बुधवार, 30 सितंबर 2020

यह कैसा लोकतंत्र है?

 



    यह कैसा लोकतंत्र है, जहाँ न लोक की आवाज सुनी जाती है और न लोगों का कार्य समय पर होता है। इससे अच्छा तो राजतंत्र ही ठीक था, जिनकी कोई जिम्मेदारी तो थी, वे अपना कुछ नैतिक कर्तव्य तो मानते तो थे। मैं मानता हूँ कि वे कभी-कभी राजा निरंकुश हो जाया करते थे, लेकिन उसका जवाब भी जनता बड़ी बखूबी से दे देती थी। यहाँ तो 20-30 प्रतिशत मतों से ही जनता का फैसला मानकर पार्टियाँ सत्तासीन हो जाती है। नोटा का बटन तो मात्र कोरा दिखावा है, उसके बारे में तो कोई कुछ नहीं सोचता, और सोचे भी तो कौन, यहाँ तो सारे कुएँ में ही भांग घुली है, कोई किसी की जिम्मेदारी नहीं है। सब एक-एक कर पाँच सालों के लिए प्रजा पर राज करने चले आते हैं, यदि यह कह दिया जाय कि ये पार्टिया एक तरह से लुटेरों की फौज है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  

हमारा समाज पहले सब एक दूसरों के सहयोगी हुआ करते थे। सभी का एक-दूसरों पर रोजगार टिका था। क्या ब्राह्मण, क्या खाती, क्या नाई, क्या दर्जी और क्या हरिजन सब एक दूसरों के काम आते थे। सबकी अपने कर्मों से पहचान थी। सबको तीज-त्यौंहारों पर एक-दूसरों से कुछ न कुछ भेंट प्राप्त होती थी। पर अब तो हमें हमारे कर्मों से ही नफरत हो गई। और तो और दीपावली एवं मोहर्रम जैसे त्यौंहारों पर हिन्दू-मुस्लिमों की एकता एक तरह से मिशाल थी। कोई किसी को दलित नहीं कहता था, ये सब इन नेताओं की चालें हैं, ये अपना उल्लू सीधा करने के लिए एक-दूसरों को लड़ाना-भिड़ाना जानते हैं, जिससे उनको विभिन्न प्रकार के टैक्सों के माध्यम से नजराना मिलता रहे।

  आज हमारे देश को उन गोरे अंग्रजों की पराधीनता से स्वतत्र हुए करीबन सत्तर साल हो चुके हैं, पर क्या बदला है? अब भी गरीब, गरीब ही है। कभी सत्ताधीशों ने सोचा कि वे गरीब क्यों हैं? एक वर्ग दलित क्यों है? उनको दलित किसने बनाया? अमीर-गरीब की खाई किसने गहराई? वे तो बड़े मजे से उनको गरीब कहने में भी नहीं सकुचाते, बल्कि इन लब्जों को तो उन्होंने अपने वोट बटोरने के हथियार बना लिया है। संसद में सबको ध्वनिमत से अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने में कैसे सांप सूंघ जाता है, कोई कुछ तो नहीं बोलता, सब चुप्पी बना लेते हैं, ये कैसे जनता के प्रतिनिधि है? इनको जनता की फिक्र नहीं, अपितु अपनी स्वयं की फिक्र है, अपनी-अपनी पार्टियों  की फिक्र है। इनको तो ये पाँच वर्ष एक-दूसरों को नीचा दिखाने में ही लग जाते हैं। जनता सब जानती हुई भी कुछ नहीं कर पाती। ये सत्ताधारी तो उन पाँच सालों में जनता को पूरी तरह से निचोड़ देते हैं। इन्होंने कभी सोचा, कि हम जनता को पराधीन पर पराधीन क्यों बना रहे हैं, उन्हें आत्मनिर्भर क्यों नहीं बनाया जा रहा है। 

आज जगह-जगह शराब की दुकानें, मांस की दुकानें खुल्लमखुल्ला चल रही है। इन सरकारों को तो इसी से आमदनी चाहिए, चाहे जनता मरे, इनको इनसे क्या फर्क पड़ेगा। बेचारे घर के घर उजड़ रहे हैं। गृहणियाँ विरोध दर्ज करवा रही है, पर इनके कानों पर जूँ नहीं रेंगती। ये शासक पिता हो ही नहीं सकते। यह भी सही है कि उन व्यक्तियों का रोजगार उन्हीं काम-धंधों पर टिका है, सरकार ने कभी उनको अच्छे रोजगार की ओर मोड़ा ही नहीं, यदि उन्हें कोई अच्छा रोजगार मिल जाये तो कोई कारण नहीं कि वे अपना ये खोटा धंधा छोड़ नहीं सकते। 

हमने कई बार कहा है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है और रहेगा। खाने के लिए ये पैसा काम नहीं आता, बल्कि वह जमीन माता ही काम आती है जिससे केवल मनुष्य को ही नहीं, अपितु समस्त जगत के प्राणियों का भरण-पोषण होता है। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए। आज किसान क्यों दु:खी है, उसे हमने पूर्ण रूप से पराधीन बना दिया। आज उसकी समस्त कृषि ट्रेक्टरों पर निर्भर हो गई है। चाहे जुताई हो या बुवाई, चाहे निराई हो या कटाई, चाहे माल लदाई हो या खाद-बीज सबके लिए उसे बगले झाँकना पड़ता है। उसको उस फसल की एवज में कुछ नहीं मिल पाता बल्कि कभी-कभी तो उसे लेने के देने पड़ जाते हैं। फिर उसे सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, ऐसी खेती करने से क्या मतलब। उन ट्रेक्टर मालिकों के भी कुछ नहीं बचता बल्कि आधा पैसा तो डीजल और अन्य टैक्सों में ही पूरा हो जाता है। और तो और सरकारी मशीनरी भी किसानों को हेय दृष्टि से देखती है। जबकि असल में वह ही अन्नदाता है। अब वह भी कुछ काम नहीं करना चाहता। आपकी मोटर-गाडिय़ों को देखकर उसका भी जी ललचाता होगा।

सोचा कभी, हमने उनके लिए क्या किया? सरकारी मशीनरी, मीडिया और कंपनियों ने मिलकर उसको गलत राह दिखाई। उसके पशुधन को प्राय: नष्ट ही कर दिया, जिससे उसका आराम से काम चलता था। हमने महंगे दामों पर यूरिया जैसी महंगी खादें एवं गुणवत्ता के नाम पर 10 गुणा महंगे बीजों को प्रचारित किया, जिसका खमियाजा आज न केवल किसान बल्कि प्रत्येक परिवारों को कैंसर जैसी कई घातक बीमारियों से जूझकर चुकाना पड़ रहा है। आज गाँवों में बैलों की जोडिय़ाँ प्राय: लुप्त हो गई। हम मनुष्य से हैवान हो गये। सोचा कभी उन पशुओं की क्या गति होती होगी। ये सब नाकारा-बेरोजगार हो गये। यही कारण है कि आज पशु कत्लखाने के भेंट चढ़ रहे हैं।

मैं मानता हूँ तकनीकी अच्छी है, पर इसका यह मतलब तो नहीं है कि हम उन जीव-जन्तुओं को एकदम खारिज कर दें, जिससे उनका ही नहीं, बल्कि समस्त चराचर का पालन होता है। अरे आप गंभीरता से सोचे कि यदि खेतों में टे्रक्टर चलेंगे, तो खेतों में धुंआ ही धुंआ उड़ेगा और यदि खेतों में बैल काम आयेंगे तो कम से कम उनका गोबर एवं मूत्र तो खेतों को उर्वरकता से भर देगा। तकनीकी ऐसी होनी चाहिए जिससे मानव व पशुधन दोनों काम आये, जिससे उनकी महत्ति भूमिका पर प्रश्र चिन्ह नहीं लगे।  

हमने कई बार कहा है, 1. गोसेवकों की भरती होनी चाहिए, जो हर ग्राम पंचायत में गौमाता को चरा सकें, उन्हें इसके लिए बाकायदा सरकार की ओर से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जो उन्हें समय पर प्राथमिक चिकित्सीय सुविधा भी दे सकें। चाहे ग्राम पंचायत अपने स्तर पर गायों को चराने के लिए गोपालको से 200-300 रु प्रति पशु ले सकती है, जिससे उन पर अतिरिक्त भार नहीं पड़े। 2. प्रत्येक गोपालक माताओं या परिवारों को न्यूनतम 500 रुपये की सब्सिडी मिलनी चाहिए, जिससे पुन: वह इस ओर लोटे, 3. कांजी हाऊस का पुननिर्माण होना चाहिए, ताकि आवारा पशुओं के नाम पर कोई उनको कष्ट नहीं पहुँचा सकें।  4. गोसेवकों व पटवारियों में सामंजस्य होना वाहिए, जिससे चारागाह पूर्ण रूप से मुक्त हो सकें। पर किया किसी ने?  

चुनावों के समय जनता को रिझाने के लिए घोषणाएं तो होती है, पर उस पर कभी अमल नहीं होता। जनता उन प्रतिनिधियों तक पहुँच ही नहीं पाती। और उनको उनसे कोई मतलब भी नहीं होता है। वे तो अपना काम कैसे भी करके परिवार को चलाने में लगाते हैं, पर ये सरकारे तो अच्छे-भले चलते हुए परिवारों को उजाडऩे के लिए छापे मारकर उनको कोर्ट तक घसीट देती है। अरे कभी सोचा कि आपका वेतन-भत्ता कितना है और एक व्यक्ति ऐसा है जो पढ़ा-लिखा होकर भी रोजगार के लिए मारामारा फिर रहा है, फिर कैसी पढ़ाई और कैसा उस पढ़ाई का औचित्य? जातिगत आरक्षण एक घिनौना षडय़ंत्र है, जो अखिर समाज में नफरत-वैमनस्यता फैलाकर हादसे पर पूरा होता है। यह सब सरकारों को अपनी तिजोरियों को भरने का एक तरीका है। पुलिस, सी.बी.आई. कोर्ट-कचहरियाँ कोई कुछ नहीं कर सकती क्योंकि ये भी उनके कारिन्दे ही है। वे क्यों बोलेंगे? 

आज सरकारों को पुन: गाय व मंदिर याद आ रहे हैं, करेंगे कुछ भी नहीं। अरे इन देवालयों के साथ तो गायें हमेशा जुड़ी थी, कहीं आपको भगवान कृष्ण बाँसुरी बजाते हुए गौमाताओं के रूप में दिखाई देंगे तो कहीं भगवान शिव नंदी पर विराजे। भगवान राम के गुरू वशिष्ट व विश्वामित्र में भी गोमाताओं के लिए ही संवाद-परिसंवाद होता था। और तो और हमारी माँ दधिमथी के प्राकटय एवं महर्षि दधीचि के देह त्याग में भी गौमाता की ही महत्ति भूमिका थी। हमारे सारे त्यौहार एवं जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार गौमूत्र एवं गोबर से ही पूरित होते हैं। आयुर्वेद की संपूर्ण चिकित्सा भी इस गौरस-दुग्ध, तक्र, दही, घी एवं गौमूत्र के बिना अधूरी है। हमारा सारा आध्यात्म एवं शांति हमें इन जीवों के पालन से ही मिलती है। हम सब एक-दूसरे के पूरक है। 

क्या हिन्दु और क्या मुसलमान सिक्ख, ईसाई कौन गाय से नफरत करेगा, पहले हर घरों में गोपालन होता ही था। यह हमारी शिक्षा प्रणाली ही दूषित थी, जो हमने बच्चों को क्या बड़ा होकर क्या पूँछ मरोड़ेगा?, क्या ढाँडे चरायेगा, ऐसा कहकर उसको इस पशु धन से विरक्त कर दिया। देखा जाय तो गौमाता, धरती माता और कन्या माता इन सबके बिना हम अधूरे हैं। हर पिता को अपनी कन्या को गौदान अवश्य करनी चाहिए जिससे वह पराश्रित नहीं रहे उसका चूल्हा व उसका परिवार को गौरस पौष्टिक आहार मिल सकें।

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