बुधवार, 29 अप्रैल 2020

मुक्ति




{यह कहानी कपोल कल्पित है। इसका वास्तविक जीवन से किसी का कोई लेना देना नहीं है। मनुष्य पानी का एक बुलबुला है, उसे भवसागर में विलीन होना ही है।}     
  रा नाम सत्य है, सत्य बोला गत है। राम नाम सत्य है, सत्य बोला गत है।' ये आवाजें मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मेरा निःचेष्ट शरीर कई नये-नये कपड़ों एवं फूलों से लदा था। मैं हिचकोले खाता जा रहा था, मानो बिना ब्रेक की गाड़ी को ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों में छोड़ दी हो। मुझे मेरे परिजन अपने कंधों पर उठाये आगे बढ़ रहे थे। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि ये आज सारे इकट्ठे क्यों और कैसे हो गए हैं? मेरे पीछे-पीछे कुछ लोगों को हजूम धीरे-धीरे चल रहा था। मेरे आगे-आगे एक व्यक्ति धुंआ भरी हाँडी लिए चल रहा था। समझ नहीं रहा था, आखिर ऐसा क्या हो गया है, मैं सोच-सोच कर परेशान था। हो सकता है, सांसारिक व्यक्तियों का यही दस्तूर हो।
इस बीच मैं अर्थी से घर तक कई मर्तबा चक्कर काट चुका था। मुझे समझ नहीं रहा था कि मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? मेरी गति इतनी गतिमान थी| कि मैं एक पल में घर पहुँच जाता था, दूसरे पल मेरे शरीर पर मंडराता रहता। मैं बार-बार मेरे अपने शरीर में प्रवेश करना चाहता था, पर जिस वायु के माध्यम से मैं उस पिण्ड में अपना स्पंदन किया करता था, आज मेरे लिए कपाट बिल्कुल बंद हो चुके थे। मैं बेबस था। घर पर कोहराम मचा हुआ था। वहां औरतों का एक बड़ा हजूम था, जो गला फाड़-फाड़ कर रोती-चिल्लाती जा रही थी। वहाँ कई औरतों के आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ था।
   मेरी अर्थी रख दी गई। मेरे शरीर को मंत्रोच्चार के साथ जलाया जा रहा था। मेरा पिण्ड धूं-धूं कर जल रहा था। मैं बड़े इत्मिनान से सब कुछ देख रहा था। वहाँ कई व्यक्ति अलग अलग झुण्डों में बिखरे बैठे हुए थे। कहीं-कहीं राजनीति के बड़े-बड़े चर्चे हो रहे थे। लोग कहकहे लगा रहे थे। कहीं-कहीं शादी-ब्याह की बातें चल रही थी। कुछ लोग मुँह लटकाये बैठे हुए थे। कहीं-कहीं मेरे बारे में भी अच्छी-बुरी बातें। चल रही थी। मैं उन सब बातों को बहुत अच्छी तरह सुन रहा था। मैंने महसूस किया किया कि मैं अब तक स्पष्ट नहीं सुन पा रहा था पर आज! आज तो उनके मुँह से निकलने वाली वाणी को पहले ही भांप लेता था। मैं इस समय एकदम मुक्त था। मुझे अच्छा लग रहा था कि मैं स्पष्ट देख सकता हूँ, स्पष्ट सुन सकता हूँ, स्पष्ट अनुभव कर सकता हूँ। मेरे को अब किसी का कोई खतरा नहीं था। आग-हवा-पानी भी मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। मैं इन सब से परे था। मैं इनमें -जा सकता था। लोगों को मैं स्पष्ट अपने निर्दिष्टों द्वारा अनुभव करा सकता था। इतनी शक्ति पाकर मैं फूला नहीं समा रहा था। मैं हर पल जमीन-आसमान की ऊँचाइयों को लांघ रहा था। मुझे झल्लाहट ये हो रही थी कि आखिर मैं रूकूँ कहाँअब मैं लगभग थकने लग गया था। मैंने वहीं शमशान की डाली को पकड़ ली और निढाल हो गया                                                      देर रात तक राख ठंडी पड़ चुकी थी। वहाँ कोई रोने वाला नहीं था। वातावरण पूर्ण निस्तब्ध था। वीरानी छायी हुई थी। कुछ सूअर और कुत्ते मेरे शरीर की राख को कुरेद रहे थे। मैं निढाल अर्द्ध तन्द्रा में पड़ा हुआ था कि अचानक वृक्ष से पत्ते लहलहा उठे। बेजान पुष्प गंध से भर गए। पक्षियों का कलरव प्रकृति के गीत गाने लगा। एक हवा का झोंका आया, मेरी आत्मा खिल गई। सारा वातावरण एक विशेष गंध से भर गया। मैं निढाल था। मुझे हवा की गंध जानी-पहचानी लगी। मुझे लगा कि यह गंध तो मेरे चारों ओर पहले भी मंडराती रहती थी। छाया-परछाया की भांति मुझे घेरे रहती थी। इसी गंध के पाने की तो मुझे बड़ी आतुरता थी। मेरी आत्मा एक ज्योति की भांति प्रकाशमय हो गई। मैंने देखा कि यह तो साक्षात लक्ष्मी थी। मेरी अपनी लक्ष्मी, जिससे मेरा अपना अस्तित्व था, एक शकुन था, जन्म-जन्मांतर का रिश्ता था। मैं अब तक खंडखंड जर्जर हो गया था। अब मानो मेरे मन की मुराद पूरी हो गई थी। मुझे अब कुछ नहीं चाहिए था। भौतिक धन-वैभव-लक्ष्मी की तो मैंने कब से ही किनारा कर लिया था।                                मैंने अपने ज्योति पुंज के दकमते प्रकाश में देखा कि वह लाल चुनरी में कैसी लाल सुर्ख लग रही थी उसके कपोलों पर लालिमा पूर्ववत आभा बिखरी हुई थी। उसकी आँखों में मादकता-सा नशा था। उसके अधर रस से सरोबार थे। उसका तन बदन कांतिमय दमक से दमक रहा था, ऐसा लग रहा था,  मानो आसमान से कोई परी उतर आई हो। नीचे से  ऊपर तक अपनी ममता, त्याग, वात्सल्य के की  प्रतिमूर्ति वह ज्योति जीवंत हो उठी थी। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, उसकी काया अभी तक बूढ़ी क्यों नहीं हो पाई? क्या यही है वह जो मेरे सपनों की रानी थी। मैंने अच्छी तरह से आँखें फाड़कर देखा, ये तो वही है, जो मेरे जन्म-जन्मान्तरों से साथ रही है। मेरे तन-मन की अर्धांगिनी। अर्धांग रहने के कारण ही अब तक मैं टूट चुका था। यही है अर्द्धनारीश्वर रूप जिसकी मुझे पिपासा थी।                                                                                                              मैं सुख से भर गया था। उसकी कांति से मेरा रोम-रोम दमकने लग गया था। कहते हैं, एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा दरवाजा खुल जाता है। मेरे लिए यही विपुल खजाना था जो मुझसे बिछुड़ गया था। अब मैं उससे अलग नहीं होना चाहता था। पर यह क्या? कुछ ही क्षणों में मेरे रोम-रोम में एक खीज़ से उत्पन्न होने लगी। उस छाया के प्रति मैं वीतराग से भर गया। मेरी ज्योति से लाल-लाल अंगारे निकलने लगे। अब मैं उस दामिनी से भी अधिक भयंकर हो उठा था। समझ नहीं रहा था कि एक क्षण में यह आकर्षण निष्ठुर विकर्षण में कैसे बदल गया।
   मैंने पूछा-कौन हो तुम? मुझसे क्या चाहती हो? अब मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। उसने कहा-मैं भी जन्म-जन्म की प्यासी हूँ, तुम्हारे बिना मैं रह नहीं सकती। तुम्हारा दर्द मैं समझ सकती हूँ। पर मैं क्या करू, मैं स्वयं बेबस थी। अब तक तुम्हारी बाट ही जोह रही थी। 
   मैंने कहा- तुम झूठ बोलती हो। तुमने अब तक मेरी एक बार भी सुध क्यों नहीं ली? मुझसे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं है। 
   उसने कहा- याद करो तुम, हर रात निद्रा से पहले तुम मुझे पुकारते थे। कहीं भी बाहर काम पर जाने से पहले मुझे घर पर ध्यान देने के लिए कह कर जाते थे। मैं तुम्हारे से दूर होकर भी दूर नहीं थी। 
   उसने सचमुच मेरी दूखती रग पर हाथ रख दिया था। वह वास्तव में सच ही कह रही थी। कई मर्तबा रातों में रानी बनकर और दिन में विचारों की वीरानी बनकर अश्रुधारा छलका जाती थी। मैंने उसको कसकर पकड़ लिया। उसे चाहते हुए भी नाटक करते हुए ऊपरी क्रोध से कहा-तूने मुझे तड़फ़ाया है, तुम्हें पता है बिना जल के मीन की क्या दशा होती है?
   वह बोली-मैं नारी हूँ, मैं पुरूष की हर संवेदना को पहले ही भांप लेती हूँ। पुरूष को मुक्ति का मार्ग दिखाना मेरा स्वभाव है। 
   मैंने कहा-मैं समझा नहीं।
   वह बोली याद करो वह घटना जब तुमने मेरी छटपटाहट में मुझको ही घर से बाहर |निकाल दिया था। मेरे प्रति वह आकर्षण ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग है। 
   मुझे कुछ याद नहीं रहा था। मेरी स्मृति धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। उसने मुझे आंचल में समेट लिया। मुझे लगा एक-एक लम्हा साकार हो चला है। यादों का सिलसिला बढ़ा, मैं कहीं खो गया......
ग्रीष्मावकाश पूरे होने चला था। लगभग पन्द्रह दिन ही शेष थे। लक्ष्मी बच्चों को लेकर अभी-अभी उठी थी। मैं भी सोकर उठा था। लक्ष्मी कुछ दिनों से मैके की टेर लगा रही थी। आज भी उसने कहा था-'मैं अब कुछ दिन के लिए मैके चली जाती हूँ, आप भी अभी फ्री हैं। मुझे लक्ष्मी के मैके का नाम लेते ही घबराहट हो जाती थी। पूरे वर्ष लक्ष्मी बड़ी इत्मिनान से सारी गृहगृहस्थी संभालती, लेकिन गर्मी की छट्टियों में पीहर के प्रति उसकी बचपन की यादें उमड़ पड़ती। मेरे लिए उसके बिना एक-एक पल बिताना बड़ा असह्य लगता। मैं ना नुकर करता ही रहता।
पड़ौस के किसी कस्बे में शादी समारोह था। हम वहाँ जाने की तैयारी कर रहे थे। लक्ष्मी ने वहाँ से मैके जाने के लिए अपने बच्चों के कपड़े भी बैग में पैक कर लिए थे। मैंने कहा, इतने कपड़े क्यों भर रही हो? लक्ष्मी ने कहा कि बच्चों को कपड़े भी तो बदलवाना है, शादी में क्या गंदे कपड़े पहनेंगे। मैं निरूत्तर हो गया था। शाम को हम शादी समारोह में पहुँच गए। दो दिन हमने शादी बड़ी धूमधाम से मनाई। तीसरे दिन लक्ष्मी ने सुबह से ही पीहर जाने के लिए मुझे मनाना शुरू कर दिया था। मैं हर बार ना करता रहा। अब तो हमारी वार्ता में एक-दो परिचितों ने भी लक्ष्मी की हाँ में हाँ मिलाते हुए मुझेलाह देना शुरू कर दिया। मुझे अखरने लग गया था। लक्ष्मी ने भी बात टाल दी। लेकिन वह एकान्त में मुझसे मिन्नते करने लगी। आखिर स्त्री हठ के आगे मेरी एक नहीं चली। मैंने ऊपरी तौर पर लक्ष्मी को मैके जाने की अपनी स्वीकृति दे दी। लक्ष्मी ने कहा आप ही मुझे बस में बैठा कर आओगे। यद्यपि लक्ष्मी ने कहा था, बच्चे आपके पास ही रहने दो ताकि आपका मन लग जायेगा, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को अपने पास में रखकर मैं कोई आफत मोल लेना नहीं चाहता था 
एक माँ ही तो होती है जो बच्चे की सही परवरिश कर सकती है। माँ के पास ही वह अनमोलजाना होता है, जिससे वह बच्चे का पालन-पोषण कर सकती है। बच्चा माँ के पास रहकर ही अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सकता है।

उसी दिन उसे बस में बैठाकर, मैं अपने कस्बे में गया। मेरे लिए घर अब बेगाना हो चुका था। अब मैं एकदम निठल्ला था। लक्ष्मी के रहते कभी मैंने अपने आपको अनमना महसूस नहीं किया। अब तो घर ही खाने को दौड़ता। लक्ष्मी और बच्चों की याद सताती रहती, लेकिन उसका दोषी भी मैं ही था जो उसको मैके जाने की स्वीकृति दे दी। अब मेरा काम यही था कि मैं जून माह की दुपहरी में कभी किसी रास्ते में तो कभी किसी रास्ते में चल पड़ता। मुझे समझ में नहीं रहा था, मैं कहाँ जा रहा हूँ और क्यों जा रहा हूँ। लक्ष्मी ने मेरी रातों का नाद उड़ा दी थी। पूरी-पूरी रात अनिद्रा में निकल जाती लक्ष्मी का मोह सालने लगा था, दिन-रात लक्ष्मी ख्यालों में बसी रहती पर लक्ष्मी अभी कोसों दर थी। में चाह कर भी लक्ष्मी से मिलना नहीं चाहता था मैंने सोच लिया था, लक्ष्मी स्वयं आयेगी। मैं क्यों मिलने जाऊँ? उसने मुझे जबर्दस्ती हामी भराई थी। मेरा अहंकार उसके प्रेम ओर भारी पड़ रहा
शाम को में अपने खाने में प्याज अवश्य शामिल करता, खाना भी देर रात को खाता ताकि नींद जाये। पर नींद तो बेरिन बन गई थी। ख्वाबों के पुलाव चलते रहते, आसमान में टकटकी लगाकर पड़ा रहता, उदासी के बादल गहराते जाते। मन में अंतरदव्न्द में घमासान चलता, बिजलियां कौंधती रहती। जाने बेरिन निंदिया कब जाती, अल सवेरे ही मुझे छोड़कर भाग जाती। लक्ष्मी ने मुझे मोह जल में पूरी तरह जकड लिया था।
एक दिन मैंने पिच्चर देखने का मन बनाया। शाम के बज रहे थे। रास्ते में, मैं इस प्रकार देख रहा था मानो सबको पता हो कि मैं पिच्चर देखने जा रहा हूँ। कहीं किसी ने देख लिया। तो लोग क्या सोचेंगे। आखिर पिच्चर हॉल की लाईन तक जा पहुँचा। वहाँ कोई परिचित लाईन में लगा हुआ था, एक पल तो मैं ग्लानि से भर गया पर दूसरे ही पल हिम्मत बटोरकर उससे अपनी एक टिकट बुक कराने के लिए पैसे दे दिए। पन्द्रह-बीस मिनट फिल्म के निकल चुके थे, खैर इससे मुझे कोई मतलब नहीं था। देख तो पर्दे पर रहा था, पर मेरे दिल में फिल्म लक्ष्मी की चल रही थी। जैसे-तैसे पिच्चर पूरी कर मैं घर गया। दिल में चैन नहीं था, जाये तो कहाँ जाए? लक्ष्मी के बिना शांति कोसों दूर थी।
आज तीस जून थी। शाम का समय था। मैं घर पर ही था कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। बाहर आकर देखा तो सन्न रह गया, वहाँ लक्ष्मी खड़ी थी। मैं अपना संतुलन खो बैठा। मैंने बात नहीं की, लक्ष्मी सब समझ रही थी, वह मुझसे बोलना चाह रही थी, लेकिन मेरी चुप्पी को देखकर वह सहम गई। लक्ष्मी ने अपने हाथ से भोजन बनाया, रात को जब वह भोजन लेकर मेरे पास आई तो मैंने भोजन की ओर नजर तक नहीं उठाई। उसने खूब मिन्नतें की पर मैं अड़ गया। मैंने उससे पूछा- तुम आज ही क्यों आई, पहले क्यों नहीं आई? क्या स्कूल की छुट्टियां बंद नहीं होती तो तुम नहीं आती। अब तुम्हें अपने मैके एक बार और जाना है, और जाना ही पड़ेगा। आज ही तो लक्ष्मी आई थी और आज ही वापस मैके। लक्ष्मी ने विचार किया, क्या कहेंगे लोग, वहाँ पूरा मुहल्ला क्या सोचेगा? मैंने लक्ष्मी को बहुतेरा समझाया, लक्ष्मी के सम्मान का प्रश्न था, मेरा अहंकार हिलोरे ले रहा था। आखिर अहंकार के आगे समर्पण समर्पित हो गया। उसने कहा, बच्चे यही रहेंगे, आप मुझे बस में बैठाओगे। मैंने कहा लक्ष्मी, तुम्हारी सभी शर्ते मजूर है, पर एक बार तुम्हें अपने घर की चौखट पर पाँव रखकर आना है।
एक बार मैंने लक्ष्मी को पुनः उसको उसके मैके की बस में बैठा दिया। शाम को ही लक्ष्मी वापस गई। मुहल्ले वालों को पता ही नहीं चला कि वह अपने ससुराल कल गई थी या आज जा रही है। उसके पीहर वाले मुझसे खपा अवश्य हुए पर इसकी चिन्ता मुझे नहीं थी। लक्ष्मी के बिना तो दिल में दावानल की आग लग रही थी। वह भी मेरे दिल के मर्म को जानती थी। पिछले दस दिनों में उसका भी दिल नहीं लगा था पर वह अपने दिल के दर्द को किसे बताती? पीहर में रहकर भी वह अशांत थी।
आज मैं बहुत खुश था। लक्ष्मी ने मेरी शर्त मान ली थी। अपने आंचल में समेटे लक्ष्मी मेरे एक-एक रंग के उतार-चढ़ाव को बड़े ध्यान से देख रही थी। मैं लक्ष्मी के आगोश में सिमटा था। मैंने सुबकते हुए कहा, वादा करो लक्ष्मी, जन्म-जन्मांतर मुझे अपने साथ खोगी? लक्ष्मी ने अपनी ज्योति पिण्ड में मेरे ज्योति पिण्ड को मिला दिया और हम अदृश्य हो गये।
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