आज समाज की स्थिति बड़ी भयावह है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, उसकी जगह एकल परिवारों ने ले ली। अब वहाँ किसी का डर-धोखा नहीं रहा। झगड़ा होने पर उन्हें कोई समझाने वाला भी नहीं रहा। कमाने वाली लड़की अपवाद स्वरूप ही संयुक्त परिवार में रहती होगी, अन्यथा सरकारी नौकरी शुदा लड़का हो या लड़की अपना अलग घर बसा लेते हैं, वृद्धावस्था में माता-पिता शरीर से अपाहिज हो जाते हैं, उन्हें वृद्धाश्रम का सहारा लेना पड़ता है। परिवार में कोई किसी की सुनना ही नहीं चाहता। जबकि पहले संयुक्त परिवार में एक-दूसरे का निर्वाह हो जाता था। मान-मर्यादा भी बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में माता-पिता भी केवल शादी तक का अपना दायित्व निर्वाह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
आजकल ऐसे संयुक्त परिवार में कोई अपनी बेटी ही नहीं देना चाहता। उनकी सोच केवल यह रहती है कि यदि परिवार एकल है तो हम जब चाहे अपनी बेटी को बुला सकते हैं, जब चाहे हम उनके घर बेझिझक आ-जा सकते हैं, कोई टोकाटोकी करने वाला ही नहीं होगा। आजकल तो लड़के-लड़कियों की उम्र 30-35 तक पहुँच रही है। समाज के संगठक मौन है। सम्मेलन के आयोजन कर्ता भी इस परिप्रेक्ष्य में कोई कदम नहीं उठाना चाहते। कोर्ट समाज के संगठनों को खाप पंचायत की संज्ञा दे, उनका मखौल उड़ाता है। इसमें सरकार की समाज में दखलदांजी किसी से छिपी नहीं है। जबकि हमने कई बार लिखा है कि कोर्ट को भी इन सामाजिक पंचायतों के पक्ष को जानने की अनिवार्यता लागू करनी चाहिए, जिससे ऐसे सामाजिक केसों का अंबार नहीं लगे और समाज सुदृढ़ हो। परिवार से ही समाज एवं समाज से ही राष्ट्र का निर्माण होता है।
दूसरा कारण यह पढ़ाई है, जिसके मापदंड पर हर माता-पिता उस पढ़ाई के आगे हर रिश्ते को गौण समझने लगे हैं। चाहे लड़का अपनी रोजी-रोटी आराम से चला रहा हो, पर उसकी तरफ वे देखते तक नहीं है। और तो और अपने पांडित्य कर्म करने वाले को भी ये लड़की वाले (स्वयं ब्राह्मण होकर)हेय नजरों से देखते हैं, फिर वे अपना कर्म क्यों करेंगे? उधर लड़कियाँ अधिक पढ़-लिखकर भी अविवाहित जिन्दगी जी रही है। आखिर कब तक! उन्हें स्वयं पता नहीं है। माता-पिता के आँखों पर पट्टी लगी हुई है। उन्हें सरकारी नौकरियों के आगे कुछ दिखाई नहीं देता। सरकार भी लड़कियों को हर तरह से खैरात बाँट रही है। बेचारे लड़के पढ़-लिखकर भी बेरोजगार घूम रहे हैं। उनका विवाह तक नहीं हो पा रहा है। आजकल मर्यादा तो रही नहीं, बीगैप, लूप जैसे परिवार नियंत्रक धड़ल्ले से विज्ञापित हो रहे हैं। यही कारण है कि उच्च पढ़ाई पढ़ती हुई लड़कियाँ गैर समाज के साथ भग रही है। माता-पिता को भी उनके आगे घुटने टेकने को मजबूर है। लड़कियाँ स्पष्ट रूप से अपने उस गैर-बिरादरी प्रेमी के लिए अपने माता-पिता को आत्महत्या की धमकी दे देती है, फिर बेचारे माता-पिता क्या करे? कोर्ट-कचहरियों का शिकंजा उन परिजनों पर ही कसता है। और आखिर सात जन्मों का बंधन सात दिनों में चकनाचूर हो जाता है। माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं। और तो और जो शादी माता-पिता एवं रिश्तेदारों के सानिध्य में हो रही है, उसका भी कहीं कोई ठिकाना नहीं, स्वयं माता-पिता भी विवाह-विच्छेद की इस अग्रि में हवन दे रहे हैं।
जनसंख्या के आँकड़े भी सरासर गलत है। हमको सिखाया गया कि एक परिवार में पाँच भाई है, उनके चार-चार पुत्र हुए तो परिवार में अभिवृद्धि चार गुना हो गई, जिस जमीन में वह खेती करता था, वह जमीन कम पड़ती गई। अन्तोगत्वा उसको गाँवों से पलायन करना पड़ गया। इस प्रकार जनसख्ंया का आँकड़ा दिन दूना बढ़ता गया और परिवार नियोजन पर जोर दिया जाने लगा। लेकिन जरा यह सोचो, मानाकि किसी परिवार में एक व्यक्ति के अगले 20 से 30 वर्षों में चार पुत्र हुए, और हो सकता है कि अगले 50 से 60 वर्षों में उसके भी चार पुत्र-पुत्री हुए, इस प्रकार हम मान रहे हैं कि सोलह गुना वृद्धि हो गई, लेकिन अगले 60 से 80 वर्ष के बीच में वह भी काल कवलित हो जायेगा, तथा उसके अगले 20-30 वर्षों में उसके चार पुत्र भी मृत्यु के मुँह में समा जायेंगे। फिर अगले 20-30 वर्षों में वे सोलह पुत्र भी काल के मुँह में समा जायेंगे। अर्थात् जन्म लेने वाला हर प्राणी मृत्यु को प्राप्त होगा, फिर कैसा जनसंख्या का बढऩा? अन्तोगत्वा जनसंख्या जो जहाँ थी, वह तो वही ही रह गई। और फिर ऐसे दौर में, जहाँ शादी होना ही बड़ी टेढ़ी खीर है। कोई एक से दूसरी संतान ही नहीं चाहता। और तो और जनप्रतिनिधियों एवं सरकारी कारिन्दों तक में इसे मापदंड के तौर पर देखा जाने लगा है, क्या यह उस अनचाहे भ्रूण की हत्या नहीं है? इसी कारण आज लैंगिक अनुपात भारी गड़बड़ाया हुआ है।
अधिकाँशत: उच्च पदाधिकारी डॉक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर जिसमें पति-पत्नी कमा रहे हैं, उनको पैसे के आगे संतति ही नहीं चाहिए और तो और उनकी सोच यह भी है कि सारा पैसा हमें ही मिले, दूसरों को रोजगार नहीं मिलना चाहिए। उनको ये शर्म ही नहीं आती कि किसी व्यक्ति को 10 हजार भी मयस्सर नहीं और हम एक-एक लाख उठा रहे हैं, ऐसे लोग समाज के चोर है, और सरकार भी इनमें कम दोषी नहीं है। उनका नजरिया एक पिता का न होकर, एक लुटेरों का है। कैसी विडंबना है एक तरफ हम प्रार्थना सभा में बुलाई जाने वाली प्रतिज्ञा में 'समस्त भारतीय मेरे भाई-बहिन है, बोलते हैं, पर उस पर अमल कोई नहीं करते।
आजकल एक नया चलन चला है, पहले शादी फिर तलाक। उधर तलाकशुदा लड़कों के परिजन भी उस तलाकशुदा लड़की की टोह में ही रहते हैं कि किसी भी प्रकार अपने लड़के का संबंध बैठ जाये, फिर कौन किसको समझाये। सबका अपना-अपना स्वार्थ है। समाज का आपस में एक-दूसरे पर विश्वास ही नहीं रहा। इस प्रकार विवाह एक पवित्र बंधन ही धराशाही हो रहा है।
सरकारी प्रयास-1. समाज के क्षेत्र में-यदि सरकार चाहे तो पुन: समाज की प्रतिष्ठा कायम कर सकती है। हर पारिवारिक विवादों के लिए समाज के पंचों का निर्णय अनिवार्य कर देना चाहिए, जिससे न्यायालयों पर केसों का अधिक अंबार नहीं लगे।
2. रोजगार के क्षेत्र में-हर परिवार में प्रत्येक युवक को गारंटेड सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए, जिससे उसकी समय पर शादी हो सकें। चाहे उनका पारिश्रमिक न्यूनतम जीवन स्तर पर ही हो। रोजगार के लिए लड़कियों के लिए शादी की अनिवार्यता आवश्यक कर देना चाहिए, क्योंकि वैसे भी रोजगार की जरूरत गृहस्थी चलाने के लिए ही होती है, तथा पुरुष कमाकर भी अपनी स्त्री व बच्चों पर ही पैसा खर्च करता है। इसके लिए उस दंपति में से उस नौकरी के लिए किसी एक के लिए रजामंदी का विकल्प भी भरवाया जा सकता है। रोजगार सृजित करने के लिए कर्मचारियों के रिटायर्डमेन्ट की अवधि कम की जा सकती है। कृषि-पशुपालन व बागवानी में भी अधिकाधिक रोजगार सृजित किये जा सकते हैं।
3. कृषि के क्षैत्र में-यंत्रीकरण की रोकथाम कर गौमाता एवं बैलों का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए, इसके बढ़ावा के लिए प्रारंभ में प्रत्येक गौपालक को 500 रुपये प्रति माह एवं प्रत्येक बैलों से कृषि करने वाले को 1000 रुपये प्रति माह अनुदान देना चाहिए जिससे पुन: शहरों की तरफ पलायन रुक कर, पुन: गाँवों का विकास हो। सोलर ऊर्जा को अधिकाधिक बढ़ावा देना चाहिए, जिससे किसान कर्जे के नीचे नहीं दबे।
अब भी समय है कुछ करने का, अन्यथा अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
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