बुधवार, 30 जून 2021

ग्रहयोग (एक जीवंत एवं सच्ची कहानी)

 




    आज तीन अक्टूबर था। मदनगोपाल पूजा-पाठ से निवृत्त हो चुके थे। वे अपने कस्बे से तीन किलोमीटर दूर एक गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक थे। दो अक्टूबर का अवकाश होने के कारण उन्हें आज तीन अक्टूबर को अपने विद्यालय में महात्मा गांधी एवं शास्त्री जी की की जयंती मनानी थी। वे उत्सव प्रभारी होने के नाते घर पर ही जयंती के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने वाले विद्यार्थियों की सूची देख रहे थे। इतने में लक्ष्मी ने में कहा चाय पकड़ाते हुए कहा.देखो जी, आज मैंने बुरा सपना देखा है। सुबह मैं गहरी नींद में थी कि मैंने देखा, दो चोर मेरे कमरे में आ गये। उन्होंने मेरे सन्दूक से कुछ रुपये निकाल लिए और मेरे कपड़े को तितर-बितर कर दिया। देखते ही देखते वे चोर बंदर की शक्ल के हो गए और मेरी आँख खुल गई। देखा तो कुछ नहीं था, लेकिन मैं एकदम से डर गई। मदनगोपाल ने बडी इत्मीनान से अपनी पत्नी को समझाया कि अपने पास क्या है लक्ष्मी, जो चोर लेकर जायेगा और ले जाता है तो ले जाने दो, उसका भाग्य है और वैसे भी सपने, सपने होते हैं। मुझे तो तनिक भी इनमें विश्वास नहीं है और देखा जाये तो मेरे घर की लक्ष्मी तो तुम हो। जब तक तुम हो परिवार का बाल भी बांका नहीं हो सकता। लक्ष्मी ने मुळकते हुए कहा, तुम्हें बातें बनाना ज्यादा आता है जी, मैं तो लगभग घबरा ही गई थी और वे बाहर निकल गये। 

    मदनगोपाल समय के बड़े पाबंद थे। लक्ष्मी को भी सुबह अपने काम में जल्दी लगी रहती थी। देखना कहीं देर हो जाये। अपने पति व बच्चों को तैयार कर उनके काम पर चले जाने के बाद ही वह आराम महसूस करती थी। रोजाना की भाँति आज भी लक्ष्मी ने जल्दी-जल्दी खाना तैयार किया। बच्चों के टिप्पन तैयार किए और स्कूटर पर एक बच्चे को आगे तथा दो बच्चों को पति के पीछे बैठा कर टा-.टा, टा-टा किया। उनके तीनों बच्चे कस्बे के एक ही विद्यालय में पढ़ते थे। 

मदनगोपाल ने बच्चों को उनके विद्यालय के पास स्थित पेट्रोल पंप पर छोड़ दिया। वहां से कुछ दूरी पर ही विद्यालय था। लौटते समय रास्ते में बच्चों के गुरुजी मिल गए। मदनगोपाल ने उनका अभिवादन किया, कुशलक्षेम पूछी। बच्चों के गुरुजी ने पूछा, क्यों गुरुजी! आजकल आपके बच्चे विद्यालय नहीं आ रहे हैं? मदनगोपाल ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है? मैं हमेशा की भांति अभी भी पेट्रोल पंप चौराहा छोड़कर आया हूँ। ये कहकर वे निकल गए। रास्ते में वे सोचते जा रहे थे, आखिर बच्चे चौराहे से कहाँ जाते हैं। उनके गुरुजी झूँठ नहीं बोल सकते। हो सकता है, उन्हें ध्यान न हो। शाम को खबर लेंगे।

    विद्यालय जाने के बाद बात आई गई हो गई। वे अध्यापन में खो गए। मध्यांतर पश्चात् पूज्य बापू की जयंती मनायी जाने लगी। विद्यालय परिसर रामध्वनि से गुंजायमान हो गया। बापू का प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, पीर पराई जाणे रे' की ध्वनि से वातावरण भक्तिमय हो गया। बच्चे भी बड़ी रोचकता से गांधीजी व शास्त्री जी की सादगी व उनकी महानता के बारे में सुन रहे थे। इस में मौके पर मदनगोपाल ने भी बच्चों को बड़े आत्मविश्वास भरे लहजे में कहा कि पूज्य बापू अपनी प्रार्थना में नित्य भगवान का नाम पुकारते थे। उनका भगवान ईश्वर अल्लाह एक समान था। उन्होंने बच्चों से कहा-भगवान के नाम में अमोघ शक्ति है। कितनी भी पड़े भारी विपत्ति आ जाये, यदि तुम सच्चे मन से प्रभु को पुकारोगे तो आपको आपके भगवान विपदा की घड़ी से  अवश्य बाहर निकालेंगे। ऐसे प्रवचन देकर वे घर की ओर रवाना हो चुके थे। 
    रास्ते में पुन: उनके तुम्हें मन  वहीं बात मंडरा रही थी कि आज अवश्य ही बच्चों की खैर-खबर लेंगे। वे घर आ चुके थे। सबसे छोटा बच्चा जो पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ता था, वह पहले ही घर आ चुका था। उसकी छुट्टी बड़े भाईयों से पहले हो जाया करती थी। मदनगोपाल ने लक्ष्मी से पूछा, क्या बच्चे अभी तक नहीं आये? लक्ष्मी ने कहा, आते ही होंगे, चार बजे हैं। अक्सर चार बजे तक बच्चे घर पर आ जाया करते थे। अब सवा चार बज गए। मदनगोपाल ने फिर लक्ष्मी से पूछा। लक्ष्मी ने कहा, हो सकता है, कहीं खेलने लग गए हो, अभी आ जायेंगे। मदनगोपाल ने अपनी पत्नी को बच्चों के गुरुजी वाली बात भी बताई। लक्ष्मी का मातृत्व अंदर से आहत हो, लेकिन वह अपने पति को वेदनामय नहीं देखना चाहती थी, उसने कहा, थोड़ी देर और देख लीजिए, आते ही होंगे। मदनगोपाल का एक-एक पल पहाड़ सा होता जा रहा था। वह सोच रहा था कि आज ही बच्चों की खबर लेने की बात मन में उठी और आज ही बच्चे नदारद । छोटे बच्चे से पूछना चाहा, पर वह अभी नासमझ था, समझा नहीं पायेगा।

    साढ़े चार बज चुके थे। बच्चे अब तक घर पर नहीं आये। अब लक्ष्मी भी विचलित होने लगी थी। जैसे-तैसे पौने पाँच बज गएथे। मदनगोपाल ने बडे बच्चे को साथ लिया। अपने स्कूटर से सारी जगह टटोली, जहाँ बच्चे जा सकते थे- विद्यालय, खेल का मैदान, रावण चौक, काला हत्था पर कहीं बच्चों का कोई थाह नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे? थक-हार कर अपने पड़ोसियों को सारी बात बताई। पड़ोसियों ने सांत्वना दी कि हो सकता है, आपके बच्चे आपके गाँव दादी के पास चले जाये। इतने अधीर ना हो, बच्चे कहीं न जायेंगे, मिल जायेंगे। शाम के सात बज गए थे। अंधेरा घिर आया था। मदनगोपाल का धैर्य जवाब दे चुका था। उसका खाना-पीना, आराम सब हराम हो चुके थे, यहां तक कि उसका पांच बजे से मल-मूत्र त्याग भी बंद हो चुका था। हारकर उसने लक्ष्मी से कहा, चलो कुछ रुपये दो, गाड़ी रिजर्व में चल रही है, तेल भी भरवाना है। लक्ष्मी को कुछ दिन पहले ही मदनगोपाल ने अठारह सो रुपये दिये थे। लक्ष्मी ने उनको हरिद्वार से लाये चोलड़े में रखा था। पर यह क्या, लक्ष्मी ने पूरे चोलड़े को उलट-पुलट कर खंगाल दिया, लेकिन रुपयों का काई अता-पता नहीं था। लक्ष्मी ने लगभग रोते हुए कहा अरे राम! वे रुपये भी गए और छोरे भी गए। अब क्या करूँ? पास के सटे हुए मकान में देबीशंकर जी अकेले रहते थे, वे बुजुर्ग थे। उनका मदनगोपाल के परिवार से पुत्रवत् स्नेह था। मदनगोपाल उनको काकाजी कहकर पुकारता था। उसने देबीशंकर जी के पैर पकड़ लिए और कहा कि अब क्या करूँ? परिवार पर आफत आ चुकी थी। देबीशंकर जी ने ताड़ लिया कि मदनगोपाल के पास एक धैला भी नहीं है। उनका दिल पसीज गया, उन्होंने कहा, बेटा चिंता मत कर, मैं तेरे साथ हूँ। मदनगोपाल को डूबते को तिनके का सहारा मिल गया।

    मदनगोपाल ने देबीशंकर को साथ लिया और थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने लगे। थानेदार ने पूछा, क्या किसी पर उनको शंका है? मदनगोपाल के अब तक कोई दुश्मन भी नहीं था, जिसका नाम लिया जा सकें। उसने कहा, हमारे कोई दुश्मन नहीं है। हाँ, हो सकता है वे कहीं अपनी दादी से मिलने गाँव चले गए हो। थानेदार ने कहा, पहले अपने गाँव की जानकारी ले लो, फिर हम तुम्हारी एफ.आई.आर. दर्ज कर लेंगे।

    काकाजी ने अपने मिलने वालों से किराये की एक जीप ली तथा बच्चों को ढूंढने निकल पड़े मदनगोपाल के गाँव। रास्ता बहुत खराब था। अभी हाल ही में बरसात हुई थी। जगह-जगह पानी भरा हुआ था। आसोज का महीना था। नवरात्रा चल रहे थे। गाँव में माईक से रामलीला के मंचन की आवाजें आने लगी थी। हारमानियम एवं नगाड़े ताबड़तोड़ बज रहे थे। रावण जोर-जोर से चिल्ला रहा था। अचानक गाड़ी के ब्रेक लगे। गाडी हिचकोले खा रही थी। रात्रि के ग्यारह बज चुके थे। मदनगोपाल ने घर की कुन्दी खटखटाई । माँ ने दरवाजा खोला। मदनगोपाल ने  बच्चों के बारे में माँ से पूछा तो उसके भी होश उड़ गए। बच्चे वहाँ नहीं आये थे। मदनगोपाल ने सोचा, हो सकता है, रामलीला देखने ही चले गए हो। रामलीला के दर्शकों में देखा, भीड़ छंट चुकी थी। इनेगिने दर्शक ही रह गए । बच्चों का कहीं अतापता न था।

    मदनगोपाल ने माँ को भी अपने साथ ले लिया। गाड़ी  कस्बे में आ चुकी थी। रात के साढ़े बारह बज चुके थे। थाने में सिपाही बैठा-बैठा ऊंघ रहा था। सिपाही से प्राथमिक रिपोर्ट लिखने को कहा गया। सिपाही ने कहा, रिपोर्ट सुबह लिखा देना, अभी इंचार्ज अपने क्वार्टर पर चले गए हैं। अभी तो आप बच्चों के हुलिए बता दीजिए। मदनगोपाल ने बताया, बड़े बच्चे का नाम सुनिल है, छटी कक्षा में पढ़ता है। सांवले रंग का है। स्कूल ड्रेस में है। दूसरा छोटा बच्चा गौर वर्ण का है, उसका नाम अनिल है। चौथी कक्षा में पढ़ता है। वह भी नीले रंग की स्कूल ड्रेस में है और अपना एड्रेस लिखा दिया। 

    रात के एक बज चुके थे। बच्चों के अपहरण संबंधी तरह-तरह के विचार घुमड़ रहे थे। सोच रहा था, अब क्या होगा? न जाने क्या हश्र होगा? वे मिलेंगे भी या नहीं? एक साथ दो-दो बच्चे चले गए। घर में भी कोहराम मचा था। पास की स्त्रियां लक्ष्मी को दिलासा देकर अपने-अपने घर जा चुकी थी। लक्ष्मी बदहवाश हुए जा रही थी। होनी के आगे कौन क्या कर सकता है?

    मदनगोपाल माँ पर बरस रहा था, सुनील को बिगाड़ने में तेरा ही हाथ था। माँ कह रही थी, सुनिल गलत था, पर तेरा जाम अनिल तो तेरे पास ही रहता था, वह उसके साथ क्यों गया? मदनगोपाल कह रहा था, यदि बड़ा लड़का बिगड़ा हुआ है, गलत है तो छोटे की क्या गलती, वह भी तो उसके साथ जा सकता है। 

    एक-दूसरे पर आरोपों की झड़ी चल रही थी। मदनगोपाल ने सोचा था, माँ से कहीं कुछ दिलासा ही मिलेगी लेकिन वह ता जले पर नमक छिड़क रही थी। यद्यपि लक्ष्मी और उसके सास के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। लक्ष्मी जानती थी कि उसकी सास का कोई नहीं जीत सकता, सारी पोट उस पर ही आ जायेगी। इसलिए लक्ष्मी बीच-बीच में लक्ष्मी मदनगोपाल को ही चुप किये जा रहा थी। देखो जी, सब लोग सो रहे हैं। कोई क्या कहेंगे। तुम तो चुप हो जाओ। माँ का पारा सातवें आसमान पर था। वह सुनाना ही जानता थी। सुनना उसके वश में ना था। मदनगोपाल के दिल में रह-रह कर शूल उभर रहे थे। लक्ष्मी जहर का घूंट पी रही थी। माँ बेटे में बहस चल रही थी। रात के दो बज चुके थे। अचानक लक्ष्मी ने कहा, रुको, जरा चुप भी हो जाओ, बाहर कोई है। बाहर से कोई मदनगोपाल-मदनगोपाल पुकार रहा था। गेट खोल दिया गया। बाहर दो आदमी खड़े थे।

    उनमें से एक ने कहा, मैं पुलिस से आया हूँ, तुम्हारा नाम मदनगोपाल है? 

    मदनगोपाल ने कहा, जी मैं ही मदनगोपाल हूँ।  

    सिपाही : आपके बच्चे खोये हैं?

    मदनगोपाल : जी हाँ, पर वे कहाँ हैं? 

    सिपाही : वे मिल चुके हैं, आप चिन्ता न करें। 

    मदनगोपाल : क्या वाकई आप सच कह रहे हैं?  मैं आपके पैरों पड़ता हूँ। आप केवल सांत्वना ही दे रहे हैं या सच ही में बच्चे मिल मिल गए हैं। मदनगोपाल, लक्ष्मी एवं माँ सभी उस सिपाही के पैरों में पड़-पड़ कर गिड़गिड़ा रहे थे। सिपाही ने कहा, माताजी आप बड़े हैं। चिन्ता न करें, सब ठीक है। बच्चे सकुशल हैं, लेकिन वे यहाँ नहीं है। इस समय वे जयपुर में हैं। सिपाही ने कहा, मदनगोपाल आप हमारे साथ चलिए। मदनगोपाल ने काकाजी को भी साथ कि लिया, अब वे दो से चार हो गए थे। चौराहा तक वे पैदल-पैदल आए। सिपाही ने होटल से अपने साथ लिये हुए व्यक्ति को वहीं पास की होटल में छोड़ दिया। सिपाही की गाड़ी वहीं पैट्रोल पंप पर खड़ी थी। सिपाही ने मदनगोपाल से कहा, गाड़ी में तेल कम है, इसे भरवा दीजिए। मदनगोपाल के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसने काकाजी से गिड़गिड़ाते हुए कहा, आप इनकी गाड़ी में जितना चाहे पैट्रोल भरवा दीजिए, मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ, सारा पैसा चुका दूंगा। काकाजी ने उस गाड़ी में सौ रुपया का पैट्रोल भरवा दिया।

    अब वे थाने पहुंच चुके थे। थाने में दूसरा संतरी बैठा हुआ था। उसने बड़े इत्मिनान से कहा, चिन्ता नहीं करें, बच्चे सकुशल हैं। आप दो सौ रुपये निकालिये, मैं पूरा एड्रेस बता देता हूँ। मदनगोपाल ने काकाजी को इशारा किया, उन्होंने डेढ सौ रुपये टेबुल पर रख दिये। सिपाही ने रुपये जेब में रखते हुए कहा, बच्चे जयपुर बजाज नगर थाने में हैं। बिस्किट खा रहे हैं। घबराने की कोई बात नहीं है। सिपाही ने एक पर्ची पर नम्बर लिखकर देते हुए कहा, किसी तरह की कोई समस्या हो तो मेरे इन नम्बरों पर फोन कर देना।

    अब मदनगोपाल को बच्चों के मिलने का इत्मिनान हो चुका था। अब उन्हें जयपुर के लिए बस पकड़ना था। शाम पाँच बजे से वह लघुशंका तक नहीं कर पाया था। शाम को हुई बारिश से जगह-जगह पानी भरा हुआ था। पास की संकरी गली में उसने लघु शंका की। सुबह के चार बज चुके थे। कुछ ही देर में बस आ चुकी थी। मदनगोपाल व काकाजी सुबह आठ बजे तक जयपुर के बजाज नगर थाने में आ चुके थे। यद्यपि मदनगोपाल का कभी थाने से पाला नहीं पड़ा था। थाने के बाहर संतरी गन लिये खड़ा था। संतरी ने उनके थाने में आने का कारण पूछा। मदनगोपाल ने कहा, बच्चे लेने आये हैं। संतरी समझ गया था। उसने सामने जाने का इशारा किया। वाकई बच्चे वहाँ कुर्सी पर बैठे हुए बिस्किट खा रहे थे, चाय पी रहे थे। छोटा बच्चा पिता को देखते ही रोने लग गया था, जबकि बड़ा बच्चा पिता को केवल घूर कर ही रह गया। थानाधिकारी ने एक संतरी के द्वारा मदनगोपाल को अंदर बुलाया। थानाधिकारी ने पूछा, क्या सबूत है कि ये बच्चे तुम्हारे ही हैं? मदनगोपाल ने कहा, अब मुझे कोई डर नहीं है, बच्चे मिल चुके हैं। आप जाँच कर लीजिए, मैं स्वयं सरकारी कर्मचारी हूँ। यहां मेरे बहुत से रिश्तेदार हैं। आप अपनी कार्यवाही कर सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। ये कहते हुए मदनगोपाल ने अपने कस्बे के थानाधिकारी के कहने के मुताबिक वहाँ के थानाधिकारी को डेढ़ सौ रुपये पकड़ा दिये। थानाधिकारी ने उन्हें बाहर बैठने का इशारा किया। वहाँ एक सिपाही कह रहा था कि आजकल ऐसे गुण्डे हैं, जो बच्चे-बच्चियों के गुर्दे तक बेच देते हैं। मदनगोपाल यह सुनकर बड़ा दुःखी हुआ। उसने भगवान का लाख-लाख धन्यवाद दिया। कुछ देर में एक सिपाही ने बच्चों के सामने उनके द्वारा लाया एक ड़ी प्लास्टिक का थैला एवं नौ सो रुपये मदनगोपाल को थमा दिया। उस थैले में दो प्लास्टिक के चश्में, कुछ खिलौने, गेंद, घड़ी, चाकलेट आदि थे।  
    नौ बजे थाने का मुख्य इंचार्ज आया। उसने एक सिपाही के द्वारा मदनगोपाल को ऊपर की मंजिल पर अपने पास बुलाया। सौ उसकी मंशा भी कुछ रुपये ऐंठने की थी। मदनगोपाल ने बता दिया था कि साब बच्चे मिल गए हैं तथा मैंने डेढ़ सौ रुपये नीचे थानाधिकारी को दे दिये हैं। इंचार्ज महोदय कुछ नहीं बोले। मदनगोपाल को नीचे भेज दिया गया। आधे घंटे पश्चात् कागज पर हस्ताक्षर करवाकर उन्हें बच्चों सहित छोड़ दिया गया। 
    अब वे बच्चों को साथ लेकर पुनः अपने कस्बे के लिए बस में बैठ में चुके थे। मदनगोपाल को बड़े लड़के सुनील पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसी ने अनिल को अपने साथ लिया था। क्या तकलीफ थी, घर पर क्यों नहीं कहा। आज तक उसने सुनिल के गाल पर एक तमाचा तक नहीं मारा था। सुनील दादा-दादी के पास ही रहता था। दादा-दादी सोचते, कहीं सुनील को माँ-बाप अपने साथ नहीं ले जाये। हम अकेले कैसे रह पायेंगे? दादा-दादी पोते पर अपना अंधा प्यार लुटाते जाते थे। दादाजी अनाज बेचकर सुनिल को कभी कुल्फी, कभी मिठाई, कभी नमकीन आदि खिलाया करते। कभी दादाजी के न रहने पर कभी सुनिल ही अनाज बेचकर कुल्फी, आइस्क्रीम आदि ले लेता। दादी भी मना नहीं करती। कभी-कभी मदनगोपाल को सुनिल के गुरुजी के द्वारा भी उसकी उदंडता की जानकारी मिल जाती थी, पर वह अपने माता-पिता के आगे बेबस था। पिता की मृत्युपरांत मदनगोपाल सुनिल को अपने यहाँ ले आया था। यहाँ सुनिल पर माता-पिता का पूर्ण नियंत्रण था। अब यहाँ बेचने के लिए अनाज भी न था। वहाँ दादा-दादी का प्यार था, यहाँ पर माता-पिता का निर्देशन था।
    मदनगोपाल के मन में विचारों का प्रवाह उमड़ रहा था कि अचानक गाड़ी ने ब्रेक लगा दिये। चार घंटे का सफर विचारों में ही सिमट गया था। बस उनके कस्बे के चौराहे पर खड़ी थी। काकाजी सहित मदनगोपाल एवं बच्चे घर आ चुके थे। कुछ देर बाद घर का वातावरण शांत हो चुका था। शाम के पांच बज बज गए थे। मदनगोपाल का सारा क्रोध सुनिल पर ही था। मदनगोपाल ने लक्ष्मी को विश्वास में लेकर सुनिल को कमरे में बंद कर दिया और एक लकड़ी की पट्टी से धुनाई शुरू कर दी। जिस लड़के के कभी पिता का एक तमाचा नहीं पड़ा हो, वह आज पिता का रौद्र रूप देख रहा था। कभी-कभी पिता का यह रूप भी बच्चे को सही मार्गदर्शन दे सकता है। दादी का दिल बैठा जा रहा था, उसने अपने गांव का रास्ता पकड़ लिया था। फिर जो कहानी सामने आई वह यह थी.. ।
    कुछ दिन से मदनगोपाल के चौराहे से उतारने के बाद सुनिल विद्यालय न जाकर अपने दो छोटे भाइयों को साथ लेकर दिन से कस्बे में इधर-उधर चक्कर काटने लगा था। कभी सिनेमा घर में पोस्टरों को निरखते तो कभी रावण चौक में क्रिकेट खेलते हुए बच्चों को। सुनिल कभी छोटे भाईयों को आईस्क्रीम खिलाता तो कभी पानी पतासा। छुटपुट पैसे घर से मिल ही जाते थे। एक दिन उसने हरिद्वार से लाये चोलड़े से पैसे निकालने की योजना बनाई। सुनिल ने छोटे भाई अनिल को भी अपने विश्वास में लिया कि कहीं मम्मी-पापा को न कह दे। उसी दिन वह पैसे लेकर हमेशा की तरह अपने पापा के साथ विद्यालय के पास चौराहे पर उतर गए। वे विद्यालय न जाकर छोटे अबोध भैया को वापस घर भेज दिया तथा सुनिल अनिल को लेकर रोड़वेज स्टेण्ड आ गए। बस का कण्डक्टर उन छोटे दोनों बच्चों को देखकर एक बार ठिठक कर उनके घर का पता पूछने लगा, लेकिन सुनल की बेबाकी से वह शायद संतुष्ट हो चुका था। कहा, हो सकता है, घर वालों ने ही भेजा हो। सुनील कुछ दिन पहले ही अपने परिवार के साथ मानसरोवर तक गया था, अतः वह सांगानेर थाने तक का रास्ता जानता था। सुनिल और अनिल वहीं उतर गए।
    अब क्या था, अब वे पूर्ण स्वतंत्र थे। सारा दिमाग सुनिल का चल रहा था। जिस प्रकार अभिमन्यु चक्रव्यह में प्रवेश करना तक ही जानता था, आने का मार्ग वह नहीं जानता था। सुनिल का दिमाग वहाँ तक पहुँचने तक का ही कार्य कर रहा था, लौटने की तो उसने सोची तक नहीं थी। अब वे बेफिक्र होकर बाजार में घूमने लगे। कभी चश्मा लेते तो कभी गुब्बारा, कभी मिठाईयां लेते तो कभी मूंगफली। उन्होंने खिलौने टाइप की दो घडियां भी खरीद ली थी। ये सब नजारा वहां रिक्षा वाले एवं ऑटो वाले देख रहे थे। वे सोच रहे थे, ये सुन्दर बच्चे कौन हैं? कहां से आये हैं? कहां जायेंगे? आखिर बार-बार यहीं पर आकर क्यों रुक रहे हैं? पर कोई बात करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। हो सकता हो, उनके परिजन इर्द-गिर्द हो। तभी छोटे भैया अनिल को लेट्रिंग लगी।। उसने एक रिक्षे वाले से पूछा, अकंल मैं लेट्रिंग करुंगा। रिक्षे वाले ने तुरंत एक प्लास्टिक की बोतल में पानी भरकर बच्चे को पकड़ा दी तथा शौच करने का रास्ता बता दिया। उसने उनका सामान अपने पास ले लिया। एक बार तो वह सुनिल से पैसे भी लेना चाह रहा था, लेकिन सुनिल ने उसको पैसे नहीं दिये। अनिल के शौच से निवृत्त होने के पश्चात् रिक्षेवाला निश्चिंत हो गया था कि ये अकेले हैं, क्यों नहीं इनको अपनी झुग्गी में ले जाया जाये। उसने अपना रिक्षा वहीं खड़ा कर दिया तथा उन बच्चों को एक सिटी बस में बैठाने लगा। वह एक बच्चे को ही अपने साथ ले जाना चाहता था। अत: कभी एक को अंदर बैठाता तो कभी दूसरे बच्चे को बाहर धकेलता। बच्चे एक-दूसरे से चिपटे हुए थे, वे अलग होने का नाम नहीं ले रहे थे। हार कर उसने देखा कि कहीं यात्रियों को इसकी भनक नहीं लग जाये। अत: वह आँख निकालकर भी अपने आपे को समेटे हुए था। जैसे-तैसे उसने उन बच्चों को अपने साथ बस में बैठा दिया तथा बजाज नगर उतरकर अपना झोपड़ी में लिवा लाया।
    रिक्षा चालक का नाम भज्जी था। उसकी उम्र 30-32 वर्ष की थी। उसने अपनी बीबी को घर से मारपीट कर कुछ दिनों पहले ही बाहर निकाल दिया था। वह अकेला ही रहता था। उसकी बहिन ने पूछा, क्यों रे भज्जी, ये छोरे कहां से पकड़ कर लाया है। भज्जी ने कहा, ये थानेदारजी के लड़कें हैं। इनको उनके घर छोड़ना है। यह कहकर वह अपने कमरे से बाहर निकल गया। पीछे से उसकी बहिन ने उन बच्चों से उनके परिवार की सारी जानकारी भी लेकर अपने घर वालों को दे दी। परिवार के दो-चार आदमियों ने बजाज नगर थाने में इत्तिला दे दी। थानेदार ने कहा, उन लड़कों को थाने लेकर आओं। इतनी ही देर में भज्जी अपनी झोपड़ी में आ चुका था। परिवार वालों ने भज्जी से कहा कि थाने में जानकारी हो चुकी है और थानेदार साहब ने बच्चों को लेकर तुम्हें थाने बुलवाया है। अब भज्जी विवश हो गया था। उसने उन छोरों पर आँखें तरेरते हुए कहा कि तुम मेरा नाम मत लेना कि मैं तुम्हें लेकर आया हूँ और कह देना कि तुम थानेदार जी के लड़कें हो।
    भज्जी एवं उनके परिवार के दो-चार आदमी उन लड़कों को लेकर थाने आ चुके थे। थानेदार जी ने उन लड़कों से उनका पता पूछना चाहा तो भज्जी की लाल-लाल-आँखें सुनिल को डरा रही थी। सुनिल झूँठमूठ अपने को थानेदार का लड़का बताने लगा, इसके आगे वह कुछ नहीं कह पाया। थानेदार जी ने अन्य थानों में भी फोन लगाकर पूछा, लेकिन झूठ के पांव नहीं होते। जब थानेदार ने देखा कि बात नहीं बन पा रही है तो भज्जी को डंडा दिखकर उसे अपने कक्ष से बाहर कर दिया। तथा बच्चों को बडे प्रेम से कहा बेटा तुम सच-सच अपने बारे में बता दो नहीं तो यह डंडा देख लेना। अनिल ने अपनी संपूर्ण जानकारी थानेदारजी को उनके प्रश्रानुसार दे दी। थाने से वायरलेस द्वारा मदनगोपाल के कस्बे के थाने में रात को घंटी घनघना उठी। जयपुर से बच्चों की गुमनामी की सूचना दी गई, जिसकी इस थाने से पुष्टि हो गई। फिर क्या था, रात्रि को ही थाने के सिपाही के द्वारा सूचना मिलने पर मदनगोपाल बच्चों को जयपुर से लिवा लाया था।

    दूसरे दिन सुनिल को साथ लेकर स्कूल बैग की तलाशी की गई। पंचायत समिति के पीछे पेड़ की ओट में दोनों के बैग सुरक्षित मिल गए थे। आज रविवार था। रवि की रश्मियां पूर्ण कांति से प्रकाशमान थी। कुँहासे के बादल छंट चुके थे। ग्रहयोग टल चुका था।

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