ण विकास ही विवाह पर टिका है। विवाह से ही जन्म, प्रजनन एव मृत्यु का चक्र गतिमान होता है। चाहे किसी प्रकार का विवाह हो, विवाह के बिना जन्म और प्रजनन कैसे संभव है? तथा बिना जन्म के मृत्यु भी बेमानी है
सम्मेलन के आयोजकों से पुनः निवेदन है कि आप अपने नवयुगलों के प्रमाण पत्र में यह शर्त अवश्य इन्द्राज करवादें कि नवयुगलों के तलाक होने पर किसी भी परिस्थिति में आयोजन कमेटी की ओर से दिया गया सामान पुनः सम्मेलन में जमा कराना होगा। जिससे नवयुगलों के तलाक होने पर हम अपनी ओर से कुछ पाबंदी लगाकर समाज को एकसूत्र में बांध सकें। इसके पहले एक फार्म में दोनों पक्षों की ओर से इस बाबत हस्ताक्षर करवा लेना चाहिए। अन्यथा शनै-शनै सम्मेलन की गरिमा पर भी कलंक के दाग लग जायेंगे। सभी स्वजनों से निवेदन है कि अधिकाधिक रूप से अपने संतति का विवाह सम्मेलन के माध्यम से ही कर हजारों स्वजनों का आशीर्वाद ग्रहण करें।
हमें अपेक्षा है कि नवनिर्वाचित महासभाध्यक्ष से कि समाज की इस विचार धारा को गति दें, इसी में सभी का मंगल है। एक मंदिर का जीर्णोद्धार तो क्या सैंकड़ों मंदिर का जीर्णोद्धार, यदि समाज सुरक्षित है तो आप ही आप हो जायेगा। किसी भी शुभ कार्य में आपकी साक्षी होनी चाहिए, जिससे समाज का हौंसला बढ़ सकें। हमें प्रसन्नता है कि लोकतांत्रिक तरीके से नवनिर्वाचित महासभाध्यक्ष इस पर खरा उतरेंगे, इसके लिए समाज के जागरूक एवं वयोवृद्ध व्यक्तियों की कमेटी बनाई जा सकती है, जिससे समय पर शादी एवं तलाक पर लगाम लगाई जा सकें । तब ही गृहणियों के सम्मान पर चार चांद लग सकेंगे। दाधीच सुबोधिनी के भी मुख्य उद्देश्यों मे नारी को भौतिकवादी संस्कृति से उबारकर उसके गौरवमय अतीत 'मातृदेवो भवः' एवं यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' की ओर अग्रसर करना है। नारी की गरिमा ही हमारी सौगात है। हम इससे पीछे नहीं हटेंगे।

माँ का रूप केवल मनुष्यों में नहीं, वरन सभी जीव -जंतुओं में देखने को मिलता है
समय पर शादी-मन की आजादी
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