शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

जीव-वन

 




 

                ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे। 

                जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी। 

                निश्चल प्रेम कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनि रे। 

                जहाँ साँझ सी जीवन छाया, ढोले अपनी कोमल काया, 

                नील नयन से ढुलकाती हो ताराओं की पाँति घनेरी रे।                                            जयशंकर प्रसाद 

    वन है तो शांति है, वन से ही जीवन है। वन ही शुद्ध पर्यावरण है। थके-मांदे, जीवन से निराश व्यक्तियों के लिए भी यही शरण स्थली है। चिन्तन-मनन एवं ज्ञान-पिपासा के लिए वैचारिक बुद्धि जीवियों के लिए भी यहीं केवल्य ज्ञान मिलता है। भगवान महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य आदि ने संसार के कल्याण के लिए इन्हीं वनों में केवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। हमारे ऋषि-मुनियों के आश्रम भी इन्हीं उपवनों में होते थे। हमारा साधन और साध्य भी ये वन ही है। बिना वनों के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाने के लिए यह साधन है और जीवन मुक्ति का मार्ग भी यही है। वन ही हमारे ग्राम्य जीवन के साथ जुड़े हैं। भगवान राम ने वन में कंदमूल खाकर ही अपना जीवन व्यतीत किया था। इन्हीं वनों की लकड़ियाँ उनकी आश्रय स्थलियाँ थी। भगवान राम की पंचवटी में पूर्व दिशा में पीपल, पश्चिम में बरगद, दक्षिण में आँवला, उत्तर में बेल और दक्षिण पूर्व में अशोक के पेड़ का वैज्ञानिक औषधीय एवं पौराणिक महत्व है। अकेला पीपल प्रति घंटा 1800 किग्रा.  ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है। इसी कारण कहा गया है, जीते लकडी-मरते लकड़ी, देख तमाशा लकड़ी का। प्राणवायु का अक्षय स्रोत भी ये वन ही है, जहाँ रहकर मनुष्य नीरोग रह सकता है।  

    वैसे भी समस्त वसुधा में आबादी कम और वन ही अधिक है। इन वनों से ही समस्त जीव-जंतुओं का पालन-पोषण होता है। हमारी भारतीय संस्कृति तो इसमें रची बसी है। हमारे वैदिक मंत्र ॐ द्यो शांति वनस्पतयः शांतिः के रूप में हमने हमारे भारतीय कैलेण्डर को भी वृक्षों की पूजा के हिसाब से जीवन में उतार लिया है। हम कभी नवमी को आँवला की पूजा करते हैं तो कभी पूर्णिमा को वट वृक्ष की । पीपल पूर्णिमा का तो विवाह में विशेष महत्व होने के कारण यह अबूझ सावा है। तुलसी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है, बिना तुलसी के भगवान का भोग ही नहीं लगता। सावन के महीने में हरियाली अमावस्या को हम विशेष रूप से मनाते हैं, इस समय प्रकृति का रूप निखर जाता है, हम आनन्दित होकर पेड़ों की छाँह तले महिला-पुरुष झूले झूलते हैं। महिलाएँ श्रावण के हर सोमवार को व्रत करती है। अधिकांश त्यौंहार भी वर्षाकाल में ही आते हैं। यद्यपि प्रत्येक वनस्पति औषधि एवं रसायन है, उनमें नीम महौषधि है। अलग-अलग जलवायु के हिसाब से देवदार, चीड़, शीशम, सागवान, कैर, खेजड़ली कई प्रजातियां है। उद्योगों के लिए भी समस्त कच्चा माल भी यही से प्राप्त होता है, यहाँ तक कि घर का चूल्हा तक भी प्राचीन काल से अब तक इनके ईधन से ही चलता आ रहा है। आयुर्वेदिक दवाईयों से लेकर महिलाओं के प्रसवकाल की जड़ीबूटियाँ भी यहाँ से प्राप्त होती है। बच्चों के जन्मोत्सव पर बांदनवार तक भी इन्हीं फूल.पत्तों से बनाई जाती है। 

    वनों में केवल नदी.झरने, पहाड़, पेड़.पौधे ही नहीं, अपितु वन्य प्राणी भी हमारे जीवन से जुड़े हैं, जिनके साहचर्य में रहकर मनुष्य अपना जीवन बसर करते थे। हमें याद है, बचपन में सपेरा बीन बजाकर नाग को कैसे नचाकर हमारा मन मोहित कर देता था। मदारी की डमरु बजते ही हम दौड़े चले आते थे। मदारी जब बन्दर और भालू को अपने पैरों पर खड़ा करके नचाता था तो हम दंग रह जाते थे। सर्कस वाले बड़े-बड़े खतरनाक जानवर के करतब दिखाकर हमारा मनोरंजन कर अपना पेट पालते थे। आज हम जानवरों के शोषण के नाम पर उनको खारिज कर दिये हो, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारी कृषि में काम आने बैल,(गौवत्सों) ही थे, जिन्हें हम आज इन कसाइयों को सरे आम दे रहे हैं, क्या यह इंसाफ है ? 

    आजकल हमने करीब-करीब वनों को पूरी तरह भुला दिया है। वनवासियों एवं वनों के इर्द-गिर्द रहने वाले ग्रामीण को हम हेय दृष्टि से देखने लगे हैं, यही कारण है कि उनका शहरों की ओर पलायन हो रहा है। पर हम यह भूल जाते हैं कि मिलने वाला खाद्यान्न, फल-फूल, दूध, घी, आयुर्वेदिक दवाईयां सभी गाँवों और वनों से ही मिलती है। 

    भले ही यहाँ यातायात के साधन विपुल न हो, लेकिन आज भी वनों के इर्द गिर्द ठेठ गाँवों में रहने वाले लोग कठिन परिश्रम करते हुए पसीना बहाते हैं, मोटा अनाज बदलता हआ अनाज(ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूँ खाते हैं तथा दूध, दही, घी  छाछ का सेवन कर निरोग रहते हैं। पेड़-पौधों के संसर्ग में रहने के कारण उनको बीमारी छू तक नहीं सकती। हाँ कभी-कभी वे डाक्टरों के चँगुल में फँस जाने के कारण रासायनिक दवाईयों के साईड इफेक्ट से असाध्य बीमारी से ग्रस्त अवश्य हो जाते हैं। 

    कहने को तो हमने वन एवं पर्यावरण मंत्री तक बना दिया है, लेकिन उनका दायित्व क्या है ? वनों की सुरक्षा के नाम पर ग्रामीणों के वन कटाई पर रोक लगा देते हैं, लेकिन उनकी छत्रछाया में ही वन कर्मचारी अवैध कटाई करवाकर अपनी जेबे गरम करवाते हैं। जहाँ इन जंगलों में अफसरों की पहुँच नहीं है, वहाँ के जंगल फल-फूल रहे हैं। कई जगह तो जान बूझकर वनों में आग तक लगाई जाती है, फिर जाँचे होती है, अपने सिपाहियों के बल पर निरीह ग्रामीण भोलीभाली जनता पर गाज गिरती है, फिर नक्सलवाद क्यों नहीं पनपेगा? मैं यह नहीं कहता कि ये वन मनुष्य के लिए ही है, उसके ईधन या अन्य रूप में दोहन करने से कोई कमी पड़ जायेगी, बल्कि इनका जितना ज्यादा उपयोग होगा, हम उतने ही अधिक पेड़.पौधे लगा सकेंगे। पहले भोज में हरी पत्तलों का प्रयोग होता था, जिनको जानवर ही साफ कर जाते थे, आज प्लास्टिक दोने-पत्तलों के प्रयोग के कारण छुराड़े के पेड़ जिनके दोने-पत्तल बनते थे, समूल नष्ट हो गये हैं।  प्लास्टिक का अधिकाधिक प्रयोग गौमाता के असामयिक मौत के साथ-साथ पर्यावरण को भी दूषित कर रहा है। स्थिति तो ऐसी है किसी भोज में एक आदमी के लिए न्यूनतम दस गिलास प्लास्टिक के बिगाड़े जाते हैं। 

    पहले घरो के चूल्हें  का ईंधन पेड़ पौधों  एवं पशुओं  के मल-मूत्र पर निर्भर करता था, जिसका हर घर में प्रचलन था, घरो में निर्धूम चूल्हे लगाए जाते थे। गाँव  में चूल्हों  के जलने से मच्छरों का नामोनिशान नहीं था। मच्छरों को भगाने के लिए शाम के समय पशुओं के लिए विशेष रूप से पेडों के पत्ते जलाते थे। आज हर गाँव गैस सिलेण्डर पर निर्भर होता जा रहा है। जिसका उत्पादन हमारी पहुँच से बाहर होने के कारण हम गैस कंपनियों पर आश्रित हो गये हैं। अधिकाधिक गैस सिलेण्डरों के कारण पर्यावरण में गैसीय असंतुलन होने से पर्यावरण को भी क्षति पहुँचती है। आज तो स्थिति यह है कि मकानों में ए.सी., फ्रिज, वाहन सभी गैसों पर निर्भर हो गये हैं। हम प्राकृतिक वातावरण को भूलते जा रहे हैं, जिसके बिना हमारा स्वास्थ्य अधरझूल में है।  

    हमें चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जगह के अनुसार कम से कम पाँच पेड़ अवश्य लगाये। जिनके घरों में जगह नहीं है, वे अवश्य गमले का प्रयोग कर सकते हैं। प्रत्येक घर में तुलसी अवश्य लगाये। तुलसी का धार्मिक महत्व होने के साथ वह स्वास्थ्य रक्षक भी है। 


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