सोमवार, 8 जून 2020

ज्ञान की सार्थकता



        

        ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान से बुद्धि विकसित होती है। बुद्धि से विवेक जागृत होता है। विवेक से भले-बुरे की पहचान होती है, विवेक के जागृत होने पर मनुष्य के हृदय में हर जीव जंतुओं के लिए दया भावना उमड़ती है। यह ज्ञान ही है, जिसने तार्किक कसौटी पर कसकर 'विज्ञान' को जन्म दिया। आज विज्ञान का चमत्कार किसी से छिपा नहीं है, पर उसका सकारात्मक उपयोग नितांत होना आवश्यक है। आज हम इसी ज्ञान का सहारा लेकर हमारे वेद-पुराणों को पीढी दर पीढी संरक्षित रखने में कामयाब हो पाये। ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही हम उच्चतर पढ़ाई कर रहे हैं। उच्चतर पढाई से ही हम जीवन में कई शोध-अनुसंधान प्राप्त कर रहे हैं। यह वह ज्ञान ही है, जो हमें हमारी आत्मा को शांति प्राप्त करने के साथ-साथ हमारी संस्कृति का अनुशरण कर हम दूसरे देशों को भी उसी शांति-सन्मार्गका रास्ता दिखा रहे हैं, इसी कारण हमारा 'आर्यावृत्त' सदियों से विश्व का सिरमौर रहा है। 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना के बल पर ही सब हमारे साथ भी है। इसी ज्ञान के बूते मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करता हुआ मोक्ष का द्वार खटखटा देता है। पर आज जो हम पढ़ाई कर रहे हैं, वह हमें केवल और केवल नौकरी के लिए हमको पराश्रित कर रही है। विद्याया सा विमुक्तये।' पर हो उल्टा रहा है, हम विमुक्त नहीं होकर, दूसरों के अधीन हो रहे हैं। आज सुज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई रामायण-गीता जैसे धर्मशास्त्रों की ओर कोई देखता तक नहीं हैं।
        आज क्या लड़की और क्या लड़के सभी ज्ञान प्राप्त करने के लिए पढ़ रहे हैं? नहीं। वे केवल और केवल सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए सारे दाँवपेच लगा रहे हैं। सरकारें भी उनको जातिगत छात्रवृत्तियाँ, लड़कियों को साईकिलें व स्कूटियाँ, एवं कई तोहफे बाँटकर सरकारी व प्राइवेट विद्यालयों को (दुकानों) को चमकाने पर लगी हुई है। किसी प्रकार का कोई मापदंड नहीं, जिसने पैसे अधिक भर दिये, बस उसी को शीघ्र मान्यता। परीक्षा में पास होना भी इतना आसान कि नियमित छात्रों के लिए बोर्ड परीक्षा में 20 प्रतिशत नम्बर अपने स्तर पर दिये जाते हैं, भले ही वे मुख्य परीक्षा में भी उस अनुपात से नम्बर अर्जित नहीं कर पाये। सब चुप है, किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं है। गले में घंटी कौन बाँधे । कर्मचारी तो स्वयं ही गुलाम है, वे क्या विद्या से मुक्त कर पायेंगे? जातिगत एवं लैंगिक भेदभाव की मिशाल यही विद्यालय से देख लीजिए।
        माता-पिता अपने बच्चों को उच्च से उच्च पढ़ा लिखाकर उनका जीवन बनाना चाहते हैं, पर उनका जीवन घोर अंधेरे में हो जाता है। नौकरी प्राप्त कर वे माँ-बाप को अवश्य भूल जाते हैं। अधिकांशतः वे अपना अलग मकान बनाकर माता-पिता से दूर रहना अधिक पसंद करते हैं। उनके लिए यह मंत्र उनकी धर्मपत्नियाँ हमेशा फूंकती रहती है। न वह सामने आती है। मोहरा उसका पति ही बनता है। माता-पिता व पुत्र के बीच में खटास पड़ जाती है। बेचारा पति अपने दायित्व से विमुख होकर अंतर्द्वंद में फँस जाता है। यही तो स्त्री चाहती है। उस पर किसी का नियंत्रण नहीं रहे, जब चाहे, जहाँ चाहे घूम-फिरे, अकेला पति ही तो है, मना लेंगे। पति को भी उसके आगे समर्पण करना पड़ता है। फिर माता-पिता को अपनी संतति को पढ़ाने से क्या लाभ? जिसमें वह अपना दायित्व ही भूल जाये। बिना दायित्व और कर्तव्यपालन के वह मुक्त कैसे हो सकता है ? अंतोगत्वा उसे दुबारा जन्म लेना ही पड़ेगा। उसके कर्म-अकर्म का फल उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। बल्कि उच्चतर पढ़ा-लिखा विदेश में जाकर अपनी मातृभूमि से कन्नी काट लेता है, वही विदेशी मैम उसकी बीबी बन जाती है। देश की सेवा अधूरी रह जाती है। यदि दायित्व की छटपटाहट देखनी हो तो उनके माता-पिता की देखो, जिसकी संतति । चाहे लड़का हो या लड़की जो तीस साल तक भी कुँवारे है, उनकी रातों की नींद गायब रहती है।
        उच्च पढ़ी-लिखी लड़कियों की स्थिति लड़कों से और भी बदत्तर है। वह उच्च पढ़-लिखकर भी 'अभागी' हो जाती है। उसके योग्य वर के तलाश में माता-पिता को जिन्दगी भारी तनाव में बीतती है। न किसी को कह सकते हैं और न ही पचा सकते हैं। तनाव के चलते वे जल्दी ही काल कवलित हो जाते हैं। लड़कियों के नाम महिला सशक्तिकरण का झंडा झूठा ही साबित हो रहा है। उन्हें भी जैसे तैसे किसी का अवलंबन पकड़कर प्रेम विवाह में बँधना पड़ता है। यह अलग है कि वह कितने दिन तक चलता है?
        सारा किया कराया लालच का प्रतिफल है। माता-पिता उसी लालच में अपने बच्चों को पढ़ाते हैं। साथ ही एक-दूसरों की देखा-देखी होती है। नौकरी मिलना तो दूभर है। सरकार तो उनको बेरोजगारी की लाईन में खड़ा कर उनसे प्रतियोगी परीक्षा के नाम पर लूट रही है। उन्हीं के पैसों से अपना व अपने कर्मचारियों की तोंद मोटो कर रही हैं। जब हमारे देश में उतने पद सृजित ही नहीं है, तो हम इन प्रशिक्षणालय से हजारों युवकों को क्यों प्रवेश देते हैं और जब प्रवेश दे ही दिया तो क्यों नहीं इनको रोजगार में खपाते? ऐसी स्थिति में इन प्रशिक्षणलयों के ताले लगवा दिया जाये तो ही बेहतर है। यह सरासर अन्याय है कि जिस देश में एक नवयवक को दस हजार रु. मासिक नहीं, और ये राजनेता व उनके कर्मचारी कहीं-कहीं तो एक ही परिवार में स्त्री-पुरुष दो-दो मिलकर एक-एक लाख रुपये उड़ा रहे हैं। आज महात्मा गाँधी होते तो उनकी आत्मा निश्चित रूप से कचोटती कि जिस देशवासियों के लिए मैंने कोट-पेंट-टाई सब छोड़ी, आज उसी देश में लूट मची है। ये पढ़े लिखे नवयुवकों के लिए धोखा है। जनसंख्या का रोना भी ऐसे लोग ही रोते हैं, जो किसी को पल्लवित होते नहीं देखना चाहते। आज पड़ौसी चीन की तो ऐसे हालत हो गई कि उन्हें एक से अधिक बच्चों के पैदा करने के लिए प्रेरणा देनी पड़ रही है।

        यह बात समझ से परे है कि पुरुष और स्त्री में रूप, आकृति, प्रकृति, आवाज, स्वभाव आदि में भारी अन्तर होते हुए भी उनको पुरुष जैसे कार्यों में घसीटना पड़ रहा है, वह महज पैसों के लिए आकर्षित हो रही हैं। मीडिया भी लड़कों पर लड़कियाँ भारी', 'लड़कियों ने बाजी मारी', जैसे शब्द लिखकर झूँठी वाही-वाही लूट रही है। यही नहीं, देखा जाये तो लैंगिक-भेद को बढ़ावा दे रहे है। पाठ्यक्रम में भारी विसंगतियाँ हैं. पाठ्यक्रम का दैनिक रोजमर्रा के कार्यों से कोई लेना देना नहीं। ऐसी पढाई से क्या हासिल हो सकता है, बल्कि स्त्री-पुरुषों के साथ रहने पर दामन पर छींटे और पड़ते हैं। घर का कार्य किसी अन्य स्त्री के भरोसे छोड़ना पड़ता है, ऐसी कामकाजी स्त्रियों से सेवा की उम्मीद करना बेमानी होगा। वे क्या आगंतुकों की आवभगत कर पायेंगी? गौमाता या अन्य जीव जंतुओं की सेवा तो दूर की कौड़ी की बात है।
        ज्ञान वह सार्थक है, जो आत्मा को शांति-आनंद प्रदान करते हुए परोपकार की प्रेरणा दें। व्यक्ति को पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए समस्त वसुधैव कुटुंबम् की सत्प्रेरणा दें। लोभ-लालच से दूर रखें। मोह को विमोह में रूपान्तर कर कर्त्तव्य मार्ग प्रशस्त करें। परिवार में मर्यादा बनाये रखें। वाणी पर संयम की प्रेरणा हो। दान-दया से हृदय सरोबार हो। पुरुष-स्त्री को अपने-अपने कार्य क्षेत्र में दक्षता प्रदान करें। समय बलवान है, इसकी पालना के साथ अनुशासन का पाठ पढ़ावे। तब ही हमारा ज्ञानवान होना सार्थक होगा।
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