लड़कियों को शिक्षा ही इसलिए दी जाती है कि वह अपने पति पर निर्भर न रहे। अपने सास-ससुर की सेवा न करें, स्वयं आत्म निर्भर रहे ताकि जब चाहे तब फटकार लगाती हुए मैके आ जाये। जब स्वयं वह आत्मनिर्भर है तो फिर क्या जरूरत रह जाती है अपने पति की? केवल शारीरिक क्षुधा के लिए? स्थिति तो ऐसी बन रही है कि 'यूज एण्ड थ्रो' की भाँति किसी भी पुरुष को काम में लिया और चलते बनो। मार्केट में 'बी गैप' जैसे कैप्सूल तो है ही, फिर नो टेन्शन। माता-पिता में इस कुकृत्य में सहभागी बन जाते हैं। फिर भी यदि गर्भ ठहर जाता है, पढ़ने के नाम पर माता-पिता तो दूर है ही, कहीं भी भ्रूण को कचरे के ढेर में फेंक दिया और इति श्री।
यह क्या हो गया समाज को? क्या यही हमारी संस्कृति रही है? आर्यावृत्त में तो कन्या के रजस्वला होते ही उसके माता-पिता, दादा-दादी को विवाह का चिन्ता सताने लग जाती थी। रजस्वला के दो-तीन वर्ष उपरांत उसका विवाह कर दिया जाता था, जो तकरीबन सोलह वर्ष तक हो जाया करता था।
त्रीणि वर्षाण्युदिक्षेत कुमारयुतुमति सती । ऊर्ध्व तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम।। (मनु.९/९०)
अर्थात् कन्या के रजस्वला होने के तीन वर्ष पश्चात् पति को प्राप्त करना चाहिए, इस प्रमाण से उसका विवाह 15-16 वर्ष में अवश्य हो जाना चाहिए। यद्यपि सरकार ने परिपक्वता मानते हुए लड़की के विवाह की आयु 18 वर्ष कर दी, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन फिर भी निर्लज्ज माता-पिता की आँखें 24-25 वर्ष तक भी नहीं खुलती। धिक्कार है ऐसे माता-पिता को।
आजकल यह पढ़ाई लड़कियों के लिए चक्रव्यूह है, जिसमें उनके रोजमर्रा में काम आने वाली यथा-चौका बरतन, पाक कला, शिशु पालन, गौपालन, आतिथ्य सत्कार, घरेलू चिकित्सा, खानपान सब गौण है, बल्कि अल्हड़ युवावस्था में पढ़ाई के नाम पर उसको परिवार से अलग कर दिया जाता है, फिर धीरे-धीरे वह कई उच्च मानक उपाधियों से विभूषित हो जाती है, हो सकता है लड़कियों के आरक्षण के नाम पर उसको सरकारी नौकरी भी मिल जाए। वह ऐसे दुश्चक्र में घुस जाती है कि योग्यता के नाम पर समाज के 90 प्रतिशत लड़कें उसके लिए खारिज कर दिये जाते हैं। योग्यता के नाम पर यदि कहीं उसको समाज में सरकारी नौकरीशुदा लड़का मिल भी जाता है तो उसकी मुंहमांगी बोली लगाई जाती है, यदि इसमें भी सफल हो जाते हैं तो लड़की के नौकरी करने की शर्त थोप दी जाती है और बाद में यदि लड़कों के परिजन नौकरी नहीं कराते हैं तो वह विवाह तलाक में बदल जाता है। सरकारें, कोर्ट-कचहरियाँ, महिला आयोग लड़की का जमकर पक्ष लेती है, अन्त्वागत्वा वही स्थिति बन जाती है, थूंको और चाटो। कोई भी संस्थाएँ समाज में शादी कराने की गारन्टी नहीं देती है।
कुछ माता-पिता यह तर्क देते हैं कि लड़की पढ़ी-लिखी है तो किसी प्रकार का हादसा घट जाने पर वह कमा लेगी, हमारे ऊपर बोझ नहीं रहेगी। यह माता-पिता की संकीर्ण सोच है, उनको अपने पैसे की क्षति होते दिखती है, पर वे यह नहीं सोच पाते कि विधवा हो जाने पर जवानी में वह अपने दिन कैसे निकाल पायेगी? क्यों नहीं उसका पुनर्विवाह कर दिया जाये। फिर क्या आवश्यकता रह जाती है उसको अर्थार्जन के दुश्चक्र में डालने की, पुनर्विवाह होने पर पुनः उसके पति का दायित्व प्रारंभ हो जाता है।
हमने यह भी देखा है कि जो कामकाजी महिला है, उनके पति उन पर एक नया पैसा खर्च नहीं करते हैं, बल्कि उन पैसों को लेकर हमेशा तनातनी रहती है। ऐसी महिला संयुक्त परिवार में टिक ही नहीं पाती, पति भी उससे कन्नी काटने लगता है, फिर रिश्तेदार समाज तो बहुत दूर की बात है।
माता-पिता को चाहिए, अपनी बिटिया की 18 से 21 वर्ष के बीच विवाह कर अपना दायित्व निभाये। इसके लिए आगे होकर पहल करें, जिससे आपको यह शिकायत का मौका न मिले कि इनके परिजनों ने पहले हमसे बात की और आज हमारी बिटिया दुःख पा रही है। सुख-दुख केवल मन की अनुभूति है। सेवा ही वह कार्य है जिसके सहारे बहू अपने पति को ही नहीं, सास-ससुर एवं रिश्तेदारों की भी लाडली बन सकती है।
यदि समाज में 25 वर्ष का कोई भी नवयुवक या नवयुवती अविवाहित है तो धिक्कार है समाज को। यदि शादीशुदा युवती है तो उसे किसी भी परिस्थिति में मैके नहीं रोके, अन्यथा समाज में कोई सी भी अवांछनीय घटना घट सकती है। फिर देर किस बात की? देवउठनी एकादशी समीप है। आपके देवता भी अब जग जाने चाहिए।
।। समय पर शादी-मन की आजादी।।
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