प्रभात का समय था। सूर्यदेव की सुनहरी धूप घर के आंगन में पसरी हुई थी। गोपी एवं गोपाल नूतन घर की चौखट पर बैठे हुए थे। घर की चौखट पर अभी प्रवेश द्वार नहीं बना था। प्रवेश द्वार पर ही गौ माता के लिए विशेष रूप से खाली जगह रखी गई थी, पर गौमाता के बिना उस खाली जगह का क्या महत्व? गोपी और गोपाल गौमाता के अभाव में उदास से सूने-सूने बैठे हुए थे। तभी गायों का झुरमुट उधर आ निकला। गोपी की बाँछे खिल गई तथा उसकी आँखें एक गौमाता पर टिक गई। वह गाय उन गायों के आगे-आगे हमेशा रहती तथा घर से रोटी खाये बिना नहीं टलती। अबकी बार गोपी ने उसके थनों में हाथ डालकर यह भी परख कर ली थी कि ये गौमाता सयानी है। गोपी ने अपने स्तर पर ही जल्द से जल्द उसके मालिक की भी जानकारी कर ली थी। अब गोपी ने गोपाल से उस गाय को खरीदने की जिद ठान ली।
सायंकाल गोपाल जब रोठी खाने बैठा तो गोपी बड़े इत्मिनान से उसके पास बैठ गई। गोपाल को कुछ-कुछ आभास हो गया था कि आज जरूर कुछ बात है, अन्यथा अन्य दिन गोपी खाना परौंसकर घर के अंदर चली जाती थी। गोपी ने गौमाता की चर्चा चलाई तथा उस गौमाता के बारे में बताया कि वह गौमाता बड़ी सयानी है, रंग-रूप में सफेद एवं आकार में भी ज्यादा बड़ी नहीं है। यह गाय हमेशा अपने घर पर ही रहनी चाहिए। गोपाल की मन:स्थिति भी गौ माता के बिना अधूरी सी थी, सवेरे और शाम गौमाता के बिना उसका मन बड़ा बेचैन रहता। उसने बड़ी सहजता से उस गाय को खरीदने की हामी भर दी। अब क्या था, गोपी के मन की मुराद पूरी हो गई, वह बड़ी हर्षित होती हुई उस गौमाता के मालिक के पास गई। उसके मालिक ने भैंस खरीद ली थी, अतः वह उस गाय को बेचना चाहता था, इसलिए गाय को खरीदने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई।
दूसरे दिन प्रात:काल गौमाता को घर पर लाया गया, रोली-कुंकुम लगाकर पूजा-अर्चना की गई। गौमाता के लिए यह घर नया नहीं था, फिर भी दो-तीन दिन वह असहज रही। गौमाता का नामकरण संस्कार 'गोमती' के नाम से किया गया। कुछ ही दिनों में वह अपने नाम से पहचाने जाने लगी।
गोमती घर में बड़ी सयानी थी। बच्चे-बच्ची उसके नीचे से निकल जाते, उसके थनों में हाथ डाल देते, पर गोमती कभी नहीं झल्लाती, बल्कि अपनी गर्दन पसारकर अपना स्नेह प्रदर्शन करती। गोमाता इसी मुहल्ले की थी, अत: उसकी सहेलियां पूर्ववत उससे मिलने अक्सर उसके पास तक आती। गोमती सवेरे का चारा-दाना खाकर मुहल्ले के पेड़ की छांह तले दिन भर जुगाली करती रहती। सायंकाल अपनी सखी-सहेलियों को साथ ले जाकर हरे-भरे खेतों में जा धमकती, रात भर खेतों में अपना पेट भर कर सवेरे-सवेरे अपने घर आजाती। यह उसका नित्यक्रम हो गया था। कोई अन्य गाय उसकी अवेहलना नहीं करती, वह कद में छोटी होते हुए भी लड़ने में इतनी तेज थी कि बड़ी से बड़ी डीलडोल वाली भी उसके सामने नतमस्तक दिखाई देती।
एक दिन गोमती एवं उसके सहेलियों की चोरी पकड़ी गई। खेत के मालिक सावचेत हो गये थे। अकेली एक गाय होती तो उसको रस्सी से बांध दिया जाता, पर वह तो दस-बीस गायों का एक छोटा मोटा रेवड़ था, जो स्वयं स्वचालित था। एक दिन एक-दो खेत मालिकों ने उनको घेर लिया, पर एक भी गाय उनके हाथ नहीं लगी। गायें अपनी-अपनी राह पर चल निकली। खेत मालिक भी कंधे पर लट्ठ लिए इनके मालिकों से लड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे हो लिए, मुहल्ले में आकर इन गायों ने भी उनको ऐसा गच्चा दिया कि सब तितर-बितर हो गई। एक भी गाय अपने घर में नहीं घुसी। गोपी ने उन्हें दूर से ही देख लिया था, उन्होंने सोच लिया था कि आज तो शामत आ गई, पर गायों के तितर-बितर होते ही उनकी साँस में सांस आई।
दूसरे दिन से गोपी ने गोमती के पैरों में बेड़ियां बांध दी, अब वह दिन भर खूटे के बंधी रहती। अब उसके खूटे दिन में कई कई बार । गोमती को इस घर में आये तीन-चार माह हो चुके थे। नवजात बछड़ी को जन्म दिया था। यह एक संयोग ही था कि घर में कन्या के रूप में एक बछिया का जन्म हुआ था। अब तक उसके घर में न किसी बहिन ने जन्म लिया था और न ही किसी पुत्री ने, इसलिए गोपाल बड़ा प्रसन्न हुआ था।
गोमती प्रवेश द्वार पर ही बंधी रहती, प्रवेश द्वार पर कोई फाटक दरवाजा तो था नहीं, इसलिए एक कुत्तियां अक्सर वहां आकर बैठा करती। जब गोमती दुहाई से निवृत्त हो जाती तो वह नववत्सा उसका दुग्धपान करती। जब फिर नववत्सा दुग्धपान से निवृत्त होकर अठखेलियां करने लगती तो उसके मुँह में लगे दुग्धफेन को वहां बैठी कुत्तिया अपनी जीभ से चाटा करती। जब गोपी और गोपाल का ध्यान होता तो वह दुत्कार देते, लेकिन वह कुत्तिया आंख बचाकर भी उस नववत्सा के मुँह पर लगे झाग को चाटने की कोशिश करती। निरंतर इस प्रक्रिया से वह नववत्सा रेबिज की शिकार हो गई।
अब उस एक-डेढ़ माह की बछिया ने माँ का दूध छोड दिया। अब उसके मुँह में से झाग आने शुरू हो गये, अक्सर वह दीवार के सहारे सिर टिकाकर एकान्त में खड़ी रहती। अब तक उसने हरा-हरा चारा खाना भी छोड़ दिया था अब वह उसकी तरफ देखती तक नहीं। गोपी और गोपाल से उसकी दशा देखी तक नहीं जा रही थी। आज गोपाल अपने गाँव गया हआ था। गोपी उस नववत्सा को किसी ठेले वाले के साथ पशु चिकित्सालय लेकर गई। डॉक्टर ने उस बछिया को देखकर भांप लिया कि यह पागलपन की शिकार हो गई है। उसने गोपी को चेताया कि इस बछिया का बचना ना मुमकिन है, साथ ही डॉक्टर ने निर्देश दिया कि जिस-जिस व्यक्ति के इस बछिया के झाग से स्पृश हुआ है, सावधानी के तौर पर रेबीज का एक-एक टीका लगवा लेना चाहिए तथा गौमाता के भी टीका लगाया जाना चाहिए।
दूसरे दिन से गोपी ने गोमती के पैरों में बेड़ियां बांध दी, अब वह दिन भर खूटे के बंधी रहती। अब उसके खूटे दिन में कई कई बार । गोमती को इस घर में आये तीन-चार माह हो चुके थे। नवजात बछड़ी को जन्म दिया था। यह एक संयोग ही था कि घर में कन्या के रूप में एक बछिया का जन्म हुआ था। अब तक उसके घर में न किसी बहिन ने जन्म लिया था और न ही किसी पुत्री ने, इसलिए गोपाल बड़ा प्रसन्न हुआ था।
गोमती प्रवेश द्वार पर ही बंधी रहती, प्रवेश द्वार पर कोई फाटक दरवाजा तो था नहीं, इसलिए एक कुत्तियां अक्सर वहां आकर बैठा करती। जब गोमती दुहाई से निवृत्त हो जाती तो वह नववत्सा उसका दुग्धपान करती। जब फिर नववत्सा दुग्धपान से निवृत्त होकर अठखेलियां करने लगती तो उसके मुँह में लगे दुग्धफेन को वहां बैठी कुत्तिया अपनी जीभ से चाटा करती। जब गोपी और गोपाल का ध्यान होता तो वह दुत्कार देते, लेकिन वह कुत्तिया आंख बचाकर भी उस नववत्सा के मुँह पर लगे झाग को चाटने की कोशिश करती। निरंतर इस प्रक्रिया से वह नववत्सा रेबिज की शिकार हो गई।
अब उस एक-डेढ़ माह की बछिया ने माँ का दूध छोड दिया। अब उसके मुँह में से झाग आने शुरू हो गये, अक्सर वह दीवार के सहारे सिर टिकाकर एकान्त में खड़ी रहती। अब तक उसने हरा-हरा चारा खाना भी छोड़ दिया था अब वह उसकी तरफ देखती तक नहीं। गोपी और गोपाल से उसकी दशा देखी तक नहीं जा रही थी। आज गोपाल अपने गाँव गया हआ था। गोपी उस नववत्सा को किसी ठेले वाले के साथ पशु चिकित्सालय लेकर गई। डॉक्टर ने उस बछिया को देखकर भांप लिया कि यह पागलपन की शिकार हो गई है। उसने गोपी को चेताया कि इस बछिया का बचना ना मुमकिन है, साथ ही डॉक्टर ने निर्देश दिया कि जिस-जिस व्यक्ति के इस बछिया के झाग से स्पृश हुआ है, सावधानी के तौर पर रेबीज का एक-एक टीका लगवा लेना चाहिए तथा गौमाता के भी टीका लगाया जाना चाहिए।
गोपी ठेले वाले के संग उस बछिया को साथ लेकर घर पहुँच ही रही थी कि ठेले पर ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। सायंकाल गोमती ने देखा कि बछिया नहीं है तो वह सब समझ गई। वह उस मृत बछिया को देखना चाह रही थी पर उसके दर्शन कहाँ? अतः पूरे मुहल्ले में उसकी बां-बां की तुमुल ध्वनि से सन्नाटा कैंची की कतरन सा चीर-चीर हो गया।
होनी को कौन टाल सकता है? बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी, जपी-तपस्वी भी होनी-अनहोनी से नहीं बच सके हैं तो गोमती तो एक जानवर की बिसात । थक हार कर बेचारी के कंठ अवरुद्ध हो गये। पुनः जीवन रोजमर्रा के ढर्रे पर चल पड़ा। आठ-दस माह बाद गोमती ने फिर नववत्सा को जन्म दिया। इन्हीं दिनों गोपाल के पिता का स्वर्गवास हो गया। गोपाल की माँ ने सुझाया कि मृतात्मा को दुधारी गौमाता के दान करने से बहुत बड़ा धर्मं होता है, अतः गोपी और गोपाल ने संकल्प लेकर मुहल्ले में ही किसी ब्राह्मण परिवार को दुधारू गोमती को दान कर दिया।
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