बुधवार, 6 मई 2020

शाबास कोरोना शाबास!



कोरोना अर्थात् कोई रोना नहीं। समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। परिवर्तन ही संसार का नियम है। फिर रोना-धोना क्यों? जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा पूर्व में नोटबंदी की घोषणा हुई थी तो एक बार तो जनता सन्न रह गई थी। बड़े-बड़े सेठों की तिजोरियाँ बाहर आ गई। कईयों ने अपने पैसे नदियों में डुबो दिये। नकली नोटों पर एकदम ब्रेक लग गया। लोगों को लगा कि अब क्या होगा? अपना पैसा ही अपना नहीं। तब मोदी जी ने लोगों को  50 दिनों के लिए धैर्य रखने को कहा, उनकी बातें जनता के दिलो दिमाग में उतर गई। सबने बड़ी धैर्यता से उनका साथ दिया। परिणाम क्या हुआ, कैसलेस पेमेन्ट के द्वारा आज किसी को व्यक्ति को बैंकों में चक्कर काटने की जरूरत नहीं है। सब घर बैठे मनी ट्रांसफर करने में माहिर हो गये। फोन पे, पेटीएम, गुगल पे आदि कई एप्लीकेशन द्वारा घर बैठे, कभी भी, कहीं भी जितना चाहे उतनी राशि एक पल में किसी भी खाते में ट्रांसफर किये जा सकते हैं। चोर, लुटेरों तक का डर नहीं, हाँ कुछ सावधानियाँ अवश्य बरतनी पड़ती है। मनुष्य धीरे-धीरे इसका अभ्यस्त हो गया।
उसी प्रकार जब संपूर्ण दुनियाँ में कोरोना का कहर बरपा तो हमारे प्रधानमंत्री जी ने समय से पूर्व ही मीडिया के सम्मुख जनता जनार्दन को सावचेत कर दिया कि हमें कुछ दिन सामाजिक दूरी बनाये रखनी है, ताकि कोरोना जैसी महामारी हमारे देश में पैर नहीं पसारे, जिसका प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि आज अन्य देशों के मुकाबले हमारे यहाँ कारोना का संक्रमण बहुत कम है। यही नहीं अधिकाँश जनता ने यह जंग जीत ली है। और अब कोरोना भी ढीला पड़ता जा रहा है। सबसे बड़ा अजूबा यह हुआ कि उद्योग-धंधों के बंद हो जाने से महानगरों में गाँव से पलायन हुए मजदूरों का भीड़ तंत्र पुन: अपने गाँव लौटने के लिए उतावला हो गया। उन्होंने सोच लिया कि अब मरना ही है तो गाँव ही मरेंगे। वैसे भी गाँवों के द्वारा ही महानगरों का पालन हो रहा है। सारा कच्चा माल सस्ती दरों में उद्योग धंधों में जाकर तैयार निर्मित माल मंहगे दामों में पुन: गाँवों में पहुँचता है।      
इस कोरोना काल में निम्र परिवर्तन देखे गये-


    संयुक्त परिवारों में छायी खुशी की लहर-एक बार पुन: परिवारों में खुशी की लहर दौड़ गई। किसी को बेटा मिला तो किसी को अपनी प्यार बहू। दादा-दादी को खिलौने के रूप में पोते-पोती मिल गये। बच्चे-बच्ची भी बड़े प्रसन्न मुख हो गये। अब उनको कोई कहानी सुना रहा है तो कोई भजन। हर रोज नये पकवान मिल रहे हैं। गाँवों में भूखमरी नहीं है। यदि किसी के पास खेत भी नहीं है तो भी किसी भी फसल कटे हुए खेत में जाकर अनाज बीनकर भी अपने खाने लायक गुजारा आराम से कर सकता है। और यदि मात्र जिनके पास मात्र एक बीघा भी खेत है, वह तो सब्जी, फल, फूल आदि अपनी मेहनत के बल पर प्राप्त कर सकता है। देखा जाये तो सरकारें ही भूखी है, आये दिन उन गरीबों की आड़ में अपनी गोटियाँ सेंकती है। गाँवों में व्यक्ति गरीब ही नहीं, दिल से अमीर होता है। अब भी गाँवों में जिनके पास मवेशी है, वे बड़े आराम से दूध, दही, छाछ, घी से कुल्ले करते मिल जायेंगे। पर महानगरों में तो कोई पूछने वाला ही नहीं है। हाँ गाँव का जीवन सादा अवश्य है, पर दिखावे का स्थान बहुत कम है।
मृत्यु दर एवं बीमारियों में आई कमी-जब महानगरों में भीड़ तंत्र था, तो मरने वालों की तादाद इस कोरोना संक्रमण से भी कहीं अधिक थी। रोज रोड़ एक्सीडेन्ट से ही हजारों आदमी काल के ग्रास में समा रहे थे। केवल 100 किमी की दूरी पर ही 4-5 एक्सीडेन्ट की घटनाएँ समाचार पत्रों में मुद्रित होना आम बात थी। यही नहीं इस कोराना काल में बीमारियों ने भी अपना पिण्ड छोड़ दिया है। 
डाक्टरों की बढ़ी जिम्मेदारियाँ-अधिकाँशत: ये डाक्टर ही अपने लालच में छोटी सी व्याधि को बड़ी करके मनमाना पैसा ऐंठते थे। अधिकाँशत: ये महानगरों में ही जमे रहते थे। मेडीकल की दुकानों पर भी इनकी कमीशन के रूप में साँठगाँठ देखी गई है। परंतु इस कोरोना काल में इनकी जिम्मेदारी गांवों-गाँवों में दिन-रात मुश्तेदी से देखी गई है। हमें इस कोरोना काल में आयुर्वेद एवं प्राकृतिक पद्धति एवं विभिन्न व्यायामों द्वारा भी चिकित्सा को अपनाया जा सकता है।     
व्यधियों की मुख्य जड़ यदि शराब जैसे घिनौने व्यवसाय से ही सरकारें अपना पेट पाल रही है तो क्यों नहीं किसी का मर्डर करवाकर भी पैसा कमा सकती है। महानगरों में ही नहीं, गाँवों की हर गली के मोड़ पर बीड़ी-सिगरेट, जरदा, तंबाकू एवं शराब जैसे व्यसनों के कारण बीमारियाँ घर कर गई थी। सरकारों की शह पर शराब ने तो परिवारों का जीना हराम कर दिया था। वाह रे शाबास कोराना! तेरे कारण इन पर कुछ समय के लिए तो अंकुश लग ही गया। वैसे भी इस शराब से परिवार के परिवार नष्ट हो रहे हैं और ये जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही इस शराब जैसे व्यसनों की माँग कर रहे हैं, हो सकता है, ये स्वयं भी इसके आदी हो, ऐसे प्रतिनिधियों से जनता क्या अपेक्षा कर सकती है?
  अपराधों में भारी गिरावट-कोरोना से पूर्व चोरी-डकेती, लूटपाट, हत्यायें, बलात्कार आम हो गये थे। लेकिन पुलिस की मुस्तेदी एवं वाहनों की आवाजाही में कमी से अकाल मौतों का सिलसिला थम सा गया। आवारा लोगों का अनर्गल घूमना एवं अपराधों के लिए दिन में रैकी करने जैसे कार्यों को अंजाम देने के लिए सौ बार सोचने पर विवश हो गये। 
पुलिस विभाग का नया चेहरा-हमें अच्छा लगा कि पुलिस विभाग का एक नया चेहरा उभर कर आया है। अब तक किसी रिक्शे के टायर से हवा निकालते हुए, किसी चाट-पकौड़ी की दुकान पर फ्री में कचौरियाँ खाते हुए, किसी फरियादी से बदत्तमीजी से दुत्कारते हुए ही सुना था। पर आज लगा कि उनके घट में भी दया है। वे भी दिन-रात गश्त करते हुए भी किसी भूखे को भोजन या किसी अपाहिज को मेडीकल मुहैया कराते हुए पत्र-पत्रिकाओं में देखा व सुना है। रिश्वत का जाल भी टूटा है, इसमें भी उनसे अधिक सरकारों का ही दोष अधिक है। जो आये दिन उनसे पैसे की माँग पर माँग करती रहती है। यही कारण है कि इस कोरोना काल में अपराध नगण्य हो गये हैं।
     प्रशासन आपके द्वार-कोरोना काल में सामाजिक दूरी बनाये रखने के कारण पंचायतों द्वारा घर बैठे राशन, पोस्ट आफिस द्वारा पेंशन, कई जगह चिकित्सा सेवाआ की भी सुलभता देखी गई है। घर बैठे दूध, सब्जी एवं किराणा का सामान भी सुलभ हुआ है। प्रशासन के सक्रिय होने के कारण रिश्वत रूपी भ्रष्टाचार की जड़े भी खोखली हो गई है।  
प्रदूषण से मिली मुक्ति-बड़े-बड़े महानगरों में कल कारखानों के धुओं से लोगों का जीना दूभर हो गया था। प्राणवायु जहरीली गैसों में तब्दील हो गई थी। चारों ओर फैक्टरियों एवं मोटर वाहनों के शोर शराबों से मनुष्य की शांति छिन सी गई थी। नदियों के अमृत जल में कल कारखानों का रासायनिक जहर सभी जीव-जंतुओं के लिए एक नासूर बन गया था। सरकारें इन नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए करोड़ों रुपयें बहा रही थी, पर वाह रे कारोना तूने तो सब पर ही ब्रेक लगा दिया।     
बड़े उद्योगों से हुई बेरोजगारी-हमें यह नहीं समझ में आता कि कारखानों मेें रोजगार अधिक मिलता है, बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि कारखानों से रोजगार घटता है, जैसे उदाहरण के लिए 2000 दोना पत्तल बनाने में 5 व्यक्तियों को 4 दिन लगता है, वहीं यदि मशीन उतनी ही संख्या में दोना-पत्तल बनाई जाये तो एक ही व्यक्ति एक ही दिन में बना सकता है। ऐसी स्थिति में चार व्यक्ति चार दिनों के लिए बेरोजगार हो गये। अर्थात् एक दिन के लिए सोलह व्यक्ति बेरोजगार हो गये। यद्यपि समय बच गया, परंतु मानव एवं पशु संसाधन का निरर्थक हो गये और व्यक्ति मशीनों के आगे लाचार हो गये। इसमें भी सरकारें उस इंडस्ट्री से कई प्रकार के टैक्स लगाकर अपना उल्लू सीधा करती है।
समय की माँग-यही वह समय है जब हम अपने मानव संसाधन एवं अपने पशु धन को गाँव-गाँव में कुटिर उद्योगों के माध्यम से खपा सकते हैं। कृषि, पशुपालन एवं बागवानी जैसे क्षैत्र में हम एक नई लहर लहरा सकते हैं। हमारी दिनचर्या में घूमना, व्यायाम, मानव एवं जीव सेवा जैसे कर्म सम्मिलित कर हमारी आत्मा को शांति एवं मुक्ति दिला सकते हैं। हमें तरस आता है, इन सरकारों पर जो रोज पैसा-पैसा की मांग कर हमें अपंग बनाने पर तुली हुई है।  
यदि देना ही है तो उन माताओं को न्यूनतम 500 रु . मासिक ही दे, जिनके परिवार में गोपालन हो रहा है। उन किसानों को न्यूनतम 1000 रु. मासिक ही दे, जो अपने बैलों से कृषि कर रहे हैं, कम से कम हमारी मृदा उपजाऊ तो बनेगी, हम कोरोना एवं कैंसर  जैसी घातक व्यधियों की चपेट में तो नहीं आयेंगे। 
एक बार मोदी जी को धन्यवाद जिन्होंने अपनी राजनीतिक लाईन से ऊपर उठकर देश की समस्त ग्राम पंचायतों को आत्म निर्भर बनाने की बात कही है। वैसे भी अब तक कई ऐसे चुनौतीपूर्ण कार्य किये हैं, जैसे-सर्जिकल स्ट्राईक, नोटबंदी, कश्मीर में धारा 370 को निष्प्रभावी करना, राम मंदिर का निर्माण आदि, जिसे कोई पाटी आज तक अंजाम नहीं दे पाई। अब भी हर दंपत्ति में एक व्यक्ति को न्यूनतम मानक दरों पर रोजगार देना भी आवश्यक है, जिससे जातिगत आरक्षण का भूत भी इस कोरोना काल में दफन हो जाये।
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1 टिप्पणी:

  1. इस कोरॉना महामारी ने भारतीय मूल्यों को पुनर्जीवित किया है, जिसमें अपनी गांव में रहने को उत्सुक परिजन कोसों दूर से यात्रा कर घर पहुंचते देखे गए, ताकि वे अपनी जिंदगी को अपनो के साथ ,कमी में भी सकूं से गुजर सकें, हमने ही अपने लालच में अपनी जन्म भूमि को छोड़ कर भीड़ भारी शहरी संस्कृति के अपनाने लगें। अभी भी हम अपनी जन्मभूमि पर रहकर भी भारतीय परिवेश में सदा जीवन बीता सकते है, ग्रामीण कुटीर उद्योगों को पुनः प्रारंभ कर सकते हैं, सरकार पर नोकरी की निर्भरता को कम कर सकते हैं। 2.निश्चित ही यह समय बीमारी से अनिश्चितता का है , लेकिन इस बीमारी का भारत में विश्व के संपन्न देशों से कम प्रभाव देखा जा रहा है क्योंकि ग्रामीण भारतीय का स्वस्थ वातावरण, बीमारी से लडने को क्षमता अधिक है। 3. हमें आत्म मंथन का समय मिला है कि हम पैसे की लालच को छोड़कर अपने गांवों के कृषि प्रधान कामों को फिर से करना होंगी, सरकार को कुछ स्थानीय रोजगार को बढ़ाने के लिए सहयोग देना चाहिए। आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की धुरी कृषि ही है,इसे पुनः जीवित करने की आवश्यकता है जो सभी दुष्परिणामों से हमें बचा सकती है। निवेदक सामाजिक चिंतक देवेन्द्र त्रिपाठी अजमेर

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