नगरों-महानगरों में आपाधापी मची है। परिवार का हर सदस्य पैसे के पीछे पड़ा है-क्या पुरुष-क्या महिला, क्या लड़का-क्या लड़की। परिवार में किसी को किसी को किसी से बात करने तक की फुर्सत नहीं। मनुष्य मशीनवत हो गया है। सारी संवेदना मर सी गई है। अव्वल तो परिवार के बुजुर्ग उनके पास रहते ही नहीं है और यदि कहीं रहते है तो उनका जीवन अकेलेपन के कारण जीते जी नरकमय बन गया है। बड़े-बड़े संभ्रांत घरों के माता-पिता, जिनके बेटे-बहू दोनों सर्विस में हैं, वृद्धाश्रम में कैद है, उनको भी बच्चे-बच्चियों की किलकारी सुनने की चाहत है, लेकिन लगता है माता-पिता ने पढ़ाकर ही गलती की हो। किसी के बेटे-बहू डाक्टर है, किसी के इंजीनियर, किसी के प्रोफेसर, किसी के उच्च पदाधिकारी, पर वृद्धाश्रम में कोई यह नहीं कहता कि मेरे बेटे-बहू गरीब मजदूर किसान हैं, क्योंकि उनके माता-पिता वद्धाश्रम में जाते ही नहीं है। ऐसे कामकाजी गृहणियों के घरों में ताले लटके होने के कारण अतिथि को भी तिथि पूछ कर आना पडता है। सबकी दिशाएँ अलग-अलग हैं। पैसा साधन है, साध्य नहीं है। एक व्यक्ति अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पाँच हजार रुपये के लिए भी छटपटा रहा है, वहीं दूसरी ओर एक ही परिवार में महिला एवं पुरुष दोनों मिलकर लाख-लाख कमा रहे हैं, सोचो क्या यह इंसाफ है. क्या हम समाज के चोर नहीं है?
घरों में लडके-लडकी जवान हो चुके हैं। माता-पिता की आँखें फूटी हुई है। वे अपना कैसा जीवन जी रहे हैं, उनको कोई भान तक नहीं। जब कोई अनहोनी गुजर जाती है, तब कहीं उनकी आँखें खुलती हैं। लड़कों के माता-पिता लाचार हैं , वे चाहते हैं, हमारे जीते जी उनका विवाह हो जाये तो हम गंगा नहाये। लेकिन ऐसा होता नहीं है । जहाँ भी बातचीत करते हैं, लडकियाँ वाले अपने दूसरे लड़कों के लिए लडकी की डिमांड कर बैठते हैं, मानो कोई सौदा कर रहे हो। माता-पिता के फूंके हुए मंत्रों के कारण लडकियाँ सैद्धांतिक नाकाबिल पढाई करती हुई स्नातक-अधिस्नातक होकर उम्र के दूसरे पड़ाव तक पहुँच जाती है। तब भी माँ-बाप की आँखें नहीं खुल पाती हैं, जबकि इस पढ़ाई से उनके प्रक्टिकल जीवन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं।
कभी-कभी लडकियाँ विद्रोह कर बैठती है। उनको इस सैद्धांतिक पढ़ाई का न आदि दिखता है न अंत। माता-पिता उन पर अपेक्षाओं का पिटारा लाद देते हैं, जिसका खामियाजा उनको अपनी इहलीला समाप्त कर चुकाना पड़ता है। पिछले समय कोटा में गाजियाबाद की लड़की का छत पर से कूद कर आत्महत्या करना ऐसा ही वाकया था।
माता-पिता अपना दायित्व भूल चुके हैं। उनको पैसे के आगे कुछ दिखाई नहीं देता है। वे सोचते हैं, मेरी बिटिया स्वयं पैसा कमायेगी, तब ही सुखी रह पायेगी, वह किसी पर आश्रित नहीं रहेगी। उसकी यह निराश्रितता ही उसको एकाकीपन के कुएँ में धकेल देती है। यदि पैसे में ही सुख होता तो अनैतिक रूप से चोर, डाकू, वैश्यायें कितना पैसा अर्जित करते हैं, सभ्य व्यक्ति तो उनकी गली-कुँचों में जाने तक से कतराते हैं। ऐसी मान्यता बन गई है कि पैसे से बड़ी आदमी की इज्जत होती है। महानगरों में शायद पैसे को ही इज्जत का प्रतिरूप मान लिया गया है। उनका जीवन कोरा कागज ही रह गया है।
आज बड़े-बूढों की कोई बात नहीं मानता। समाज का संगठन चरमरा गया है। कोर्ट-कचहरियाँ समाज को मान्यता ही नहीं देती। उनको लगता है कि समाज संगठनों के समानान्तर कानून से हमारा वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। यद्यपि उनके पदाधिकारी भी समाज से ही निकल कर आये हैं। जब ये संस्थायें किसी का विवाह नहीं करवा सकती तो उनको समाज के अन्दरुनी विषयों पर बोलने का क्या जरूरत है? वे तो आगे होकर ऐसे घरेलू सामाजिक केसों को आमंत्रित करते दिखाई देते हैं, जबकि उनके पास केसों का अम्बार लगा हुआ है। सरकारें एक तरफ तो जातिगत समीकरणों के आधार पर अपनी जीत का दावा करती है, वहीं दसरी ओर अन्तर्जातीय संबंध बनाने पर खुले आम पाँच-पाँच रुपये देने की घोषणा करती है। जबकि स्थिति यह है कि सरकारी कोई सा भी महकमा हो, बिना जाति प्रमाण के कोई नौकरी नहीं मिल पाती, योग्यता केवल दिखावे की है। यदि योग्यता ही वास्तविक मापदण्ड होता तो जातिगत आरक्षण कभी का समाप्त हो गया होता।
मीडिया भी बड़ा बेशर्म हो गया है। उसकी तीसरी आँख नहीं खुलती। उसकी आँखों पर विज्ञापनों की पट्टी बँधी हुई है। उसे तो सस्ता श्रम करने वाली लड़कियाँ चाहिए। कंपनियाँ लडकियों के माध्यम से अपना सौदा पटाती है। जवानी में विपरीत लिंगों के स्वाभाविक आकर्षण के कारण वे सौदा पटाती-पटाती खुद पट जाती है। आखिर चरित्रहीनता का दोष भी उसके ही मत्थे मण्डता है। कई बार वे आत्महत्या तक कर लेती है, जिनका दोष लड़कों पर लगता है। उनके परिजनों से पूछा जाये कि क्या जरूरत है जवान लड़कियों को घर से बाहर निकालने की? तो एक उत्तर सुनने में आता है-महंगाई।
दाल रोटी सबको मिलती है। पाँच हजार रुपये कमाने वाले को भी दाल रोटी मिलती है, पचास हजार रुपये कमाने वाला भी दाल रोटी ही खाता है। फिर क्या जरूरत है, सरकारें अपने कारिन्दे (मंत्रियों का) वेतन लाख-दो लाख क्यों बढ़ाती है? स्वार्थ-साधना के आगे त्याग-सेवा भावना लुप्त हो गई है समाजक सरोकारों से उनका कोई मतलब नहीं हैं।
आज महिलागत आरक्षण के कारण हर महकमे में महिलाओं की बाढ़-सी आ गयी है। यहाँ तक कि परिवहन, पुलिस, फौज जैसे महकमें भी अछूते नहीं रहे हैं। सरकारें तो तलाकशुदा महिलाओं के नाम पर बनी बनाई गृहस्थी तोड़ने की हिमाकत कर रही है। माता-पिता भी इस त्याज्य अग्रि में घी होम रहे हैं।
होना तो यह चाहिए कि लड़कियों के लिए सरकारी नौकरी प्राप्त करने से पहले शादी अनिवार्य कर दे, फिर हर परिवार में से एक व्यक्ति को उनकी योग्यतानुसार रोजगार मिलने का विकल्प दे दे। जिससे वे अपनी गृहस्थी का दायित्व निभा सकें। यदि फिर कोई युगल तलाक लेता है तो उसकी सरकारी नौकरी भी छिनी जा सकती है, ऐसा कानून पारित हो जाये तो कोई कारण नहीं रह जाता कि कोई युगल तलाक लेने की हिमाकत कर सकें। आश्चर्य है कि सरकार शादी की प्रारंभिक सीमा के लिए तो कानून तय करती है, पर उसकी अंतिम सीमा के लिए कोई ओर छोर नहीं है।
तलाक समाज में अभिशाप है। सरकारें तो तलाकशुदा लड़कियो को रेवड़ियों की भांति सरकारी नौकरियाँ बाँट रही है, फिर तलाकशुदा लडकों को क्यों नहीं? आज सरकार में हर बडा पद तलाक कोटे से भरा जा रहा है।
यद्यपि चुनाव में आरक्षण के कारण महिलाएं सरपंच बन जाती है, लेकिन बाहर का अधिकाँश कार्य उनके सरपंच पति ही करते दिखाई देते हैं। जिन नवयुवकों को रोजगार मिलना चाहिए, वे आज बेरोजगार बैठे हुए हैं। फिर क्या जरूरत है महिलाओं को रेवडियाँ बाटंने की? किसी भी चुने हुए प्रतिनिधि को उन पर तरस नहीं आता है, वे भी विधान सभा/संसद में जाकर मूक बन जाते हैं।
सरकारी नौकरियाँ करती हुई युवतियाँ भी बेबस है। उनको दो पाटों के बीच फँसना पडता है। यदि वह शादीशुदा है तो समयाभाव के कारण उनका घर-परिवार पर नियंत्रण नहीं रहने से गृहस्थी उजड़ जाती है। बच्चे अनियंत्रित हो जाते हैं, पति दिशाहीन हो जाता है और यदि वह कुँवारी है तो उसको महिलागत आरक्षण के कारण योग्य लडकें नहीं मिल पाते हैं, मातृत्व का एक पड़ाव शुष्क रह जाता है।
हे देवियों! आप स्वयं माँ का प्रतिरूप है। त्याग, ममता, वात्सल्य सब आप ही से उत्पन्न है, आप ही सृष्टि के चक्र को संधारित करती है। आप तो स्वयं माया है, फिर आपको कौनसी माया लुभा सकती है? आप स्वयं अपनी अस्मिता को पहचानो। आप है तो संसार है, अन्यथा यह संसार राख की ढेरी है।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा। विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।।
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः॥
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