हर
परिवार में प्रात:काल दूध आवश्यक होता है, चाहे वह दूध को बच्चों को पिलाये या स्वयं पीवे या दूध जमाकर दही बनावे, खैर यह सब करे या ना करे, इस दूध से चाय सबके बनती है। व्यक्ति चाय के बिना अपने आपको तरोताजा नहीं समझते या यूँ कहे चाय के बिना उनको पाखाना भी साफ नहीं उतरता। यह
भी हमारी संस्कृति
में एक कलंक
है कि हर
समय मेहमान की
आवभगत चाय से
ही होती है।
चाय के बिना
मेहमान एवं मेजबान
अपने आपको बेगाना
समझते हैं, अत:
गोपाल को भी
गोदान के पश्चात्,
दूध के लिए
मुहल्ले में गांव
का एक गूजरों
का एक लड़का
जो सुबह-सुबह
दूध देने आता
था, उस गोपालक को टोकना
पड़ा।
गोपाल प्रात:काल
ऑखें मलता-मलता
उठा तो देखता
है कि वह
गोपालक कपड़े धोने की
हौदी में से
बाल्टी के द्वारा
पानी निकालता हुआ
अपने दूध के
ड्रम में पानी
उड़ेल रहा था।
गोपाल ने उसे
टोका कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? गोपालक
ने उत्तर दिया
कि तुम्हारा दूध तो मैंने गोपी के
बरतन में पहले
ही डाल दिया
है, यह दूध
तो औरों के
जायेगा। गोपाल ने कहा
अरे भाई, दूध
में पानी ही
मिलाना है तो
पीने के पानी
में से मिला
लेते, यह हौदी
का गंदला पानी
मिलाने से तो न जाने
कितने की काया
बिगड़ जायेगी। गोपालक
ने उसकी एक
बात नहीं सुनी
और वह वहाँ
से चल दिया।
उसी दिन
गोपी और गोपाल
ने निश्चय कर
लिया था कि
अब इस गोपालक
से दूध नहीं
लेगा, पर हो
सकता है, दूसरा
भी वैसा ही
निकल जाये। सारे
के सारे ग्वाले
दूध की क्रीम
निकालकर दस-ग्यारह
बजे तक आते।
कई ग्वाले ऐसे
थे जो अपनी
गायों भैंसों के
इंजेक्शन लगाकर उसका दूध
निकालते। कस्बे
में कुछ कृत्रिम
दूध का उत्पादन
भी करते जो
जानलेवा तक था,
पर इस अराजकता
के माहौल में
भी दूध तो
आवश्यक ही था।
गोपी और गोपाल
को गौमाता के
बिना अपना जीवन
अधूरा लगने लगता।
अब उसे एक
ऐसी गौमाता की
आवश्यकता थी जो
उनके परिवार का
अवलंबन बन पाती,
जिसके रस से
बेजान बच्चों में
पुनः स्वास्थ्य के
ज्वार का समुद्र
उमड़ पड़ता।
शीघ्र ही उनकी
तलाश पूरी हुई।
एक ग्वाले ने
एक हजार रुपये में एक गाय को
देने की हामी
भरी। गोपी ने
गोपाल को उसको
देखकर आने के लिए
कहा और चेतावनी
दे दी कि
वह गाय मोगर
जैसी उदंड नहीं
होनी चाहिए। शीघ्र
ही गोपाल उसको
पास के गांव
में देख आया।
गाय का डील
डौल काफी बड़ा
था। ग्वाले ने
उस गाय को
झूमर के नाम
से पुकारा, झूमर
ने अपने दोनों
कानों को हिलाते
हुए मुँह ऊँचा
उठाया। गोपाल ने गाय
के थनों में
हाथ डाला, गाय
वाकई सयानी थी।
गाय के दो-तीन माह
का बछड़ा था,
पर उस गोपालक
ने स्पष्ट कह
दिया कि यह
गाय बुधवार को
आपके पास भेजी
जायेगी क्योंकि यहाँ ऐसी मान्यता
है कि बुधवार
के दिन भेजी
गई गाय नये
एवं पुराने मालिक
को नुकसान नहीं
पहुँचाती है तथा
गौ वंश में
भी वृद्धि होती है।
बुधवार
के दिन वह
गाय अपने बछड़े
सहित गोपाल के
घर आ गई।
यद्यपि यह गाय
मोगर जैसी उदंड
नहीं थी और
न ही गोमती
जैसी लीडर एवं
ठिगनी, बल्कि यह
डीलडौल में बड़ी
होते हुए भी
बड़ी सयानी थी।
इसका चेहरा निहायत
अल्लाह की गाय
की दुहाई
देता रहता। बछड़ा
घर के अंदर
बांध दिया गया
और झूमर बाहर
बांध दी गई।
झूमर अपने नाम
के अनुरूप दिन
भर झूमती रही।
वह घाणी के
बैल की तरह
दिन भर खूँटे
के चक्कर लगाती
रही। रात्रि को
न जाने कब
उसने चक्कर लगाते-लगाते उस बड़े
रस्से को तुड़ा
लिया। आधा रस्सा
उसके गले
में लटका-लटका
छ: कि.मी.
चलकर वह पुराने
मालिक के पास
उसके गांव पहुंच
गई।
सबह तड़के
जब पुराना गौ
मालिक हाथ मलते-मलते उसकी
देखता है कि
झूमर उसके खूँटे
के पास खड़ी
है तथा उसके
पास रात बछडा
नहीं है। गले
पर आधी टूटी
हुई रस्सी लटक
रही है तो
व समझ गया
कि यह जरूर
भाग कर आई
है । इसको
वापिस ठिकाने छोड़ने
पर ही इसका
व मेरा भला
है, बछड़ा भूखा
होगा सो अलग।
इसका नया मालिक
बछड़े के दुःख
से और बेहाल
होगा। वह बेचारा उसको छोड़ने स्वयं आया। तत्पश्चात् ही उसने अपना काम संभाला। अब गोपाल ने झूमर को अंदर बांध लिया था, पर झूमर का उसकी सहेलियों के बिना मन नहीं लग रहा था। वह दिन भर मकान के अंदर इधर-उधर घूमती रही। वैसे झूमर बहुत सीधी-रादी थी, पर उसके उड़ते हुए मन ने मकान के चारों ओर पाँच-पाँच फीट ऊंची दीवार को छलांग लगाने पर मजबूर कर दिया। एक बार वह फिर मकान के बाहर चली गई। उसका बछड़ा अंदर का अंदर ही रह गया। बछड़े की टेर ने झूमर के बढ़ते हुए पैरों में मोह का बंधन डाल दिया। झूमर ठहर गई एवं मकान के चारों ओर चक्कर काटने लगी। थक-हार कर वह मकान के बाहर नीम की छाँह तले बैठ गई।
शाम का वक्त हुआ, बछड़े की टेर ने उसको घर का रास्ता दिखा दिया। वह घर में आ गई । बछड़े को दुग्धपान करा कर वह वहीं बैठ गई। अब उसने सोच लिया था कि मुझे इसी घर में रहना है। बेचारी सयानी इतनी थी कि कभी खाने के लिए नाज-नखरे नहीं करती, जो मिलता उसे बड़े आनंद से खाती। धीरे-धीरे मुहल्ले की अन्य गौ माताएं भी उससे घुलमिल गई। अब वह बड़े आराम से रहती। खाने-पीने की किसी प्रकार की कोई कमी तो थी नहीं, उसके लिए हरा चारा मोल मंगा लिया जाता, जौ का बांट निरंतर चलता रहता, शाम के समय कांकड़े में गुड़ मिलाकर खिलाया जाता, परिणाम यह हुआ कि जल्दी ही वह फिर गर्भवती हो गई।
यद्यपि मनुष्य की उम्र सौ वर्ष मानी जाती है। शास्त्रों में यह वर्णन मिलता है कि मनुष्य अपनी योग साधना के बल पर हजार-हजार वर्ष तक जीते थे, परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि पहले मनुष्य की मृत्यु की दर अधिक थी। मनुष्य जंगली जीव-जंतुओं, नाहरबघेरा, सर्प-बिच्छुओं तथा तपेदिक, चेचक, कुष्ठ आदि बीमारियों की भेंट चढ़ जाता था। आज मनुष्य की औसत आयु 60 वर्ष से अधिक नहीं रह गई है। वह पशुधन के गौरस एवं पशुधन के निमित्त किये जाने वाले परिश्रम के अभाव में वह रक्तचाप, शुगर, हार्ट अटैक, दमा और यहाँ तक कि कैंसर जैसी घातक बीमारियों से जूझता दिखाई दे रहा है, रही सही कसर मोटर दुर्घटनाओं ने पूरी कर दी है। पशुधन को तो वह मूली-गाजरों की भांति कत्ले आम कर रहा है। उसके सामने निरीह पशु कत्लखाने पहुंच रहे हैं। गोपाल को भी यह चिंता लग रही थी कि इन बछड़ों का क्या होगा? उन्हें कोई किसान खरीदने को तैयार नहीं था। अधिकांशतः उसके बधिक ही खरीददारी करते दिखाई देते।
शाम का वक्त था, सूर्यदेव अस्ताचल की ओर बढ़ रहे थे। झूमर को नवबछिया को जन्म दिये तीन दिन बीत चुके थे। झूमर घर के बाहर बंधी हुई थी। झूमर की दुहारी हो चुकी थी। तीन दिन की नवबछिया अपनी माँ के दुग्ध से तृप्त होकर अपने मुंह से दुग्धांचल पर ठुमके लगा रही थी। माँ ने उसे एक ओर कर दिया। वह तृप्त होकर गली के एक सिरे से दूसरे सिरे तक सौ फुट की परिधि में चक्कर लगा रही थी। गोपी भोजन पका रही थी, गोपाल बच्चों के साथ भोजन कर रहा था। गोपी ने भोजन कर लिया था। धीरे-धीरे धुंधलका बढ़ता जा रहा था। गोपी को बछिया का ध्यान हो आया। बछिया वहां नहीं थी। गोपाल ने उसे बाहर पुकारा । झाड़ियों की ओट में देखा। झूमर बेखबर होकर दाना-चारा खा रही थी। बस्ती में इक्के-दुक्के ही मकान बने थे। एक पड़ौसी का घर सटा हुआ था, जिससे गोपाल का पशुओं के चक्कर में कई मर्तबा झगड़ा हो चुका था। गोपाल को कुछ-कुछ शंका हुई। वह उस घर में तीन चक्कर लगा चुका था, पर उस बछिया का कोई अता-पता नहीं था।
उस मकान के बरामदे में एक टैंक था, वह भी उस वक्त ढका हुआ था। गोपाल ने उसे उठाकर देखा तक नहीं। उसकी मकान मालकिन ने उस तीन दिन की बछिया को पानी में डाल दिया था, अब वह बछिया पानी में हाथ-पैर फटकार रही थी सो शायद उसे पोल खुल जाने का भय था। उसने चुपके से उस टैंक के ढक्कन को उठाया और जोर से चिल्लाने लगी कि तुम्हारी बछड़ी इस टैंक में गिर गई है। पडौस की एक साहसी महिला भी आ गई और उसने नीचे झुककर उस बछडी को टांग पकड कर उल्टे ही उसका ऊपर खींच लिया। गोपाल ने देखा कि वह नवबछिया बेदम हो चुकी है, उसकी आंखें सुसप्त हो चकी है। वह भागकर अपने घर के भीतर आया और हनुमान जी की प्रतिमा के सामने हनुमान चालीसा को इस भ्रम में दुहराने लगा कि मानो बछिया की मृत्यु जीवन में परिणित हो जाये।
पर यह क्या? बछड़े में धड़कन अभी मौजूद थी, मानो कोई चमत्कार हो चुका था। बछिया को झूमर के सामने लेटा दिया गया। झूमर को अभी तक इस हादसे का पता नहीं था। उसने अपनी जीह्वा से रगड़-रगड़ कर उसमें नवचेतना प्रवाहित कर दी। उसके सुसप्त शरीर में थिरकन होने लगी। जाड़े के दिन थे, गोपी ने पास में ही अलाव जला दिया था। गोपी ने तेल को गर्म कर उसके पूरे तन-बदन पर मालिश कर दी, पर वह बछिया अभी तक खड़े होने की स्थिति में नहीं थी। उसे खडा कर झूमर के पास लाया गया, पर उसने दुग्धपान की कोई कोशिश नहीं की। शायद वह बहुत बड़े सदमे में आ चुकी थी।
जब किसी का वैभव जागता है तो उससे जलने वाले भी बहुतेरे हो जाते हैं। गोपाल के अब झूमर का वंश बढ़ने लग गया था, वह अब अकेला नहीं था। उसका बड़ा बछड़ा तीन-चार वर्ष का हो चुका था। पड़ौसी उनको देखकर जलभुन जाया करते थे। एक दिन पड़ौसी जालिम सिंह ने गोपाल के बाहर बंधे हुए पशुओं को सुबह-सुबह खोल दिया। और यह दिखाना चाह रहा था कि तेरे पशु मेरे घर में घुसे चले आते हैं और बात ही बात में गोपाल से झगड़ पड़ा। गोपी कुछ तेज तर्रार थी, उसने आव देखा न ताव और जालिम सिंह पर पत्थर दे मारा। जालिम सिंह तो जालिम था ही उसने लट्ठ उठा लिया। गोपाल एवं पडौसियों के बीच-बचाव पर झगड़ा थम गया।
अब गोपाल ने गोपी को समझाया कि इस तीन-चार वर्ष के इस किशोर वय बैल को किसी किसान को दे देने में ही अपनी भलाई है। पड़ौस के एक किसान को निशुल्क लेने के लिए उसने तैयार कर लिया। वह किसान उसको अपने साथ ले गया। दूसरे दिन वह किसान उसको अपनी बैलगाड़ी के पीछे बांधकर खेत में ले गया। वहां जाकर किसान ने उसके कंधे पर हल डाल दिया, पर वह अभी जुताई के लिए तैयार नहीं था। कभी वह इधर-भागता तो कभी उधर, आखिर किसान ने उसके कंधे से जुड़ा उतार दिया। अब किसान ने उसका चारा पानी बंद कर दिया। गर्मियों के दिन थे, तीन-चार रोज बाद जब वह मरणासन्न स्थिति में गोपाल के पास वापस लौट कर आया तो गोपाल और गोपी की आंखें भर आई। उसको पानी की बाल्टी दिखाई, पर उसने उसकी तरफ देखा तक नहीं। गोपी ने अंदर से कुछ भूसा गुड़ में मिलाकर दिया, तब कहीं जाकर उसने बेमन से उसे खाया। एकाध घंटे बाद में कुछ पानी पीया। दो-तीन घंटे बाद वह सामान्य स्थिति में आया। गोपाल को उस किसान पर क्रोध आ रहा था, पर क्या करें? सब के सब स्वार्थी मक्खीचूस जो हो रहे थे। दया नाम की चीज़ मानो पृथ्वी पर से उठ गई थी।
गांव की जैसे कस्बे में यहां कोई घेर तो थी नहीं, साथ ही पड़ौसियों के इन निरीह पशुओं से झगड़े गोपाल की नाक में दम किये जा रहे थे। गोपाल ने अब निश्चय कर लिया था कि गौमाता की सेवा करना इस जमाने में बड़ा दूभर है। गोपाल इसी उधेड़बुन में था कि उसे एक दूसरा किसान मिल गया, उसने अपनी सारी व्यथा उस किसान से कह डाली। गोपाल ने कहा कि मैं झूमर की चराई देने को तैयार हूं, चाहे कितनी भी लगे। उस किसान ने कहा कि तुम ऐसी क्या बात करते हो, तुम्हारी झूमर हमारी गायों में चरेगी, आराम से रहेगी। जब चाहो तब उसे अपने पास ला सकते हो। गोपाल को मानो उसकी मुराद पूरी हो गई।
दूसरे दिन झूमर को रस्सी से बांधे गोपी आगे-आगे और गोपाल झूमर के पीछे-पीछे। उस किसान की पत्नी ने ज्योंही गाय को देखा उसकी त्यौरियां चढ़ गई । गोपाल ने सहमते हुए कहा कि तुम्हारे आदमी ने ही कहा था कि तुम्हारी गाय हमारी गायों के साथ रह लेगी और हम कोई उसकी चराई भी नहीं लेंगे। किसान की पत्नी ने तुनक कर कहा कि इनके कहने से क्या टका मिलता है, काम तो मुझे करना पडता है। तुम तुम्हारी गाय वापस ले जाओ या इसे हमें बेच दो। गोपाल ने अनुनय विनती की कि हम इसकी चराई पचास रुपये से सो-दो सो रुपये देने को तैयार है, पर वह टस से मस नहीं हुई। उसने गाय को अच्छी तरह परखते हुए पुनः दोहराया या तो गाय हमें बेच दो या तम्हारी गाय वापस ले जाओ। बेचारा गोपाल उस गाय के झगडे से तंग आ चुका था, उसने फैसला कर लिया था कि गाय इसी को देनी है। गोपाल ने कहा, हमने यह गाय तुम्हें दी, अब हम नहीं मांगेंगे। उस किसान पत्नी ने कहा कि ऐसे काम नहीं चलेगा, इसका पैसा बताओ। गोपाल गाय की क्या कीमत बताता, वह तो उसके लिए अमोलक गौमाता थी। उसने बात रखने के लिए उसकी कीमत बीस रुपये बतादी। उस किसान व उसकी पत्नी की आंखें फटी की फटी रह गई। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि गोपाल क्या कह रहा है। गोपाल ने गोपी की ओर देखते हुए एक बार पुनः बीस रुपये कीमत बताते हुए कहा कि मुझे इस गौमाता के बदले कुछ नहीं लेना। आज से यह झूमर तुम्हारी और वे घर लौट आये।
तीन-चार माह बीत गये, बरसात के दिन थे। गोपाल और गोपी अपने घर में गौमाता की ही चर्चा कर रहे थे कि दूसरे मुहल्ले की एक लड़की ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलने पर उसने कहा कि अंटी जी तुम्हारी गाय ब्याह गई है, उसके एक बछड़ा भी हुआ है। गोपी और गोपाल भागे-भागे वहां पहुंचे तो झूमर उनको देखकर बडी हर्षित हुई। वैसे भी झूमर हर रोज गोपाल और गोपी को देखने के बहाने उनके घर अवश्य जाती और गोपी हमेशा झूमर को रोठी दिये बिना नहीं रहती। झूमर को इस हालत में देखकर गोपी की ममता जाग गई, पर गोपाल को उस किसान को दिया हुआ वचन याद आ गया। उसने गोपी को समझाया कि यह अब हमारी अमानत नहीं है। पड़ौसी लड़के द्वारा उस किसान की गृह लक्ष्मी को बुलाया गया। उस किसान की पत्नी के आने पर ही गोपाल और गोपी अपने घर आये।
गोपी के पास दस किलो जौ थे, उसने एक पीपे में भरा और उठाकर उस किसान पत्नी के पास ले गई और कहा कि तुम इसे झूमर को खिला देना साथ ही मेरे पास कुछ खल और कांकड़ा भी है वे भी तुम मंगा लेना, मैंने इसके लिए ही रख रखे हैं। किसान पत्नी की बोलती बंद हो गई, आज उसकी स्वार्थपरता पर गोपी की दानशीलता विजयान्मुख होकर हंस रही थी।
दूसरों को झूमर रूपी गौमाता का उपहार भेंट करते हुए भी गोपी और गोपाल को ऐसा लग रहा था मानो गौमाता हमारी ही है और हमारी ही रहेगी। उन्होंने एक बार पुनः अपनी झूमर के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया था। आज उनका मन बड़ा प्रसन्न था।
॥गौ सेवा परमोधर्मः॥
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