संपूर्ण वसुधा में हर जीव पर अंकुश है। बिना अंकुश के हाथी नियंत्रण नहीं हो पाता, अंकुश का ही कमाल है कि शेर जैसा भयंकर खूँखार जानवर भी सर्कस में हजारों मनुष्य के बीच करतब करता दिखाई देता है। हर एक जीव को दूसरे जीव से भय बना रहता है। भय ही वह अंकुश है, जो मर्यादा में रहना सिखाता है। शासन-प्रशासन कानून एवं जुर्माने का भय दिखाकर ही प्रजा पर अंकुश रख पाते हैं।
संत तुलसी ने कहा है-‘भय बिनु होय न प्रीति।’
आज मनुष्य स्वच्छंद रहना चाहता है। जिस समाज में उसने जन्म लिया, जिस समाज में पला-बड़ा हुआ, संस्कारित हुआ। उस ही समाज के कारण वह निर्भयता से सृष्टि रचना का कारक बना, आज वही उसके विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है। वह यह नहीं समझता कि इसी समाज की शरण में आकर राजनैतिक पार्टियाँ जातिगत समीकरण बैठाती है, जातीयता के आधार पर ही सीटों का बँटवारा होता है एवं उसी आधार पर हार जीत का फैसला होता है। आरक्षण का जिन्न भी इसी राजनैतिक कुचक्र की चाल है। इतना जानते हुए भी आज हमारे समाज में बिखराव क्यों?
आज समाज अधोपतन की ओर है। समाज का किसी पर अंकुश नहीं है। वह स्वच्छंद रूप से विचरण करना चाहता है। मनुष्य व्याभिचारी बनता जा रहा है, मनुष्य को उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। माता-पिता की नकेल टूट चुकी है, वे हताशा में जी रहे हैं। वृद्धावस्था में उनके स्वयं का ही कोई धणी धोरी नहीं है। जिस संतति का पढ़ाया लिखाया, शादियाँ रचाई, वे ही विमुख है। कई ऐसे माता-पिता भी है जो अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हुए हैं, इसमें दोष केवल माता-पिता या संतति पर ही नहीं मँढ सकते, असली दोष समाज का है, समाज के कर्णधारों का है।
पूर्व में समय-समय पर समाज की पंचायतें हुआ करती थी, जिन्हें आज खाप पंचायतों की संज्ञा से नवाजा जा रहा है। ये वे ही पंचायतें थी जो आवागमन की कमी के कारण अपने अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग जगह हुआ करती थी। जिनके अंकुश के कारण ही समाज के लड़के-लड़की अनियंत्रित नहीं हो पाते थे। समाज की साख का डर माता-पिता को था तो माता-पिता की इज्जत का डर बच्चों के हाथ में था। यही समाज उन लड़कों को शीघ्रातिशीघ्र परिणय सूत्र में बाँधते हुए उन पर नई जिम्मेदारी सौंपकर मुख्यधारा से जोड़ देते थे। उस समय आजीविका का साधन भी पुश्तैनी था, जिससे समाज का हर तबका एक-दूसरे से जुड़ा रहता था। कहने का आशय यह है कि हर समाज एक-दूसरे पर निर्भर था। आज भी गाँवों में किसी तीज-त्यौंहार एवं विवाहोत्सव पर नाई, कुम्हार, ढोली, हरिजन एवं अन्य जातियों को केवल रोटी ही नहीं, अपितु वस्त्र भी देते देखा जाता है। हाँ यह अलग बात थी कि जिन समाजों में खानपान, रहन-सहन एवं रीतिरिवाजों में काफी अन्तर था, वह समाज अपने-अपने जातीय समूह में अलग-अलग जगह निवास करते थे, पर फिर भी नियम सबके थे।
आज आवाजाही के साधन इतने विपुल हो गये है कि हम अपने इलाकों से उठकर अखिल भारतीय तक की सोच रखते हैं। पलक झपकते ही देश के एक कोने से दूसरे कोने में जा सकते हैं। हमारी पंचायतें अब महासभा के स्तर तक होने लगी है। लेकिन बड़ी विडम्बना है कि आज वर्चस्व की लड़ाई के कारण हम बिखराव की ओर बढ़ रहे हैं। सब पद लोलुप होते जा रहे हैं। एक-दूसरे के सम्मान की भावना लुप्त होती जा रही है। यह जानते हुए कि समाज का हर व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रिश्ते में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, फिर भी रिश्तों की बलिवेदी देने में आमादा है।
आज भौतिक सुख-सुविधा की तृष्णा के कारण शिक्षा का पल्लू पकड़े लड़कियाँ 25 वर्ष से ऊपर की भी अनब्याही बैठी है, न तो उनके परिजनों को शर्म आती है और न ही समाजाध्यक्ष उनको टोकते हैं, न उन पर किसी प्रकार का दण्ड है, चाहे वे लड़कियाँ समाज के बाहर ही क्यों न चली जाये। तदन्तर माता-पिता का भी उस पर से नियंत्रण हट जाता है। फिर क्या अर्थ रह जाता है समाजाध्यक्ष का? होना तो यह चाहिए कि समाजाध्यक्ष समाज की कुरीतियाँ मिटाने के साथ-साथ सामाजिक संबंधों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले तथा कहीं भी रिश्तों में विघटन की समस्या आती है तो उसे मिलजुल कर निराकरण करें।
आज हम सर्व ब्राह्मण समाज की बात करते हैं, कल हम सर्व जाति समाज की बात करने लगेंगे। लेकिन हमारे दाधीच वंश का क्या होगा? माँ दधिमथी एवं महर्षि दधीचि के गौरव का क्या होगा? सोचने की जरूरत है। वैसे भी आज हम वर्णशंकर होते जा रहे हैं। सरकार, कोर्ट-कचहरियाँ भी इन समाज संगठनों को तोड़ने पर आमादा है। आज तो कोर्ट-कचहरियाँ भी समाज के नियमों में दखलदांजी देने लगी है। जबकि होना यह चाहिए कि कोर्ट कचहरियाँ भी समाज के इन पंचों के निर्णयों का अवलोकन करें, जिससे कम से कम उनकी साख बची रहे तथा कोर्टों में सामाजिक केसों का अंबार भी नहीं लगे। क्योंकि ये पंच भी परमेश्वर का रूप ही होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज में कोई वकील नहीं होता, अपनी दलील स्वयं पेश करनी होती है, अतः वहाँ न्याय भी आनन फानन में ही होता है। ऐसा भी नहीं है कि न्याय बहुत कठोर हो। क्योंकि सब एक दूसरे की रिश्तेदारी में जुड़े होते हैं। सामाज को न्याय में कम से कम वर्षों तक इन्साफ के लिए कोर्ट-कचहरियों के चक्कर एवं वर्षों तक आर्थिक नुकसान तो नहीं उठाना पड़ता। वहाँ केवल वकीलों की चाँदी होती है जो तारीखों पर तारीख बढ़ते रहते हैं। यह अलग बात है कि समाज के न्याय से असंतुष्ट हो तो आप कोर्ट कचहरी अवश्य जाये लेकिन वहाँ कार्ट में समाज के पंचों के निर्णय की कॉपी अवश्य मांगी जानी चाहिए। जिससे समाज की साख भी बचेगी। समाज की साख के साथ-साथ कोर्ट कचहरियों की साख भी बढ़ेगी।
सभाध्यक्षों को भी चाहिए कि अपनी सोच बड़ी रखे। वे केवल ‘दधिमती’ पत्रिका की ही बात नहीं करें अपितु सभी पत्र-पत्रिकाएँ जो समाज की चल रही है, उनको आर्थिक नहीं तो भावनात्मक संबंल अवश्य प्रदान करें। वैसे भी पत्र-पत्रिकाओं का टिकना सहज नहीं है। यह सर्व दाधीच समाज का ही आत्मबल है कि ‘दधिमती’ शताब्दी की ओर अग्रसर है। आज सुबोधिनी भी चौदह वर्षों से दाधीच समाज के बल पर ही चल रही है।
महासभाध्यक्षों को चाहिए कि वे समाज के रिश्ते बनाने में बढ़ चढ़कर भाग ले। सरकारी मानक मूल्यों के अनुसार लड़कियों का विवाह 18 से 20 वर्ष में ही हो, जिससे 25 वर्ष से ऊपर का युवक कुँवारा न डोले, इसमें समाजाध्यक्ष भी बराबर के दोषी है। वह चाहे तो सर्वसम्मति से कुछ आंशिक आर्थिक व सामाजिक दण्ड भी लगा सकते हैं। समाजाध्यक्ष चाहे तो क्या नहीं हो सकता चाहे वह स्थानीय स्तर का ही हो, अपना सकारात्मक योगदान तो दे ही सकता है।
पहले ब्राह्मण समाज के लिए मादक पदार्थों का नाम लेना ही निंदनीय था, यही कारण था कि खानपान, रहन-सहन एवं संस्कार में ब्राह्मण समाज अन्य समाजों से सर्वोत्कृष्ट था, लोग उनसे प्रेरणा लेते थे। आज वह भी उसी पंक्ति में जा बैठा है, जिसकी तरफ हम झाँकते तक नहीं थे। समाजाध्यक्ष को चाहिए कि समाज के माध्यम से उन पर अंकुश लगाये। समाज संगठन में वह शक्ति है कि आप सब कुछ कर सकते हैं, केवल आप में आत्मबोध की जरूरत है। जब हनुमान जी माता सीता का पता लगाने गए तो सात सो योजन समुद्र को देखकर ही शिथिल हो गये थे, जब जामवंत जी ने उनको आत्मबोध कराया कि आप वह हैं जिन्होंने बचपन में ‘लील्यो ताँहि मधुर फल जानूँ’ भगवान भास्कर को भी अपने मुँह में रख लिया था, तब हनुमान जी को आतमबोध हुआ और वे तत्क्षण सात सो योजन समुद्र को एक ही छलांग में पार कर दिया।
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