बुधवार, 23 सितंबर 2020

थूंको और चाटो


  आजकल एक नया कारोबार चल निकला है, थूंको और चाटो। माता-पिता अपनी पुत्री की शादी में दिखावे के लिए लाखों रुपये खर्च करते हैं, बहुत सारी अनर्गल वस्तुएँ दहेज के रूप में देते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे अपनी कमाई में से वह धन जुटा रहे हो, उनकी कमाती-खाती बिटिया का ही वह धन होता है, 'तेरा तुझको अर्पण-क्या लागे मेरा' की तर्ज पर वे दहेज रूपी भस्मासुर को वर पक्ष के पीछे लगा देते हैं। फिर होता है एक नया खेल, थोड़ी सी अनबन होने पर वे अपने मोहित मंत्र द्वारा अपनी दुहिता (धन कमाने वाली) पुत्री को महिला थानों के मार्फत घर पर बैठाने का जतन करते हैं या अच्छा सौदा पट जाने पर एक जगह से दूसरी जगह, दूसरी से तीसरी जगह कठपूतली की भाँति उसको नाच नचाते हैं। कन्यादान में दी हुई सारी वस्तुएँ भरकर पुनः अपने घर में ले आते हैं, चाहे वे वस्तुएँ नवयुगल के रूप में किसी वैवाहिक सम्मेलन से ही मिली हो। उनका इससे भी उनको कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगले की भी कोई इज्जत होगी। वह स्वयं जैसा है, औरों के लिए भी उनकी ही सोच होती है। वैवाहिक सम्मेलन के आयोजकों को चाहिए कि वे ऐसे तलाकशुदा नवयुगलों के उपहार की राशि अपने ट्रस्ट में पुन जमा कराने की लिखित शर्त अवश्य रखें और दोनों पक्षों के अभिभावकों से उस फार्म पर हस्ताक्षर करवाये जायें, ताकि कोई भी नवयुगल तलाक की स्थिति में जाने से बचे। फिर वे सामान या तो अगले वैवाहिक सम्मेलन के लिए या किसी गरीब परिवार के लिए जो भी आयोजक समिति की ओर से सम्मति बने, दिये जा सकते हैं। लेकिन ऐसे त्याज्य परिवारों को जिन्होंने सम्मेलन में हजारों स्वजनों एवं आगन्तुक विशिष्ट अतिथियों की साक्षी का मान नहीं रखा, उनके पास कदापि ऐसे सम्मेलन के उपहार नहीं रहने चाहिए। क्योंकि उन्होंने ऐसे पवित्र सामूहिक वैवाहिक सम्मेलन पर कलंक के दाग लगा दिया। आज मान-मर्यादा, धर्म-संस्कृति उनके सामने बौने पड़ गए हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि वे निर्बुद्धि हो, बल्कि पढ़े-लिखे, कुलीन खानदान के, धर्म की दुहाई देने वाले, वे ही अधर्म का नाटक करते नहीं हिचकिचाते । महानगरों की बात ही छोड़ो, वहाँ हर घर में आग लगी है। कोई किसी से पूछने वाला तक नहीं।   
    फिर क्या जरूरत है कन्यादान की? सात जन्म के फेरे सात दिनों में ही स्वाहा हो जाते हैं। स्वयं माता-पिता उस अभागी कन्या के दुश्मन बन जाते हैं। फिर कैसा कन्यादान? और कैसा रिश्ता? समाज में इसकी आँच दूर-दूर तक जाती है, सब एक-दूसर के दुश्मन बन जाते हैं। फिर एक-दूसरे के दोष निकालकर विषैले बाणों द्वारा टीका-टिप्पणी होती है। घर की जरा सी बात कोर्ट-कचहा माध्यम से सार्वजनिक गलियारों में पहुँच जाती है। फिर पुलिस-वकीलों के माध्यम से दोनों पक्षों को नौंचा जाता है। ऐसी  विषम परिस्थिति में में भावी पीढी होगी भी कि नहीं, या होगी तो कैसी होगी, इस पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। 

आज शिक्षा का संबंध धर्म से नहीं रहा। नैतिकता के पन्ने न जाने कहाँ गायब हो गये। मनुष्य ऐन केन प्रकारेण धन अर्जित करना चाहता है। दीन-दनियाँ से उसका कोई वास्ता नहीं है। रिश्वत-भ्रष्टाचार उसके कर्म बन गए हैं। लडकों को हम चरित्रवान नागरिक बनाना ही नहीं चाहते, हमें तो उसे कमाऊँ पूत बनाना है। लड़कों को हम पढ़ाते ही इसलिए हैं कि वे किसी प्रकार पैसे कमाने लायक हो जाये। अप्रत्यक्ष रूप से लड़कों को पढ़ाना फिर भी लाजिमी है, ताकि वे अपना आर्थिक दायित्व निभाते हए गृहस्थ 'धर्म' का पालन करा सकें। उनके माध्यम से स्त्री को सुरक्षा एवं संतति का पालन हो सके। पर वे इस धर्म का पालन भी अकेले नहीं कर सकते। इसके लिए उन्हें जीवन संगिनी चाहिए जो एक-दूसरे को पूरक हो। धूप-छाया की भाँति एक-दसरे पर आश्रित हो। 

    लड़कियों को शिक्षा ही इसलिए दी जाती है कि वह अपने पति पर निर्भर न रहे। अपने सास-ससुर की सेवा न करें, स्वयं आत्म निर्भर रहे ताकि जब चाहे तब फटकार लगाती हुए मैके आ जाये। जब स्वयं वह आत्मनिर्भर है तो फिर क्या जरूरत रह जाती है अपने पति की? केवल शारीरिक क्षुधा के लिए? स्थिति तो ऐसी बन रही है कि 'यूज एण्ड थ्रो' की भाँति किसी भी पुरुष को काम में लिया और चलते बनो। मार्केट में 'बी गैप' जैसे कैप्सूल तो है ही, फिर नो टेन्शन। माता-पिता में इस कुकृत्य में सहभागी बन जाते हैं। फिर भी  यदि गर्भ ठहर जाता है, पढ़ने के नाम पर माता-पिता तो दूर है ही, कहीं भी भ्रूण को कचरे के ढेर में फेंक दिया और इति श्री।  

    यह क्या हो गया समाज को? क्या यही हमारी संस्कृति रही है? आर्यावृत्त में तो कन्या के रजस्वला होते ही उसके माता-पिता, दादा-दादी को विवाह का चिन्ता सताने लग जाती थी। रजस्वला के दो-तीन वर्ष उपरांत उसका विवाह कर दिया जाता था, जो तकरीबन सोलह वर्ष तक हो जाया करता था। 

 त्रीणि वर्षाण्युदिक्षेत कुमारयुतुमति सती । ऊर्ध्व तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम।।       (मनु.९/९०)

    अर्थात् कन्या के रजस्वला होने के तीन वर्ष पश्चात् पति को प्राप्त करना चाहिए, इस प्रमाण से उसका विवाह 15-16 वर्ष में अवश्य हो जाना चाहिएयद्यपि सरकार ने परिपक्वता मानते हुए लड़की के विवाह की आयु 18 वर्ष कर दी, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन फिर भी निर्लज्ज माता-पिता की आँखें 24-25 वर्ष तक भी नहीं खुलतीधिक्कार है ऐसे माता-पिता को। 

    आजकल यह पढ़ाई लड़कियों के लिए चक्रव्यूह है, जिसमें उनके रोजमर्रा में काम आने वाली यथा-चौका बरतन, पाक कला, शिशु पालन, गौपालन, आतिथ्य सत्कार, घरेलू चिकित्सा, खानपान सब गौण है, बल्कि अल्हड़ युवावस्था में पढ़ाई के नाम पर उसको परिवार से अलग कर दिया जाता है, फिर धीरे-धीरे वह कई उच्च मानक उपाधियों से विभूषित हो जाती है, हो सकता है लड़कियों के आरक्षण के नाम पर उसको सरकारी नौकरी भी मिल जाएवह ऐसे दुश्चक्र में घुस जाती है कि योग्यता के नाम पर समाज के 90 प्रतिशत लड़कें उसके लिए खारिज कर दिये जाते हैंयोग्यता के नाम पर यदि कहीं उसको समाज में सरकारी नौकरीशुदा लड़का मिल भी जाता है तो उसकी मुंहमांगी बोली लगाई जाती है, यदि इसमें भी सफल हो जाते हैं तो लड़की के नौकरी करने की शर्त थोप दी जाती है और बाद में यदि लड़कों के परिजन नौकरी नहीं कराते हैं तो वह विवाह तलाक में बदल जाता हैसरकारें, कोर्ट-कचहरियाँ, महिला आयोग लड़की का जमकर पक्ष लेती है, अन्त्वागत्वा वही स्थिति बन जाती है, थूंको और चाटो। कोई भी संस्थाएँ समाज में शादी कराने की गारन्टी नहीं देती है

    कुछ माता-पिता तर्क देते हैं कि लड़की पढ़ी-लिखी है तो किसी प्रकार का हादसा घट जाने पर वह कमा लेगी, हमारे ऊपर बोझ नहीं रहेगीयह माता-पिता की संकीर्ण सोच है, उनको अपने पैसे की क्षति होते दिखती है, पर वे यह नहीं सोच पाते कि विधवा हो जाने पर जवानी में वह अपने दिन कैसे निकाल पायेगी? क्यों नहीं उसका पुनर्विवाह कर दिया जायेफिर क्या आवश्यकता रह जाती है उसको अर्थार्जन के दुश्चक्र में डालने की, पुनर्विवाह होने पर पुनः उसके पति का दायित्व प्रारंभ हो जाता है

    हमने यह भी देखा है कि जो कामकाजी महिला है, उनके पति उन पर एक नया पैसा खर्च नहीं करते हैं, बल्कि उन पैसों को लेकर हमेशा तनातनी रहती हैऐसी महिला संयुक्त परिवामें टिक ही नहीं पाती, पति भी उससे कन्नी काटने लगता है, फिर रिश्तेदार समाज तो बहुत दूर की बात है। 

    माता-पिता को चाहिए, अपनी बिटिया की 18 से 21 वर्ष के बीच विवाह कर अपना दायित्व निभाये। इसके लिए आगे होकर पहल करें, जिससे आपको यह शिकायत का मौका मिले कि इनके परिजनों ने पहले हमसे बात की और आज हमारी बिटिया दुःख पा रही हैसुख-दुख केवल मन की अनुभूति हैसेवा ही वह कार्य है जिसके सहारे बहू अपने पति को ही नहीं, सास-ससुर एवं रिश्तेदारों की भी लाडली बन सकती है। 

     यदि समाज में 25 वर्ष का कोई भी नवयुवक या नवयुवती अविवाहित है तो धिक्कार है समाज कोयदि शादीशुदा युवती है तो उसे किसी भी परिस्थिति में मैके नहीं रोके, अन्यथा समाज में कोई सी भी अवांछनीय घटना घट सकती हैफिर देर किस बात की? देवउठनी एकादशी समीप हैआपके देवता भी अब जग जाने चाहिए। 

                        समय पर शादी-मन की आजादी 

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