शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

आत्मनिर्भर भारत

 

बचपन में जब हम छोटे थे, सुना करते थे कि जिस दिन बैलों की गर्दन से जुड़ा(पट्टा) हट जायेगा, तभी से कलयुग का प्रारंभ हो जायेगा। उस समय यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि बैलों के बिना भी कृषि संभव हो सकेगी। उस समय गौमाता से भी अधिक बैलों की कद्र थी। तीज त्यौंहारों पर गौमाता के साथ बैलों के भी हरमच से छापे लगाते थे, उनके सींग रंगते थे। दीपावली पर उनकी विधिवत पूजा होती थी, गाँव-गाँव में घासभैरू की सवारी में बैलों की प्रतिस्पर्धा में उनकी गुणवत्ता परखी जाती थी। उस समय किसान पूर्ण ऋणमुक्त थे। कृषि का सारा कार्य चाहे हकाई-जुताई हो या पानी की पिलाई, खेत-खलिहानों में अनाज निकालना हो या माल की लदाई सारा कार्य उनके बैलों से हो जाया करता था, और तो और शादी समारोहों में बारात भी बैलों से ही जाया करती थी। बैलों के गले में घुघंरू की रूनझुन सबका मन मोहित कर देती थी। बड़े-बड़े साहूकार एवं ठाकुर महाराजों के सगड़(पालकीनुमा) में घर की स्त्रियाँ प पुरुष भी बैलगाडिय़ों से ही यात्रा करते थे। गंतव्य स्थान तक जाने के बाद, वापस लौटने पर बैलगाड़ी में आप सोते हुए भी आ सकते थे, क्योंकि सारा रास्ता एक बार देख लेने पर बैल उनको कभी नहीं भूलते थे।   

आज बैलों की दारुण गाथा किसी से छिपी नहीं है। बैल सरे आम सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं। कसासइयों की नजरें उन पर गड़ी हुई है। किसान यंत्रीकरण का गुलाम हो गया है। ये सारे करतूतें सरकारों की है। सब जानते हैं, लेकिन केवल पैसों के लालच ने उन्हें अंधा बना दिया है। आज बैल भी दु:खी और किसान भी दु:खी। ऐसा भी नहीं है कि टे्रक्टर वाले सुखी हो, उनका 50 प्रतिशत पैसा डीजल में, 25 प्रतिशत गाड़ी की किश्त चुकाने में, मात्र 25 प्रतिशत पैसा ही बचता है, जिसमें भी कई प्रकार के टेक्स एवं परिवार खर्च शामिल है। जिन गरीब किसानों के पास किसी प्रकार का कोई साधन नहीं है, उनकी स्थिति और भी दयनीय है। वे तो पूर्ण रूप से  उन संसाधन मालिकों पर अधीन है, वे चाहे जो ऊँची दर लगाये। 

मैं पूछता हूँ, इस यंत्रीकरण से किस को फायदा है? हमारे जननायक या तो ऐसी सोच रखते नहीं या कभी फील्ड में घूमते नहीं। कई स्वयं किसान होते हुए भी अपनी आवाज उठाते नहीं। या उनकी आवाज सुनी नहीं जाती। सोचो, यदि ट्रेक्टर खेत में काम करेगा तो धुँआ ही धुंआ उड़ायेगा, चाहे कार्बनऑक्साइड हो या पैसा का धुँआ, जबकि वहीं खेती बैलों के द्वारा की जाये तो खेत में उनके मल-मूत्र से जमीन उर्वरक होगी। बैलों का दोहन होगा। कोई बैल कत्लखानें के भेट नहीं चढ़ेगा।

भला हो उ. प्र. के मुख्यमंत्री श्री योगी जी का, जिन्होंने हर गोपालक परिवार को 900 रु. देने का ऐलान किया है। अन्य राज्य सरकारें पीछे क्यों है? क्या उन्हें किसानों की दशा पर दया नहीं आती? केवल ऋण ही ऋण देने से उनका भला नहीं होगा, बल्कि उनकी रही सही कमर भी टूट जायेगी। यदि भारत को वास्तविक रूप से आत्मनिर्भर बनाना है तो प्रत्येक बैलों से कृषि करने वाले किसानों को 1000 रु. माह कुछ समय के लिए ही दिया जाना चाहिए, जिससे उनको प्रोत्साहन मिल सकें एवं हमें जैविक खाद से उत्पादित अन्न-सब्जी और फल मिल सकें। 

आज सरकारों ने न केवल बैलों को, बल्कि किसानों को भी नाकारा बना दिया है, आज कोई मेहनत करना ही चाहता, जबकि असली अन्नदाता केवल मात्र किसान हैं, जिनसे समस्त जनता का पोषण होता है। कुर्सियों पर बैठकर काम करने वालों को लुटेरों की संज्ञा भी दी जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  

यदि बैल बच गये तो गौमाता भी बच जायेगी क्योंकि बैलों की जननी स्वयं गौमाता ही है। हम बार-बार कहते हैं कि प्रत्येक पिता को अपनी कन्यादान के साथ वास्तविक रूप से गौदान भी करना चाहिए, जिससे उनके घर का चूल्हा चल सकें एवं परिवार का दूध, दही, घी से पोषण हो सकें। आज बैलों की कद्र घटने के कारण रोज सड़क पर गौमाता रोड़ एक्सीडेन्टों में मर रही है। कुछ व्यक्ति उन गायों को आवारा कहते हैं, धिक्कार है हमें, हमारी माता ही आवारा हो गई तो हमें क्या कहेंगे....?

हमने सरकारों को कुछ सूत्र दिये थे, जिन पर अभी तक अमल नहीं हो पा रहा है। वे सूत्र निम्र हैंं-

1. सरकार को विद्यालय में अध्यापकों की भाँति गौसेवकों के पद सृजित कर प्रत्येक गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी में नियुक्ति देनी चाहिए जो गौमाता को दिन में घेर के रूप में जंगलों में विचरण करा चारा-पानी करा सकें। उनको गौमाता की संख्यावार लक्ष्य भी आवंटित किया जाना चाहिए, जिससे गौमाता को बढ़ावा मिल सकें। इनका वेतन भी गौ मालिकों से पंचायतें चराई के रूप में ले सकती है।

2. प्रत्येक गाँव में गौमाता के लिए धेनुवालय/कामधेनू निवास आदि किसी नाम से एक आवास की स्थापना की जानी चाहिए। इसके लिए लिए पुराने समय से चले आ रहे कांजी हाऊस को भी काम में लिया जा सकता है। जहाँ से ही गायों की घेर बनकर जाये, जिससे कोई भी व्यक्ति गोमाता को 'आवाराÓ की संज्ञा नहीं दे सकें। 

3. यदि भूले-भटके कोई गौमाता चारा-पानी के लिए किसी खेत में चल निकले तो उस खेत का मालिक गौमाता को उसके आवास पर भेजने की वयवस्था करें या गौसेवक को सूचित करें। यदि खेत का मालिक गौमाता पर जुल्म करें तो उसे कठोर दंड के साथ दंड दिया जाना चाहिए।              

4. गोमाता के लिए चारागाह मुक्त होना चाहिए। अतिक्रमणियों के लिए जुर्माने एवं दंड का विधान होना चाहिए। 

5. प्रत्येक गौसेवक को प्राथमिक रूप से गौप्रसव, दुग्ध निकालना, गौपालन करना एवं समुचित प्राथमिक चिकित्सा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

6. प्रत्येक गौपालक माताओं को गोमाताओं के चारा-पानी के लिए पाँच सौ रुपये मासिक अनुदान दिया जाना चाहिए, जिससे नौकरी/गुलामी की ओर भग रही लड़कियों पर अंकुश लग सके तथा वे आत्म निर्भर बनकर अपने घर का चुल्हा एवं बच्चों के लिए शुद्ध दूध उपलब्ध करा सकें।

इन सारे उपायों से गौसंवर्धन तो होगा ही, कामधेनू साक्षात् मनवांछित फल प्रदान करेगी। हमारे देश में पुन: दूध-दही की नदियां बह निकलेगी। कृषि में उर्वरकता बढ़ जायेगी। हमें शुद्ध अन्न, दूध, सब्जी, फल मिल सकेंगे और हमारा देश पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर भारत बनेगा।

किसान ही वह भगवान है, जिसके बिना हर उद्योग-धंधे की कल्पना करना भी बेमानी होगी। हर उद्योगों का कच्चा माल इस धरती में उत्पन्न होता है, जिसको पल्लवित करने में किसान की ही महत्ति भूमिका है, तभी तो हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने जय जवान की साथ जय किसान का नारा बुलंद किया था।

देश के प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री, गोपालन मंत्री एवं राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों से निवेदन है कि आत्मनिर्भर भारत बनाने की दिशा में उपर्युक्त सुझावों पर अमल करें।

                                                                         ।। वंदे मातरम्।। 

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