कहावत है, 'पहला सुख निरोगी काया' और यह शत प्रतिशत सत्य है। यदि मनुष्य जरा सा भी रुग्ण हो जाता है तो उसका सारा हौंसला पस्त हो जाता है। जब कोई चारा नहीं रहे तो हम भागते हुए वैद्य या डाक्टर के पास जाते ही हैं और डाक्टर मरणासन्न अवस्था से हमें अपनी मृदु वाणी एवं अपने उपचार द्वारा हमें नया जीवन प्रदान करता है। जब कभी आप ऑपरेशन थियेटर का दृश्य देखें तो आपको लगेगा कि जैसे बिजली के ट्रांसपोर्ट से तार जोड़े जाते हैं, ठीक उसी प्रकार नवीनतम संसाधनों के द्वारा मनुष्य के शरीर को कई नलिकाओं द्वारा जोड़कर मनुष्य को एकदम चंगा कर दिया जाता है। नया जीवनदान देने के कारण उनको भगवान से भी हम बड़ा मानते हैं।
यद्यपि पहले गाँव-गाँव में आयुर्वेद औषधालय थे, जिनमें वैद्य बैठा करते थे। उनकी चिकित्सा प्रणाली हमारी वेद विद्या, पर्यावरण, नाड़ी तंत्र एवं घरेलू नुस्खों पर आधारित थी। जिनको जनता भी बखूबी समझ कर अपनी रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ा लेती थी। वैद्य लोगों का आहार-विहार एवं आध्यात्म पर विशेष जोर रहता था। उनका गाँवों में आत्मिक संबंध भी होता था। वे निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा सुश्रुषा करते थे, जिससे उनको आत्मिक संतोष मिलता था। चाहे वे सरकारी सेवारत हो या घर पर, उनके पास आसपास के गाँवों से बैलगाडिय़ाँ छूटी रहती थी। उस समय एलोपैथी का जमाना ही नहीं था। यह तो अंग्रजों के आगमन के पश्चात् ही प्रारंभ हुआ। मुस्लिम सल्तनत में हकीम लोग भी देशी नुस्खे देकर ही इलाज करते थे।
अंग्रेजों के आगमन के साथ ही धीरे-धीरे एलोपैथिक का जमाना आया, जिसमें शल्य क्रिया (चीर-फाड़) पर विशेष जोर रहने लगा। पूर्व में डॉक्टर भी निस्वार्थ भाव से चिकित्सा करते थे। हमने यहाँ तक देखा कि पूर्व में कई डॉक्टर गरीब मरीजों को अपनी जेब से फल एवं निशुल्क दवाइयाँ तक देकर भी उनको मौत के मुँह से निकाल लेते थे। ऐसे डॉक्टरों पर केवल पीडि़त ही नहीं, अपितु उनके परिजनों की भी पूर्ण आस्था रहती थी, उन डॉक्टरों को देवतुल्य मानते हुए सब जगह सम्मान मिलता था। यही नहीं, गाँव के देशी जानतेर व जड़ी-बूटियाँ जानने वाले जो स्वयं धूम्रपान करते थे, आगंतुक मरीजों से बीड़ी तक के पैसे नहीं लेते थे, क्योंकि उनकी सोच थी कि यदि हम पैसे लेकर इलाज करेंगे तो हमारे इलाज से मरीज को यथोचित फायदा नहीं होगा।
शनै-शनै जमाना भौतिकता में रूपान्तरित होता चला गया। हर व्यक्ति की पैसे के प्रति आशक्ति बढ़ गई। डॉक्टरों का वेतन इतना बढ़ गया कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। एक-एक डॉक्टर एक-एक लाख। और यदि घर में पति-पत्नी दोनों ही डॅाक्टर हैं तो न्यूनतम दो लाख की सेलेरी, फिर भी भूखे के भूखे ही। एक-एक पेसेन्ट से ऑपरेशन के नाम पर पैसा, मेडिसिन में कमीशन, अस्पताल समय में भी अपने क्वार्टर में बैठकर मरीजों से फीस लेने का क्रम, पैसे की इतनी भूख कि उनको स्वयं को भी औलाद की कोई फिक्र नहीं, एक या दो बच्चों के होने पर परिवार नियोजन। ऐसे डॉक्टरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है? आलीशान बंगला, गाड़ी सब कुछ होते हुए भी कोई किडनी बेचते हुए तो कोई शरीर का अंग बेचते हुए पढ़े व देखे जा सकते हैं। आज तो स्थिति यह है कि मरीज को डर लगा रहता है कि ऐसा नहीें हो कि डॉक्टर नाराज हो जाये तो हमें मौत के मुँह में धकेल दे। आज भौतिकवाद में डॉक्टरों के प्रति मनुष्य की आस्था, अनास्था में बदल गई।
कोई पीडि़त अस्पताल का रुख करता है तो सर्वप्रथम मरीजों की भीड़, डॉक्टर मरीज को अपनी बीमारी पूछेगा, उसके बताते-बताते 500-1000 रु. के दवाइयों की स्लिप मरीज के हाथों में, फिर वह जाने, उसका काम। दो मीठे बोल बोलने की संवेदना एकदम गायब। डॉक्टर उस बीमारी का ऐसा हव्वा बनायेगा कि मरीज की साँसें वहीं की वहीं अटक जाये। पहले कई अनावश्यक जांचें, उसकी भी अनुशंसा अपनी या अपने मिलने वाली लेब पर ताकि मोटी कमाई हो सकें, फिर सीधे मरीज को ऑपरेशन प्लेटफार्म पर, अंग्रजी लिखे हुए फॉर्म पर मौत की जिम्मेदारी से बचने के लिए परिजन के हस्ताक्षर, ना कोई बात। ज्यादा पूछे तो कहेंगे, डॉक्टर आप हैं या हम। बेचारा मरीज इधर पड़े तो कुँआ और उधर पड़े तो खाई। आखिर अपना जीवन उनको समर्पित कर देता है। यदि मरीज मर भी जाये तो उनका बिल तो भरना ही पड़ता है, अन्यथा लाश के भी लेने के देने पड़ते हैं।
आज तो स्थिति ऐसी है कि डॉक्टर का सर्टिफिकेट प्राप्त कर कुछ ही समय में वे अपना क्लिनिक खोल कर बैठ जाते हैं और यदि सरकारी सेवारत हैं तो अपने परिवार के किसी सदस्य के नाम पर क्लिनिक चला रहे होते हैं। और फिर अपने निजी हॉस्पीटल में इतनी भारी भरकम फीस लेते हैं कि गरीब बेचारा उधर रुख ही नहीं कर पाता। केवल सोचने की आवश्यकता है कि इतना पैसा लेकर कौन आज तक ऊपर लेकर गया है, फिर आपकी वह सेवा भावना कहाँ चली गई?
उनका मानना है कि पढ़ाई एवं डॉक्टरी की डिप्लोमा लेने में भी उनको भारी मोटी राशि एवं यहाँ तक कि उनको घर के जेवरात बेचने पड़े हैं, उनका कहना भी शत प्रतिशत सत्य है, पर इसके यह मायने नहीं है कि आप जिंदगी भर जनता को लूटते रहो। जब सरकार ही अच्छा-खासा वेतन और सुविधा दे रही है तो उनको कुछ परहेज रखना चाहिए।
किसी कवि ने कहा है कि 'आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर' फिर अपन कौनसे खेत की मूली है। हमें यहाँ की अदालत में इंसाफ नहीं मिले, पर भगवान की अदालत में अवश्य इंसाफ है और आज तो वहाँ देरी भी नहीं है, कुछ समय में ही इसी जिंदगी में उस कर्म फल को भोगते हुए देखा जा सकता है। इसलिए अब भी समय है, सेवा ही वह धन है, जिसके आगे सारे धन बेकार है। सेवा करने पर ही आत्मा प्रफुल्लित होती है। किसी की गरीब की दुआ आपको कहाँ से कहाँ तक पहुँचा देती है, इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि डॉक्टर इलाज करते हैं, लेकिन उनमें लालसा की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई है। आज तो स्थिति ऐसी है कि स्वामी रामदेव बनाम योग/आयुर्वेद एवं ऐलोपैथिक में एक तरह से जंग छिड़ गई है। चिकित्सा प्रणाली वही बेहतर मानी जायेगीै, जिसमें रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़े एवं लोगों पर आर्थिक भार भी नहीं पड़े तथा वह प्रणाली प्राकृतिक/योग एवं घरेलु रूप से हमारे आसपास सुलभता से मिल सकें, जबकि एलोपैथिक हमारे दायरे में नहीं आती है। एलोपैथिक मेडीसिन 10 रु. के 100 रु. तक लगाकर विक्रय की जाती है। और मजबूरन हमें लेनी पड़ती है।
यह भी देखने में आया कि परहेज के कारण लोग आयुर्वेद से डरते हैं, जबकि आयुर्वेद के एक प्रधान चिकित्सक ने बताया कि यदि भूलवश आप आयुर्वेदिक दवाइयाँ लेते हुए वर्जित वस्तुओं को उपभोग कर लेते हैं तो डरने की कोई जरूरत नहीं है। वह दवाई भले ही उस वक्त फायदा नहीं पहुँचाये पर नुकसान नहीं पहुँचायेगी। आप पुन: दूसरे दिन से प्रारंभ कर सकते हैं। आयुर्वेद दवाइयों की एक विशेषता यह भी है कि वे रोग की तह तक जाकर उस बीमारी का हमेशा के लिए खात्मा कर देती है। लोगों में यह भी मान्यता है कि आयुर्वेद प्रणाली देर से काम करती है और एलोपैथिक शीघ्र लाभ करती है। मेरा स्वयं का अनुभव रहा है कि आयुर्वेद प्रणाली बीमारी का शीघ्र व पूर्ण शमन करती है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि गर्वनमेंट का आयुर्वेद की तरफ कम एवं एलोपैथिक की ओर ध्यान अधिक होने के कारण ही यह प्रणाली अधिक फलफूल रही है। और आज हम हमारी भारतीय संस्कृति की वैदिक चिकित्सा प्रणाली को भूलते जा रहे हैं।
पुन: डॉक्टर यदि जनता का मसीहा बने, तब ही वे वास्तविक सम्मान के हकदार होंगे और इसी में उनको आत्मिक संतोष मिलेगा और वे देवतुल्य बन सकेंगे।
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