ऐसा सुनने में आ रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से अधिक घातक है। कोरोना ने पहले भी सबकी जिन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी। और जब बड़ी मुश्किल से गाड़ी पटरी पर लौटी तो पुन: लॉक डाउन का कहर बेरोजगारी का तांडव नचा रहा है। इसका प्रभाव न सरकारी नौकरों पर पड़ रहा है न पेंशनधारियों पर और न ही मंत्री-संतरियों पर, सीधे-सीधे आम जनता को इसकी मार झेलनी पड़ रही है। कभी-कभी तो लगता है, कई बार इसको राजनेता हथियार के रूप में काम में ले रहे हैं। जब मन चाहा, लॉक डाउन और जब चाहा अन लॉक। और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई इस पर अपना मुँह खोल भी नहीं सकता, जब चाहे राजद्रोह ही धारा में फँसा दे। पत्र-पत्रिकाओं से देखने सुनने में आ रहा है कि चुनावों में, राजनैतिक रैलियों में भीड़ तंत्र सक्रिय है, फिर इन छोटे-मोटे उद्यमियों पर नकेल क्यों?
सुबह दूध बेचने वाला दिन में अपने ऑटो से राहगीरों को ढोता है, आज सुबह उसने कहा, कि इस लॉक डाउन ने रही सही कमर भी तोड़ दी। परिवार का पालन ही दूभर हो रहा है। थडिय़ों वाले का धंधा ठप्प, कपड़े का धंधा ठप्प, मजदूरी ठप्प चारों ओर पुलिस का पहरा, आदमी करें तो क्या करें? चिकित्सालयों में जाये तो सबसे पहले यही चिंता कि ऐसा न हो डाक्टर कोरोना बतलादें। और यह भी विडंबना है कि कि सर्दी-जुकाम, सांस-खांस, नमोनिया सबके लक्षण कोरोना से मिलते जुलते। जितनी जाँचें, उतने ही कोरोना पेसेन्ट। ऐसा भी नहीें कि रिकवरी की दर कम हो, शरीर की मौजूद रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अपना काम करती है। पर कोरोना का हव्वा जीवन पर भारी पड़ रहा है। ताज्जुब तो यह है कि कोरोना के टीके की दो-दो डोज लेकर भी लोग पोजीटिव आ रहें हैं।
कहने को तो सरकारें कल्याणकारी है, प्रजा हितेषी है, जनता को ऊँचे-ऊँचे सपना दिखाती है, पर रोजगार के नाम पर शून्य है। हाँ शराब ठेकों की वाही-वाही है। बड़े अचरज की बात है शराब के एक-एक ठेके की बोली करोड़ों में लगी है। अकेले राजस्थान में तकरीबन 200 करोड़ की बोली लगी है। पर अधिकाँश व्यक्ति कहते हैं कि यह शराब ना हो तो राज्यों की आमद ही रुक जाये, सरकारें कैसे चले? सरकार की मुख्य आमद ही शराब है, पर हमें ऐसे दूसरे राज्यों से भी प्रेरणा लेनी चाहिए जहाँ सरकारों ने इस शराब पर अपने राज्यों में पूर्ण पाबंदी लगा रखी है। हमने इस हेतु सरकार को कई बार लिखा, पर सरकारें तो वही करेगी, जिसमें उनका भला दिखता हो, जनता जाये भाड़ में। मीडिया वाले चिल्लाते रहे, उनके कानों में जूँ नहीं रेगेंगी।
एक तरफ राजस्थान में राजस्थान पत्रिका द्वारा पुलिस-पब्लिक संवाद का कार्यक्रम चल रहा है, हर संवाद में यह बात उभर रही है कि नशा परिवारों का नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है, परिवार टूट रहे हैं, नशेडिय़ों के कारण रोज घरों में कलह और हत्यायें बढ़ रही है। शादियाँ तलाक में तब्दील हो रही है, नशाबाजी के कारण कुँवारों की शादियाँ तक नहीं हो पा रही है। फिर राज्य/देश में शराब पर बैन क्यों नहीं? क्या सरकारें इन नशा व्यवसायियों से ही अपनी सरकार चला रही है? पुलिस के हाथ बँधे हैं, उन्हें तो जो हुक्म दिया है, उसे ही निभाना होगा, आखिर उनका वेतन भी तो ये सरकारें ही दे रही है, फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे। पर कम से कम पत्रिका पब्लिक सेतु कार्यक्रम को आधार बना कर पुलिस महानिरीक्षक यह तथ्य सरकार के सामने तो रख ही सकते हैं, जिस पर सरकारें मंथन कर सकें। ऐसा पैसा किस काम का जो जनता को नशे का गुलाम बना दें। यदि शराब बनाने की फेक्ट्रियाँ ही बंद हो जाये तो शराबी स्वत: ही लाईन पर आ जायेंगे। न रहेगा बाँस नबजेगी बाँसुरी।
अकेली शराब ही नहीं, जरदा-गुटका, भांग-अफीम, नशे की गोलियाँ सबके सब परिवार की दुश्मन है, कोई भी एक बार इसकी गिरफ्त में आ गया तो उसका छूटना नामुमकिन ही है। वैसे भी हम रासायनिक खादों के द्वारा खेतों में जहर तो बो ही रहे हैं। और खुले आम उस जहरीली उपज को खा ही रहें हैं। फिर कोरोना का ही डर ही क्यों? क्या हम इनको कोरोना से कम नहीं आँक रहें? जब हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति ही काम नहीं करेगी तो कारोना का असर तो व्यापक होगा ही। हमें इसके साथ-साथ इन सब पर भी विचार करना चाहिए।
हमें पुन: पर्यावरण की स्वच्छता की ओर ध्यान देना आवश्यक हैं। मादक व्यसनों को सरकार चाहे तो कानून पास कर पूर्ण प्रतिबंध लगा सकती है। छोटी-छोटी थडिय़ों एवं प्राईवेट काम करने वालों को भी ऐसे समय में कुछ राहत देकर उनके परिवार को बचाया जा सकता है। स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेदिक, होम्यापैथिक, प्राकृतिक एवं घरेलू चिकित्सा पर भी फोकस किया जा सकता है। वैसे भी आयुर्वेदिक काढ़ा भी गत वर्ष इसी कोरोना काल में रामबाण साबित हुआ है।
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