रविवार, 20 जून 2021

भारतीय संस्कृति पर कोरोना का कहर





    कभी किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि सारे देवालय यथा-माताजी, भेरूजी, बालाजी, बड़े-बड़े मंदिरों के पट बंद हो जायेंगे? जनता की आस्था इस महामारी के भेंट चढ़ जायेंगी। बड़े-बड़े आक्रमणकारियों ने मंदिरों को ध्वंस अवश्य किया, पर जनता की आस्था से खिलवाड़ नहीं कर पाये। आज हम दिखावे के लिए स्वतंत्र अवश्य हैं, लेकिन पूरे भारत में लॉक डाउन का कहर गरीब बेरोजगारों पर पहाड़ बनकर टूट रहा है। सब अपने घरों में बंद है, अनावश्यक बाहर निकलने पर ही चालान है। यह भी हम कह नहीं सकते कि यह खेल कब तक चलता रहेगा? अब तक कोरोना की लहर थी, अब सुनने में आ रहा है कि ब्लेक फंगस भी टूट पड़ा है। और कल अन्य कोई नई बीमारी अपना रूप बदलकर जनता को अपने चपेट में ले लेगी। शादी-ब्याह, मेले समारोह  सब पर रोक लग चुकी है। चारों ओर पुलिस का पहरा है। अब तो स्थिति यह है कि शादी और मृत्यु पर भी सरकारी गाईड लाईन के अनुसार ही परिजन आमंत्रित हो सकेंगे। शादी का आलम तो यह है कि आवश्यक हो तो कोर्ट मैरिज कर लो या ग्यारह परिजनों की देखरेख में चुपचाप शादी कर लो। रिश्तेदार, पंडित, वैदिक मंत्रों व अग्रि की साक्षी को कोई आवश्यकता नहीं।    

आज तो स्थिति ऐसी है, कोई परिजन  हमसे बिछुड़ रहा है, उससे हम मिल तक नहीं सकते। हमारा भी खून सूख चुका है। बहाना भी सच्चा और अच्छा है, चारों ओर लॉक डाऊन लगा है। कोई कुछ कहने वाला नहीं है। आज तो स्थिति यह है कि माँ वेंटिलेटर पर है, बेटा, भाई मिल भी नहीं सकते, और इस कोरोना की हव्वा से कोई मिलना भी नहीं चाहते। यदि कोई परिजन बीमार पड़ भी जाता है, अव्वल तो वह अस्पताल का रुख करेगा ही नहीं और यदि परिजनों के दबाव में अस्पाल मेंं भर्ती हो भी जाता है तो बेचारा पीडि़त अस्पताल में अकेला फँस जाता है। उसको सांत्वना देने वाला तक भी कोई परिजन नहीं, कर्मचारियों की पौबारह है, उन्हें कोई कहने सुनने वाला भी नहीं और यदि पीडि़त मर जाता है तो  सरकारी अमला ही उनको जला देता हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कलयुग की काली छाया मंडराने लगी है। अब तक तो केवल पशुओं के साथ ही ऐसी क्रूरता करते देखी जाती थी, लेकिन आज मनुष्य के  अंगों को बेचकर शवों को पानी में बहाते सुना जा रहा है। 

आज तो जनता भी भेड़ चाल चल रही है। उन्हें मौत का दंश इस कदर सता रहा है कि कोरोना के टीकों की कतार के साथ-साथ रेमडेसीवर इंजेक्षन व आक्सीजन सिलेण्डरों के  लिए मारामारी हो रही है। उनके मुँह माँगे पैसे दिये जा रहे हैं, कई जगह ब्लेक में खरीद-परोख्त हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आदमी मर रहे हैं, पर अधिकाँश वे ही मर रहे हैं जिन्हें कोई बीमारी पहले से हो या उनकी उम्र 60-70 के बीच में हो या किसी लालची डाक्टरों के हाई डोज चंगुल में फँस गये हो। 

हम बार-बार कहते हैं कि सरकारों को कोरोना का कहर ही अधिक दिख रहा है, जबकि इससे अधिक शराब एवं मादक द्रव्य व्यसन अधिक जानलेवे हैं जो जीते जी मनुष्य को नरकगामी बनाने के साथ-साथ परिवारों की इज्जत को तहस-नहस करते हुए नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं, लेकिन राजस्व के आगे  सरकारों का इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं है। जबकि  वास्तव में यदि सरकार जनहितेषी है तो इन मादक द्रव्यों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए। 

पहले कहा जाता था कि 'सुबह शाम की हवा- लाख टके की दवा पर शायद हम भूला चुके हैं। महानगरों में कंकरीट के मकान ही मकान अधिक मिलेंगे, जगह के अभाव में पेड़ तो वैसे ही कम हैं और रही सही कसर कल-कारखानों, कलपुर्जों व पेट्रोल-डीजल वाहनों ने भरपाई कर दी। मनुष्य का खुले में साँस लेना दुभर हो गया। हमने इन दिनों ऐसे-ऐसे गांवों के बारे में भी सुना, जहाँ हर घर के बाहर नीम व छायादार पेड़, ऑक्सीजन का भरपूर खजाना है, ऑक्सीजन के चाहे कितने ही सिलेण्डर भर लो और उस गाँव में अभी तक कोरोना का एक भी पेसेंट नहीं। प्राचीन काल में ऋषि-महर्षियों द्वारा वायुमंडल को स्वच्छ रखने हेतु यज्ञों का आयोजन होता था, धर्म तो एक सहारा मात्र था, जिससे जनता प्रतिबद्ध हो सकें। उन यज्ञों में वैदिक स्वर नाद के साथ-साथ गौघृत, काष्ट, कपूर आदि का हवन होता था, उस हवन से वायुमंडल में दूषित हवा भस्मीभूत हो जाती थी। मनुष्य पूर्ण निरोगी हो जाता था। आज हमें कल की बातें कल्पना लगती है। आज हम डाक्टरों के भौतिक कुचक्र में फँस चुके हैं, वे भी  सरकारी गाईड लाईन के अनुसार ही इलाज करते हैं। न उन्होंने दवाई बनाई और न उनको उन दवा के तत्वों के बारे में पता है। बड़े-बड़े दवा निर्माता अपनी दवाओं को कमेटी बिठवाकर, पैसा देकर स्वीकृत करवा लेते हैं। आज तो हम छोटी सी बीमारी का इलाज भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के  मार्गदर्शन में लेते हैं। जबकि आयुर्वेद व प्राकृतिक इलाज हमारी परिधि में हैं, लेकिन हमारा उन पर से विश्वास उठ गया है। और न ही सरकार उनके लिए जनता को प्रेरित करती है, और यदि इस दिशा की ओर प्रेरित करे भी तो डाक्टरों के ट्रेनिंग सेन्टर, बड़े-बड़े एलोपैथिक दवा उत्पादक केन्द्र बंद करने की नौबत आ जाये, फिर हो सकता है सरकारों को भी अपेक्षित राजस्व नहीं मिले।   

हमें यह समझ नहीं आती कि कश्मीर की केसर क्या भारत के गर्म राज्य में उगाई जा सकती है, या अफगानिस्तान का अखरोट किसी ऐसे इलाके में पैंदा किया जा सकता है जहाँ उसके प्रतिकूल जलवायु हो? तो कोरोना जैसी महामारी संपूर्ण विश्व में क्यों? और यदि यह बीमारी हमारी मिट्टी में ही पैदा हुई है तो उसका इलाज भी इसी मिट्टी में होगा, जिसे हमें ढूंढना होगा। मौसमी बीमारियाँ आती है और चली जाती है। जब मौसम में उतार-चढ़ाव होगा तो हम उससे अछूते कैसे रह सकते हैं? पर हमारा सब्र का बाँध टूट जाता है और हम सीधे डॉक्टरों के चंगुल में फंस जाते हैं, वहाँ वहीं होता है, जो वे चाहते हैं। भले ही धनी को फर्क नहीं पड़े, पर गरीब कर्ज के बोझ में दब जाता है। डॉक्टर किसी की सुनते भी नहीं है, यदि हमने कुछ आयुर्वेदिक दवाएँ ली है और हम उनको जानकारी देते हैं तो उन्हें घिन्न सी होती है, मानों उनके पेट पर लात मारी जा रही हो। जबकि ऐसा कोई डाक्टर नहीं जिन्हें न्यूनतम 70-80 हजार प्रति माह से कम मिलता हो। सरकार भी इन्हीं को बढ़ावा देती है। ऐसा भी नहीं है कि सब ही डॉक्टर एक जैसे हो, कुछ के दिल में दया होती है, जो पूरे मनोयोग से मरीज के मर्ज को दूर करता है।

आज हमें आवश्यकता है, हमारी संस्कृति की ओर झांकने की, वैदिक चिकित्सीय पद्धति को देखने की, पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की। हमें शपथ लेनी है कि हमारे घर के बाहर एक पेड़ अवश्य लगाये। यदि आपके पास जगह नहीं है तो भी कम से कम अपनी बालकनी में तुलसी, ग्वारपाठा(एलोवेरा), गिलोय आदि तो लगा ही सकते हैं।

यह कहने में अतिशयाक्ति नहीं होगी कि दाधीच जनसेवा संस्थान के बाहर गुलमोहर, अशोका, नीम, गिलोय, मीठा नीम, आंवला, छुराड़ा(हरे पत्तल बनाने का पेड़), बील जैसे दस पेड़ तथा संस्थान के अन्दर अंगूर, अनार, नींबू, अमरूद, केरुंदा, चीकू, अंजीर तथा सुगंधित चंपा, चमेली, मोगरा, रातरानी आदि के पौधों के साथ मैदान में हरी दूब भी मन को शकून देती है, जिससे प्रतिपल प्राण वायु एवं पौष्टिकता बनी रहे। सौर ऊर्जा संस्थान के लिए वरदान बनकर उभरी है।  

बरसात का मौसम प्रारंभ होने वाला है। अभी से हमें इस कोरोना जैसे व्याधियों से बचना है तो प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपने मकान में जगह के अनुसार  कुछ न कुछ पौधे अवश्य लगाये। आत्मनिर्भरता के लिए आप भी सौर ऊर्जा के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ रखने हेतु इलेक्ट्रिक वाहनों को ही अधिक प्राथमिकता दें। हो सकें तो कुछ शारीरिक परिश्रम भी करें। इसके लिए गौमाता का पालन भी किया जा सकता है, जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ावा मिल सकें और यही हमारी संस्कृति है जिसको अपनाकर हमारे ऋषि-महर्षियों ने शतायु प्राप्त की थी।        

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